वसुधैव कुटुम्बकम।सुनने में कितना अच्छा लगता है।किंतु जब इस सूक्तवाक्य के मानने वाले लोग ब्राम्हण ,क्षत्रिय, वैश्य शुद्र अथवा अन्यान्य जातियों के समागम करते दिखाई पड़ते हैं तो आत्मिक कष्ट भी होता है।यह दायरा यहीं छोटा नहीं होता।जातियों में भी उपजातियों के सम्मेलन आहूत किये जाते हैं। और हर सम्मेलन की एक ही भाव कि उस सम्मेलन में आहूत जाती/उपजाति का अन्य सबल जातियों या सरकारों ने अब तक शोषण किया है । अब सम्बंधित सम्मेलन के आयोजक ही उन्हें उनके अधिकार दिलाएंगे।या अधिकार दिलवाने के संकल्प लेते हैं, आदि आदि।
फिर उनमें से कुछ जाति/उपजाति के नाम पर राजनैतिक दल भी बना कर स्वयंभू राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बन जाते हैं।
लेकिन संकीर्णता तो संकीर्णता है।इस भाव से ग्रसित व्यक्ति या समाज अपने समाज और परिवार के प्रति भी उदार अथवा व्यापक दृष्टिकोण नही रखता।
अभी कुछ दिन पहले मेरे वृहद परिवार के सदस्य किसी बड़े महानगर में मिले। किसी मित्र से बातचीत के क्रम में मैंने बताया कि वह मेरे अनुज हैं।मेरे चाचा जी के सुपुत्र हैं। पर उन्होंने मेरे व्यापक दृष्टिकोण पर वहीं पानी फेर दिया जब उन्होंने मित्र को बताया कि भैया भी मेरे गांव के ही है ।
Principle of Coherrism
समन्वय के सूत्र से
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