क्यों मुँह है मेरा ढका हुआ।

क्या जग है मुझसे पका हुआ।।


बस गहन नींद में सोया हूँ

हूँ जन्म जन्म का थका हुआ।।


अब पता चला वह थी सराय 

घर समझ जहाँ था रुका हुआ।।


यह देह नहीं इक गेह कोई

दस द्वार लिए तालुका हुआ।।


मैं चाकर नहीं ब्रम्ह ही हूँ

जितना सुमिरन हो सका हुआ ।।


मन डूब गया जब ब्रजरस में

तब जाकर मन द्वारका हुआ।।


सुरेश साहनी कानपुर

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