नदी तालाब सागर झील झरने

तरक्क़ी हैं इन्हीं सब की कतरनें।।

हमारे गांव लंगर नाव घर सब

तुम्हारे ठाठ हैं इनकी उजड़नें।।


अँगूठा द्रोण ने काटा गलत है

व्यवस्था ही अंगूठा काटती है।

कि गुरुता द्रोण बन कर बेबसी में

किसी अन्धे के तलवे चाटती है।।


तुम्हारे महल ये अट्टालिकायें

हमारी संस्कृति के मकबरे हैं।

तुम्हारे शहर तब विकसित हुए जब

हमारे लाभ हित घुट कर मरे हैं।।


हमारे द्रोण को आज़ाद कर दो

तुम्हारी राजतंत्रीय बेड़ियों से।

छुड़ा लेगा धरा को एकलव्य तब 

विदेशी पूंजीवादी भेड़ियों से।।

सुरेश साहनी , कानपुर

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