मैं इससे तो सहमत हूँ की किसी भाषा का मजाक नहीं उड़ाना चाहिए|लेकिन हिंदी वाले किसी का मजाक उड़ाते हैं इससे सहमत नहीं हूँ ,क्योंकि उपहास भारतीय संस्कृति का अंग नहीं है,अपितु परिहास और खिलंदड़ा पन भारतीय जीवन-शैली जरुर है|हमारे देश में हिंदी के विरोध का कारण दूसरी भाषाओं का अपमान करने की मूर्खता नहीं बल्कि वोट-बैंक वाली घटिया राजनीति है|और देश भाषा के कारण नहीं बल्कि जाति-धर्म और क्षेत्र की राजनीति के कारण बँटा हुआ है|पता नहीं क्या सोचकर ये तथाकथित भाषाविद हिंदी पर संकीर्ण और नस्लवादी होने का आरोप लगा रहे हैं|हिंदी भाषियों की उदारता पर प्रश्नचिन्ह लगाना उचित नहीं|यह एक प्रकार का मानसिक दमन है जो कुछ निजी हित साधन का जरिया सिद्ध करता है|मैं तो हिंदी में समस्त भाषा -बोली के आवश्यक शब्दों का स्वतः-समावेशन का समर्थक हूँ,और मुझे गर्व है की हिंदी इन गुणों से स्वयं-विभूषित है|

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