तेरे फ़िराक़ की दहशत से रात बिगड़ी है।

कि तुझसे राब्ता रखने से बात बिगड़ी है।।

समर न मांगती हौव्वा तो इल्म क्यों होता

इस इक गुनाह से आदम की जात बिगड़ी है।।

साहनी

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