क्या बात करें गुज़रे कल की।

जब रीत गयी गागर जल की।।

करते करते कल की आशा

हम भूल गए जग की भाषा

जो पूर्ण समय पर नहीं हुई

क्या रखते ऐसी अभिलाषा

कुछ ढलकाये कुछ खुद ढलकी।।

तुमने कितने इल्ज़ाम दिए

स्वारथी छली सब नाम दिए

पर इतने निष्ठुर नहीं रहे

तुमने ग़म भी इनाम दिये

कुछ मज़बूरी होगी दिल की।।

जग को बतलाना ठीक नहीं

पीड़ा को गाना ठीक नहीं

तुमने बोला बस प्यार करो

होठों पर लाना ठीक नहीं

छलिया को सुन आंखें छलकी।।

तुम कब समझे हो प्रीत इसे

मत कहो प्रीत की रीत इसे

मैं तुमको हारा समझूंगा

तुम कहते रहना जीत इसे

कामना गयी फल प्रतिफल की।।


सुरेशसाहनी, कानपुर

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