जाने कैसे इन हाथों से हो जाती है हर रोज ग़ज़ल।।
लेकिन बाज़ारी दुनिया में खो जाती है हर रोज ग़ज़ल।।
ख्वाबों के टूटा करने से हर रोज उजड़ती है दुनिया
पर फसल सुहाने ख़्वाबों की बो जाती है हर रोज ग़ज़ल।।
कुछ अपनी फिक्रों के कारण कुछ दुनिया की चिंताओं से
मैं जगता रहता हूँ लेकिन सो जाती है हर रोज ग़ज़ल।।
मैं रोज हथौड़ी छेनी से कुछ भाव तराशा करता हूँ
पर अगले दिन ही पत्थर क्यों हो जाती है हर रोज ग़ज़ल।।
मेरे मिसरे उन गलियों में क्यों जाकर भटके फिरते हैं
जब उन गलियों से ही होकर तो जाती है हर रोज ग़ज़ल।।
सुरेश साहनी, कानपुर
अदीब
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