हिन्दू या मुसलमान भी रहने नहीं दोगे।

तो क्या हमें इंसान भी रहने नहीं दोगे।।


मौला को निगहबान भी रहने नहीं दोगे।

फिर कहते हो भगवान भी रहने नहीं दोगे।।


जीने के लिए जान भी रहने नहीं दोगे।

मर जाएं यूँ बेजान भी रहने नहीं दोगे।।


सुख चैन के सामान भी रहने नहीं दोगे।

घर मेरा बियावान भी रहने नहीं दोगे।।


फतवों के तले कौम दबी जाती है सारी

क्या जीस्त को आसान भी रहने नहीं दोगे।।


क्या इतने ज़रूरी हैं सियासत के इदारे

तालीम के ऐवान भी रहने नहीं दोगे।।


अब काहे का डर तुमने कलम कर दीं जुबानें

अब बोलते हो कान भी रहने नहीं दोगे।।


हर रोज़ बदल देते हो तुम नाम हमारे

क्या कल को ये उनवान भी रहने नहीं दोगे।।


हल बैल गये साथ मे खेतों पे नज़र है

शायद हमें दहकान भी रहने नहीं दोगे।।


सुरेश साहनी, कानपुर

9451545132

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