सपने लेकर नींद कुंवारी लेटी है।।

खोई खोई आस बिचारी लेटी है।।


क्या ज़िंदा रहना ही है ज़िंदा होना

वो बिस्तर पे लाश हमारी लेटी है।।


अस्पताल चलते हैं दौलत वालों से

तुम क्या समझे वो बीमारी लेटी है।।


बीबी खुश है आज़ादी की राह खुली

वो माँ है जो ग़म की मारी लेटी है।।


बोझ गृहस्थी का अब कौन उठाएगा

वो घर भर की ज़िम्मेदारी लेटी है।।


टूट रही हैं लोकतंत्र की सांसें अब

बंदूकों पर रायशुमारी लेटी है।।


इस शासन में अब शायद ही उठ पाये

सीसीयू में जन ख़ुद्दारी लेटी है।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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