लोग कहते हैं समन्वय जैसी कोई स्थिति नहीं बन सकती। जो विज्ञान से परिचित नहीं वो पदार्थ की प्लाज्मा अवस्था को भी नहीं मानते।आज के सामाजिक राजनीतिक परिदृश्यों पर विहंगावलोकन करें तब देखेंगे।पूंजीवाद राष्ट्रवाद की मजबूत आड़ ले चुका है। मनुवाद दलित हितैषी होने का नाटक कर रहा है। दलित पुरोधा सामंतवाद की ढाल बनकर खड़े हैं। आज आंदोलन देशद्रोह और सरकारी दमनचक्र को राष्ट्रहित बताया जा रहा है।इन स्थितियों के पनपने का कारण यही है कि हम समन्वय के मार्ग से भटक गए थे। या यूं कहें कि समन्वयवादी निषाद(द्रविण) संस्कृति को शनैःशनैः ध्वस्त कर दिया गया। प्राचीन आर्ष ग्रंथों में जहां एक ओर शैव और वैष्णवों में समन्वय स्थापित करने की बात की  जाती रही, वहीं दूसरी ओर शिव भक्तों को आज की भांति ही खलनायक बता बता कर मारा जाता रहा।

 यह समन्वय और विग्रह का संघर्ष आज भी जारी है।  जब तक समन्वयवाद एक राजनैतिक दर्शन के रूप में नहीं उभरेगा। तब तक देश इन दमनकारी व्यवस्थाओं से मुक्त नहीं होगा।

सुरेश साहनी, प्रणेता- समन्वयवाद

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