सर पे जब अपने सायबान न था।

लोग थे कोई हमज़बान न था।।


आशना था मेरा शहर मुझसे

पर शहर में मेरा मकान न था।।


फेल होने का डर न था हरगिज़

इश्क़ था कोई इम्तेहान न था।।


क्या ख़ुदा है ज़मीं की पैदाइश

उससे पहले ये आसमान न था।।


दूर होने की थी वज़ह इतनी

फासला अपने दरम्यान न था।।


शेख़ क्यों मैक़दे से लौट गया

दीन वालों को इत्मिनान न था।।


इतने ख़ाने बना दिये नाहक़

वो ख़ुदा भी तो लामकान न था।।


सुरेश साहनी,अदीब

कानपुर

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