साला बिना ससुराल कहाँ और
साली बिना न हँसी न ठिठोली
साली की मीठी सी बोली के आगे
घरैतिन लागे है नीम निम्बोली
साला बिना पकवान सुहाये ना
साली बगैर सुहाए न होली
आई गए ससुराल के लोग तो
सोहे कहाँ होरियारों की टोली।।
जैसे छछूंदर आवत जाति है तैसे ही वे छुछुवाय रहे हैं
टेसू गुलाल अबीर जुटाने को सांझ से ही अकुलाय रहे हैं
होली पे साली के आने की बात से फुले नहीं वे समाय रहे हैं
सर की सफेदी छुपाने के लाने वो डाई खिजाब लगाय रहे हैं।।
लागत है अस पूरी की पूरी अमराई बऊराय गयी है।
महुवारी मह मह महके है फुलवारी भी फुलाय गयी है।।
हम घर में हैं बाहर होरी में पूज के आग धराय गयी है
कैसे बचें हम उनकी सहेली आय के रंग लगाय गयी है।।
होली कहाँ जो न् खाये लठा
ब्रजनारी सों और भिजाये न चोली
कान्हा के रंग रँगी चुनरी अब दूसरो रंग अनंग न डारो
निर्गुण ज्ञान की चाह नहीं गुणग्राही पे निर्गुण रंग न डारो
रति काम विदेह हुए जिससे उस रास में काम प्रसंग न डारो
प्रेम के रंग में अंग रँग्यो है छेड़ के रंग में भंग न डारो।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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