ज़ीस्त अपनी निकल गयी आख़िर।

मौत  आयी थी  टल गई आख़िर।।

आरज़ू कब   तलक जवां  रहती

उम्र के  साथ   ढल गयी आख़िर।।

नौजवानी   ढलान  पर   आकर

बचते बचते फिसल गई आख़िर।।

आपने भर निगाह देख लिया

इक तमन्ना मचल गयी आख़िर।।

हुस्न होता भले बहक जाता

पर मुहब्बत सम्हल गयी आख़िर।।

उम्र के इस पड़ाव पर आकर

ज़िंदगानी  बदल  गयी आख़िर।।


Suresh Sahani,kanpur

Comments

Popular posts from this blog

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

श्री योगेश छिब्बर की कविता -अम्मा

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है