घर के अंदर घर की चारदीवारी में।

सीमायें टूटी हैं आपसदारी में।।


वो वर्षों के रिश्ते नाते भूल गया

ऐसा क्या है उस दो दिन की यारी में।।


ज़र ज़मीन का बँटना कोई बात नहीं

दिल क्यों बाँटा सबने हिस्सेदारी में।।


महल सरीखी खुशी दिखी है कुटिया में

कुटियों का खालीपन महल अटारी में।।


दिल के चोरी होने पर अफसोस नहीं

आखिर कब तक रखता पहरेदारी में।।


नदिया इठलाकर सागर से मिलती है

आख़िर क्या मीठापन है उस खारी में।।


ज़ीस्त भले  आलस दिखलाया करती है

मौत हमेशा रहती है तैयारी में।।


सुरेश साहनी, कानपुर

Comments

Popular posts from this blog

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है