सपने जब से सरकारों की क़ैद हुए।

सच उस दिन से अख़बारों की क़ैद हुए।।


भूले भटके जो मिल जाते थे पहले

खुशियों के दिन त्योहारों की क़ैद हुए।।


हिन्दू मुस्लिम के गंगा जमुनी रिश्ते

मज़हब के पहरेदारों की क़ैद हुए।।


ख़त्म हुए दिन अब रिंदों की मस्ती के

सागर साकी सब बारों की क़ैद हुए।।


मुक्ति कहाँ सम्भव है अब मरने पर भी

जब से विवरण आधारों की क़ैद हुए।।


प्रेम भटकता है उनमें जिन गलियों में

दिल नफरत की दीवारों की क़ैद हुए।।


परमारथ की नदियाँ सागर सुख गए

हम स्वारथ वाले नारों की क़ैद हुए।।


सुरेश साहनी ,कानपुर

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