खुद को यूँ भी तलाशता हूँ मैं। शब्द दर शब्द जूझता हूँ मैं।। चैन से सो सकें मेरे अपने इसलिए रात जागता हूँ मैं।। तुम जबाबों में खोजते हो मुझे और सवालों में भटकता हूँ मैं।। इस क़दर टूटकर न चाहो मुझे वरना समझूँगा देवता हूँ मैं।। किसी पत्थर से सच नहीं कहता जानता हूँ कि आईना हूँ मैं।। मैं तेरा इन्तिज़ार कर लूँगा आख़िरश तुझको चाहता हूँ मैं।।
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Showing posts from 2022
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बचपन में सम्पन्न बहुत था जब सोने चांदी से बढ़कर होते थे कुछ कंकड़ पत्थर उसके बाद लड़कपन आया.... वह भी ओ एफ सी में आकर बीता समय प्रशिक्षण लेकर जितना खोया उतना पाया.... जब तक फूटे यौवन अंकुर मैं सरकारी नौकर होकर आयुध निर्माणी में आया..... अब इतना मिलता है वेतन घर परिवार साधु का यापन करने लायक ही हो पाया.... मात पिता जा चुके छोड़कर बीबी बच्चे छोटा सा घर यह जीवन भर का सरमाया..... कैसे कह दूँ बहुत कमाया जितना खोया उतना पाया बचपन में सम्पन्न बहुत था।।
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समझता हूँ सब कोई बच्चा नहीं हूँ। तुम्हें क्या लगा मैं समझता नहीं हूँ।। सियासत भी गोया तुम्हीं जानते हो तो सुन लो मैं माटी का बबुआ नहीं हूँ ।। जहाँ पढ़ रहे हो वहाँ प्रिंसिपल था अभी तक मैं फ़न अपने भूला नहीं हूं।। तुम्हारे कपट छल तुम्हीं को मुबारक तुम्हारी तरह मैं कमीना नहीं हूँ।। कहीं दुम हिलाऊँ ये मुझसे न होगा कलमगीर हूँ कोई कुत्ता नहीं हूँ।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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घटा घिर घिर के गहरी हो रही है। हवा ज़िद पर है ज़हरी हो रही है।। किसी की दावते-इफ़्तार है तो कहीं फांके की सहरी हो रही है।। किसी का दिन अभी भी सो रहा है जवां कोई दुपहरी हो रही है।। सुना है साँझ का आँचल ढला है शरम से रात दोहरी हो रही है।। हमारी ख़्वाहिशें रोहू की मछली मगर तक़दीर सिधरी हो रही है।। सुरेश साहनी,कानपुर
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कौन कहता है किसे चाँद और सूरज चाहिए। जगह आख़िर में सभीको सिर्फ़ दो गज चाहिए।। हश्र में आमाल के काग़ज़ तो मैं पहचान लूँ लिखने वाले हमको तक़दीरों के काग़ज़ चाहिए।। हम जहाँ चाहे रहें मरकज़ मेरी मोहताज़ है यूँ सहारे के लिए हरएक को मरकज़ चाहिए।। सादगी और साफगोई अब किसे स्वीकार है हर किसी को अब दिखावा और सजधज चाहिए।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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आप पर जां लुटानेका क्या फायदा। आपसे दिल लगाने का क्या फायदा।। चोट दिल पर लगी है ख़लिश पूछिये बेसबब मुस्कुराने का क्या फ़ायदा।। आप दिल से मेरे जाने वाले नहीं आपका घर बसाने का क्या फायदा।। काँच से भी कहीं और नाजुक है दिल छोड़िए आज़माने का क्या फ़ायदा।। सब हँसेंगे कोई देगा मरहम नहीं ज़ख्म दिल के दिखाने का क्या फ़ायदा।। सुरेशसाहनी
