मेरी जानकारी में कानपुर में लगभग चार सौ सक्रिय कवि या शायर हैं।छुपे हुए डायरी बन्द और शौकिया हज़ार से कुछ अधिक ही होंगे। प्रदेश में सौ गुना मान लीजिए।

     इस सूची से अपना नाम वापस लेने में भलाई लगती है।

अच्छा ही हुआ अपने समय के सुप्रसिद्ध कवि प्रतीक मिश्र  जब "कानपुर के कवि"  पुस्तक लिये सामग्री जुटा  रहे थे, तब हम छूट गए थे। उनको किसी ने बताया ही नहीं। जलने वाले कवि तो तब भी रहे होंगे। जब कबीर और तुलसी से जलने वाले कवि हुए हैं तो हमसे जलने वाले क्यों नहीं हो सकते।

 अभी एक कवि महोदय को एक गोष्ठी में नहीं बुलाया।उन्हें बहुतै बुरा लगा। उन्होंने तुरंत एक गोष्ठी का आयोजन किया, और किसी को नहीं बुलाया। एक पौवा, चार समोसे एक प्याज, एक चिप्स का पैकेट और एक बीड़ी का बंडल।और शीशे के सामने महफ़िल सजा के बैठ गए। मुझसे बताने लगे तब पता चला।मैंने कहा यार मुझे ही बुला लिया होता।मैं तो पीता भी नहीं।

     वे बोले,"-इसीलिए तुम कवि नहीं बन पाए, और यही हाल रहा तो कवि बन भी नहीं पाओगे।" हमेशा फ्री के जुगाड़ में रहते हो। मैने जोर देकर कहा, भाई! में बिलकूल नहीं पीता"।

उन्होंने गम्भीरता से कहा, " में पिलाने की बात कर रहा हूँ।"

  लेकिन यह कत्तई सत्य बात है कि मेरी युवावस्था में जब मै आयुध निर्माणी में प्रशिक्षण ले रहा था। उस समय तक मेरे पास चार से पांच डायरी नुमा रचनाएं इकट्ठा हो गयी थीं।और में अपने आप को बड़ा साहित्यकार होने के मुगालते में रहने लगा था। उन डायरियों में मेरी कुछ कविताएं और लगभग ग्यारह बारह कहानियाँ संग्रहित थीं।

  एक दिन घर पहुँचने पर देखा तो वे डायरियां अपने स्थान पर नहीं थी।पूछने पर अम्मा ने बताया। हउका बीस आना धइल बा!कबाड़ वाला मनते नाहीं रहल।बड़ा मुश्किल से बीस आना में ठिकाईल । मुझे अपने ऊपर झुँझलाहट हो रही थी।

  ये अलग बात कि उसके बाद दो एक कबाड़ियों के घर से  दामाद बनाने के संदेश भी आये। मैं समझता हूँ एक कवि को कबाड़ वाले से ज्यादा कोई समझ भी नहीं सकता।

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