न्याय पर से भी भरोसा उठ गया।
अब व्यवस्था का ज़नाज़ा उठ गया।।
आईये मिल कर पढ़ें यह मर्सिया
लग रहा है कोई अच्छा उठ गया।।
अब तेरी महफ़िल में रौनक ख़त्म है
दिल तेरी महफ़िल से तन्हा उठ गया।।
इक मदारी को यही दरकार है
चंद सिक्के और मजमा उठ गया।।
बन्द कमरे में हुई कुछ बैठकेँ
और फिर नाटक का पर्दा उठ गया।।
सुरेश साहनी
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