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ज़मीन छुट गयी क्या आसमान में रहते। किराएदार थे कब तक मकान में रहते।। ये तुमने ज़ख्म नहीं इल्म दे दिया गोया वगरना हम भी वफ़ा के गुमान में रहते।। निकल के हसरतों ने राह इक दिखा दी नई बिना हवा के कहाँ तक उड़ान में रहते ।। न तुम मिले न खुदा से पनाह मिलनी थी तो ऐसे हाल में हम किस जहान मे रहते।। हरेक उरूज़ का इकदिन ज़वाल आना है तो हम भी इश्क़ थे कब तक उठान में रहते।। भले ही डूब गए हमको इसका रन्ज नहीं नदी तो तैर ली हमने उफान में रहते।। यकीं नहीं रहा मेराज़ के मआनी क्या किसी भी तीसरे के दरम्यान में रहते।। निकल गए तो वो वापस कहाँ से आएंगे के हक़ था तीर पे खाली कमान में रहते।। ये इश्क़ ही नहीं ग़ैरत भी दख्ल रखती है तो अहले सैफ़ कहाँ तक म्यान में रहते।। सुरेश साहनी, कानपुर।
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मैंने जब हल नहीं चलाया क्या किसान की पीड़ा गाता। ए सी कमरों में बैठा जब लिखा कृषक को भाग्यविधाता।। गेहूं क्या है और धान के पौधों की पहचान नहीं है किस सीजन में क्या उगता है मुझको इसका ज्ञान नहीं हैं मन चाहा तो गेहूँ रोपा मन करता चावल उगवाता।। कभी फावड़ा या कुदाल ले नहीं बहाया है श्रम सीकर श्रम की थकन,लिए दो रोटी खाकर सोया नहीं धरा पर क्या मजूर की पीड़ा लिखता क्या श्रम की महिमाएँ गाता।। कभी न उतरा गहरे जल में कब लहरों से हाथ मिलाया कब किश्ती ले गया भंवर में तूफानों से कब टकराया मछुआरों की पीड़ाओं पर कैसे झूठी कलम चलाता।। किन्तु उसे ही मिले ओहदे सम्मानों से गया नवाज़ा जिसने झूठी कलम चलाई घोषित हुआ वही कवि राजा मैं किसान मछुआ मजूर पर कैसे झूठे गीत सुनाता।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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दर्द इतना हसीन क्यों लायें। दिल में एक महज़बीन क्यों लायें।। उन की ख़ातिर ग़ज़ल तो पढ़ देंगे पर हमी सामयीन क्यों लायें।। दिल कहीं और क्यों लगायें हम ज़ख़्म ताज़ातरीन क्यों लायें ।। वो वहाँ आसमां पे बेहतर हैं उनको ज़ेरे-ज़मीन क्यों लायें।। क्या ख़ुदा को यक़ीन है हम पर हम भी उस पर यक़ीन क्यों लायें।। सुरेश साहनी, कानपुर
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डर कोई उसके ख़यालों में जाके बैठ गया। फिर वो इब्लीस के पालों में जाके बैठ गया।। वो अंधेरों में दगा देगा मुझे मालुम था मेरा साया तो उजालों में जाके बैठ गया।। जिसको सोचा था वो मरहम है मसीहा है वही दर्द बनकर मेरे छालों में जाके बैठ गया।। पास थे जिसके ज़वाबात ज़माने भर के सुन के नासेह की सवालों में जाके बैठ गया।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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मेरी हस्ती उजड़ती जा रही है। मेरी खुशबू बिखरती जा रही है।। कोई कह दो उसे मत याद आये खुमारी सी उतरती जा रही है।। सुपुर्दे-खाक़ कर दो वक्त रहते मेरी उम्मीद मरती जा रही है।। मुहब्बत में मेरी तासीर है क्या सरापा वो सँवरती जा रही है।। वो कहते हैं अभी नादान हूँ मैं जवानी है गुज़रती जा रही है।। सुरेश साहनी,कानपुर
