मेरी अपनी लिखी हुई 

न जाने कितनी गज़लें नज़्में और प्रेमगीत

केवल इसलिए मिटा डाले

कि लोग कह मत दें

काफिया रदीफ़ मकता मतला बहर

ताल मात्रा 

और छंद से परे  न जाने क्या क्या

कभी बेसुरा होने के डर ने

मुझे गाने नहीं दिया

कभी बेढंगे होने के डर ने 

खुल कर नाचने नहीं दिया

बेताला होने का डर

लय खोने का डर

और सबसे बड़ा डर कि लोग क्या कहेंगे

लोग जिनसे अपने सरोकार ही नहीं   थे

और जो अपने थे उन्होंने कभी नहीं चाहीं

औपचारिकतायें और दिखावे

उन्होंने नहीं देखे बहर लय ताल सुर या मात्रायें

दरअसल हमारे सरोकार एक थे

और वे थी,हमारी सहजता सरलता और निश्छलता

जिन्हें खोकर मैंने उन्हें खो दिया

जो देते थे मुझे प्यार और दुलार

मैंने खो दिए वे भाव

जिनसे बन सकती थी मेरी नज़्में और गज़लें

और खो दिया वह प्रवाह

जो ले जा सकता था शांति के सागर तक......

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