जिनसे कभी मिले नहीं अक्सर उन्ही में हम।

ख़ुद को तलाशते रहे खोकर उन्हीं में हम।।


क्यों जाये हम बहिश्त कहीं और ढूंढ़ने 

शायद कि ख़त्म कर सकें बंजर उन्हीं में हम।।


वैसे तो किस्मतों पे भरोसा नहीं रहा

फिर भी जगा रहे हैं मुक़द्दर उन्हीं में हम।।


ग़ैरों के आसमान में जाएं तो किसलिए

दिल कह रहा है होंगे मुनव्वर उन्हीं में हम।।


बेशक़ मिले नहीं हैं ख़्याली ज़हान से 

लेकिन बने रहेंगे बराबर उन्हीं में हम।।


माना कि ऐसी राह में हैं राहजन मगर

पाते हैं हर मुकाम पे रहबर उन्हीं में हम।।


दिल में बिठा के अपने ही दिल के लिए अदीब

ताउम्र खोजते फिरे इक घर उन्हीं में हम।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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