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कुछ दर्द बड़ी खामोशी से सीने में जगह कर लेते हैं कुछ मरहम हैं जो लगने पर सुख चैन सभी हर लेते हैं।। कुछ रिश्ते जो खामोशी से खुद टूटे दिल भी तोड़ गए जीवन भर साथ न छोड़ेंगे मौका मिलते मुंह मोड़ गए आखिर कैसे ये ग़ैरत की सौदेबाजी कर लेते हैं।। उनके दिल मे कितने दिल हैं उनका दिल है या महफ़िल है चेहरे पर जितना भोलापन फितरत क्यों उतनी क़ातिल है ये हँस के जिबह भी करते है फिर मातम भी कर लेते हैं।। सुरेश साहनी , कानपुर
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तुम्हारी बेवफाई क्या बताते। किसे देते सफाई क्या बताते।। तेरी शैतानियां भाने लगी थीं हम अपनी पारसाई क्या बताते।। रक़ीबों के मुहल्ले में तुम्हारी हर इक से आशनाई क्या बताते।। न तुम आये न नासेह बाज आया कयामत भी न आई क्या बताते।। गये भँवरे के सिर इल्ज़ाम सारे गुलों की बेहयाई क्या बताते।। किया खारो ने हँस कर चाक दामन कली क्यों मुस्कुराई क्या बताते।। कई ने जान दी है आशिक़ी में फ़क़त अपनी बड़ाई क्या बताते।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मक्कारों ने बैठे - ठाले। कितने मज़हब ढूंढ़ निकाले।। कहते हैं सब एक बराबर फिर क्यों ऊँचे आसन डाले।। ऊँचे नीचे छोटे मोटे हर मज़हब में कितने माले।। माया पति है जितने भी सब माया है समझाने वाले।। नर्क बना देते हैं दुनिया ये जन्नत क्या जाने साले।। इनकी बहकावों में आकर लड़ मरते हैं बोले भाले।। एक महाभारत अब फिर से करवा दे ओ बन्शी वाले।।
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इक तुम्हारा नियम नियम है क्या। बेईमानों तनिक शरम है क्या।। बेचते हो धरम दुकानों में जानते भी हो कुछ धरम है क्या।। क्या पता कैसी भूख थी उसको उसने पूछा कि कुछ गरम है क्या।। हमने उसका मिजाज़ पूछ लिया उसने हँस कर कहा कि ग़म है क्या।। आईना देखते हो छुप छुप कर आईना दूसरा सनम है क्या।। क्या ये कहते हो रुठ जाएंगे हम भी देखें कि ये सितम है क्या।। ऊँची मौजों के हश्र मालुम हैं ज़िन्दगी क्या है ज़ेरो-बम है क्या।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मेरे बहुत से कवि और लेखक मित्र अक्सर ऐसी पोस्ट डालते हैं कि उनकी फलां रचना अलाने ने चोरी कर ली।अथवा अलां रचना फलाने की वाल पर मिली।मुझे लगता है कि ऐसी पोस्ट्स से निश्चित ही उन रचनाकारों की टीआरपी बढ़ती होगी। मैं भी ऐसी पोस्ट्स पढ़कर रोमांचित होता था। पर धीरे धीरे सारा रोमांच जाता रहा। बल्कि अब वे ऐसी पोस्ट्स कोफ्त देने लगी हैं। या यूं कहें कि अब यह सब पढ़कर मुझमें हीनभावना आने लगी है। पहले ऐसी हीनभावना मुझमें तब घर करने लगी थी जब लोग अपने डाइबिटीज का ज़िक्र करते थे। और वही लोग लो कैलोरी फूड्स की खूबियां बताते बताते चार समोसे चट कर जाते थे।बड़े बुजुर्ग बताते थे कि ये अमीर लोगों की बीमारियां हैं। मैं अक्सर सुनता था कि फलाने व्यक्ति का हृदय गति रुकने से निधन हो गया। तब मेरे इर्द गिर्द भी कई निधन होते थे परंतु हृदयगति रुकने के कारण निधन जैसी बात सुनने में नहीं आती थी। लोग कहते थे ,"फलाने मरि गये।, यानी वहाँ भी इन्फिरिआरिटी काम्प्लेक्स कि ह्दय गति रुकने से बड़े आदमी ही मरते हैं। फिलहाल रचना चोरी होने की बात चल रही है। मुझे बड़ा दुख है कि म...
