अगर सचमुच वतन की फ़िक़्र होती।

तो क्या फिर जानो-तन की फ़िक़्र होती।।


उसे तर्ज़े कहन की फ़िक़्र होती।

अगर उसमें सुखन की फ़िक़्र होती।।


अगर हम लाश होते तो हमें भी

नए इक पैरहन की फ़िक़्र  होती ।।


हमारा पासवां सैयाद ही है

उसे वरना चमन की फ़िक़्र होती।।


अगर दीवारों-दर पहचानते तो

हमें भी अन्जुमन की फ़िक़्र होती।।


अगर होता अदूँ में फ़िक़्र का फन

यक़ीनन उसको फन की फ़िक़्र होती।।


अदब आता तो  बेशक़ साहनी को

ज़माने के चलन की फ़िक़्र होती।।


सुरेश साहनी, कानपुर

9451545132

Comments

Popular posts from this blog

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

श्री योगेश छिब्बर की कविता -अम्मा

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है