अगर हम लड़ रहे हैं तीरगी से।
उन्हें परहेज क्यों है रोशनी से।।
कहीं रह लेंगे हम अल्लाह वाले
यतीमों को गरज़ है आरफी से।।
तख़य्युल में है जिसके धूप यारों
कहीं वो जल न् जाये चाँदनी से।।
उन्हें कह दो न मक़तल से डराएं
हम आते हैं मुहब्बत की गली से।।
भले मुन्सिफ़ कचहरी झूठ की थी
जो हम हारे तो सच की खामुशी से।।
तो जाए घर बना ले आसमां पर
अगर डरने लगा है बन्दगी से।।
क़मर-ओ-शम्स की यारी से बचना
तआरुफ़ है अगर आवारगी से।।
छुपे रहते कभी रसवा न होते
जो हम खुल के न् मिलते हर किसी से।।
ग़ज़लगो मुत्तफ़िक़ हैं आज इस पर
बचाना है अदब को साहनी से।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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