हम जन्मजात अभिचिन्तक है
सदियों पहले के सूत्रधार
बल से कम छल से गए हार
उस छल की पीड़ा को लेकर
मन मे इस बीड़ा को लेकर
हम सोते में भी जगते हैं
इक ऐसी सुबह हम लाएंगे
जब हमसे छल करने वाले
अपने छल से घबराएंगे
हर रोज सुबह तब होती है
जब इस प्रसूति पीड़ा का फल
कविता अपना आकार लिए
कागज की धरती पर आकर
जब स्वयम प्रस्फुटित होती है
मैं नहीं मात्र तब साथ मेरे
सदियों की पीड़ा उठती है
सदियों की पीड़ा उठती है
जब जन्म नई कविता लेगी
हर बार प्रथम प्रसवानुभूति
से कवि तो निश्चित गुजरेगा
पर जब भी कविता जन्मेगी
हर बार किसी अव्यवस्था से
आक्रोश प्रथम कारण होगा....
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