वे भगवा वे नीला परचम लेकर दौड़ रहे हैं।

हम हैं एक तिरंगे का दम लेकर दौड़ रहे हैं।।


वे गर्दन तक डूब गए हैं नफ़रत के सागर में

हम लहरों के ज़ेरो बम को लेकर दौड़ रहे हैं।।


वे दिन रात पिये जाते हैं पर संतोष नहीं है

हम हैं सिर्फ़ सुराही का खम लेकर दौड़ रहे हैं।।


आलम दौड़ रहा है अपनी ख़ातिर अंधा होकर 

पर हम किसकी ख़ातिर आलम लेकर दौड़ रहे हैं।।


नफ़रत फुर्तीला करती है हम मज़हब वालों को

ये त्रिशूल ताने वो बल्लम लेकर दौड़ रहे हैं।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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