मैं अपने पढ़ने वालों की ख़ातिर लिखता हूँ।

लिखने में थक भी जाता हूँ पर फिर लिखता हूँ।

औरों ने मजहब के आगे दिल तोड़े होंगे

मैं दिल को गुरुद्वारा- मस्जिद-मन्दिर लिखता हूँ।।

जो मज़हब को मानवता से ऊपर रखते हैं

मैं उनको ढोंगी तनखैया काफ़िर लिखता हूँ।।

जिन लोगों ने मजहब को व्यापार बनाया है

मैं ऐसों को संत न लिखकर ताज़िर लिखता हूँ।।

धनपति जो हो गया आज सब माया है कहकर

मुझको बोला मैं पैसों की ख़ातिर लिखता हूँ।।

जो सत्ता के इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं

तुम साधू समझो मैं उनको शातिर लिखता हूँ।।

सुरेश साहनी, कानपुर

Comments

Popular posts from this blog

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है