रेत के आंसुओं को न समझोगे तुम

तुमने मरुथल में रातें गुज़ारी कहाँ।

जलती रेतों में झुलसे नहीं तुम कभी

तुमने सहरा में किश्ती उतारी कहाँ।।

होठ सूखे अगर पपडियां जम गयीं

प्यास सदियों से पहले  बुझेगी नहीं

ज़ीस्त भटकेगी दस्ते-सराबा में पर

तिश्नगी उम्र भर फिर थमेगी नहीं

Comments

Popular posts from this blog

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है