औपचारिकता कथन में
भाव है किसके जेहन में।।
यंत्रवत कर तो रहे हैं
मन नहीं है आचमन में।।
पोत कर कुछ रंग चेहरे
भाव से बेरंग चेहरे
आ रहे हैं जा रहे हैं
छल कपट ले संग चेहरे
कर रहे आसक्तियों की
साधना कंक्रीट वन में।।
हास्य स्वाभाविक नहीं है
अश्रु नैसर्गिक नहीं है
भावनायें कामधर्मी
नेह अब सात्विक नहीं है
हुस्न है बाजार में अब
इश्क़ दैहिक संक्रमण में।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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