भूख और प्यास के मुद्दों को दबा देता है।

जब वो मज़हब की कोई बात उठा देता है।।

इतनी चालाकी से  करता है मदद क़ातिल की

मरने वाले को कफ़न उससे दिला देता है।।

अपना घर दूर जज़ीरे में बना रखा है

जब शहर जलता है वो खूब हवा देता है।।

अपने परिवार के हक में कभी अपनी ख़ातिर

कौम के सैकड़ों परिवार मिटा देता है।।

कौन सी कौम है जिससे न हो रिश्ते उसके

कौम के क़ौम वो चुटकी में लड़ा देता है।।

रोज खाता है हक़-ए-मुल्क़ में इतनी कसमें

पर सियासत के लिए रोज भुला देता है।।

बख्शता है कहाँ वो मुल्क़ को मजहब को भी

ग़ैर तो ग़ैर वो अपनों को दगा देता है।।

सुरेश साहनी, कानपुर

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