यह भारतीय राजनीति का संक्रमण काल  चल रहा है। आम जनता ,किसान, आदिवासी समुदाय, जलवंशी समुदाय ,सवर्ण समाज और पिछड़ी जातियां आदि अनेक मुद्दे हैं जिन पर लिखा जा सकता है। लेकिन कुछ भी लिखने के लिए कुछ तो समय चाहिए। सो है नहीं। रोजी रोटी के लिए सुबह शाम की मशक्कत आपकी  चिन्तन क्षमता हर लेती है।

 उससे भी बड़ी दिक्कत है कि भारत सरकार की आर्थिक नीति बड़ी तेजी से बाज़ारवाद के अंधे कुएं की ओर बढ़ रही है। मीडिया  केवल उन्ही राजनैतिक दलों को भारतीय राजनीति के विकल्प बता रहा है, जो आर्थिक उदारवाद के नाम पर गरीब-विरोधी आर्थिक नीतियों को प्रश्रय देते आ रहे हैं।आज देश के अधिकांश बुद्धिजीवी इन ज़मीनी सच्चाईयों से मुँह फेरकर जाति-धर्म की राजनीति पर जुगाली कर रहे हैं। ये सब घूमकर केवल इस बात पर जोर देने में लगे हैं कि जहां जिस भी दल से इनकी बिरादरी या धर्म के लोग लड़ रहे हों उनके समर्थन का दिखावा करो।इन सब का देश के समाज के ,इनके खुद के जातिय समाज के विकास से कोई मतलब नहीं।आख़िर इन सबके धर्म, मजहब, पंथ और जाति को ख़तरा जो है। ऐसे में आप कुछ भी सकारात्मक लिखें,लोग उसे नकारात्मक रूप में लपकने के लिए तैयार बैठे हैं।

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