कौन किसका असीर है साहब
सबकी अपनी ही पीर है साहब
बेवफ़ा क्यों कहें किसी को हम
अपना अपना ज़मीर है साहब
आज बेहतर है कल ख़ुदा जाने
आदमी का शरीर है साहब
हुस्न होता तो बदगुमां होता
इश्क़ सचमुच फकीर है साहब
इसकी किस्मत में सिर्फ जलना है
हाँ यही काश्मीर है साहब
पास माँ बाप थे तो लगता था
पास अपने ज़गीर है साहब
आपका प्यार मिल सके जिससे
कौन सी वो लकीर है साहब
आज दिल खोल कर सितम कर लो
वो ख़ुदा भी अमीर है साहेब
सुरेश साहनी, कानपुर
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