छोड़कर अपने आशियानों को।

आओ छूते हैं आसमानों को।।


वक़्त कब आज़मा सका हमको

हम बुलाते थे इम्तहानों को।।


मेज़बां लापता है महफ़िल से

खाक़ देखेंगे मेहमानों को।।


अपने तकिए में चल के सोते हैं

कितना देखें ख़राब खानों को।।


सांस की धौंकनी में ही दम है

कम जो समझे हो नातवानों को


क्यों मशक्कत करे हैं खेतों में

कौन समझाए इन किसानों को।।

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