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दगा वही दे दे अगर जिस पर था विश्वास। ऐसे में मन बावरा किससे रक्खे आस।। अपनों से ताना मिले गैरों से उपहास। ऐसे में मन बावरा क्यों ना रहे उदास।। तन दो दिन का पींजरा आती जाती सांस। मन पंछी को है भरम यह ही है आकाश।। इस दर से उस दर फिरे, फिरे गेह से गेह। अंतर पीय बिसार के पर घट ढूंढ़े नेह।। बेशक़ समझ उलाहना भले समझ फरियाद। भूल गया है जब मुझे मत आया कर याद।। सुरेश साहनी, कानपुर
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कैसे कहें तेरे बगैर ज़िदगी भी है। महफ़िल है,तेरी याद है तेरी कमी भी है।। सागर है जामनोश है साक़ी है ज़ाम भी यूँ तिश्नगी नहीं है मगर तिश्नगी भी है।। मैंने तेरी ख़ुशी में ही खुशियाँ तलाश की आखिर तेरी ख़ुशी में ही मेरी ख़ुशी भी है।। इतनी हसीन चांदनी वो भी तेरे बगैर ये तीरगी नहीं है मग़र तीरगी भी है।। गर तू नहीं तो मेरी कलम का है क्या वुजूद तू है तो मेरी नज़्म मेरी शायरी भी है।। मैं हूँ नहीं हूँ जो भी हो पर इतना मान ले तू मेरी इब्तिदा है मेरी आखिरी भी है।।
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मेरे क़ातिल को पसीना आ गया। जब मुझे मर कर के जीना आ गया।। यार की जिंदादिली तब भा गयी जब मुझे बोला कमीना आ गया।। मेरे ईमां की बुलंदी देखिये ख़्वाब में मेरे मदीना आ गया।। खाक़ हो शीशा-ओ-सागर की तलब हाँ मुझे नज़रों से पीना आ गया।। फिर दिया धोखा पुराने साल ने फिर दिसम्बर का महीना आ गया।। क्यों हटेंगे ये नये अंग्रेज अब हाथ में जब रायसीना आ गया।। दिल से हम दैरो हरम से क्या हटे सामने ज़न्नत का ज़ीना आ गया।। सुरेश साहनी कानपुर
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जीस्त में ज़िन्दगी से दूर रहे। उम्र भर हम खुशी से दूर रहे।। आप महफ़िल में उनकी अफशां थे और हम रोशनी से दूर रहे।। प्यार रुसवा न हो इसी ख़ातिर हम किसी बानगी से दूर रहे।। आप दिल की लगी नहीं समझे और हम दिल्लगी से दूर रहे।। कैसे कह दें उसे ख़ुदा हाफिज जब कि हम एक उसी से दूर रहे।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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#मार्केटिंगहथकंडेऔरहम# कल एक मित्र ने कहा कि मैं आज #दिलवाले फ़िल्म देखकर आया हूँ , अभी दो बार और देखूंगा।मैंने कहा अच्छी बात किन्तु इससे समाज को क्या मिलेगा ।वे हंस कर कहने लगे की इससे कट्टरपंथी ताकतें कमजोर होंगी।मुझे लगा की कहीं न कहीं हम सब भ्रमित हैं या हो रहे हैं। विवाद अब विवाद कम किसी स्ट्रेटजी का हिस्सा अधिक लगने लगे हैं।नेता अभिनेता व्यापारी सब के सब अपनी मार्केट तैयार करने में इस रणनीति का सहारा लेने लगे हैं।विरोध होने से प्रचार होता है।टीआरपी बढ़ती है।समर्थन और विरोध के पैसे लिए दिए जाते हैं।हर धर्म के कट्टरपंथियों ने दुकानें सजा रखी हैं।वे किसी भी नीचता तक जा सकते हैं,भले ही समाज और मानवता को कितना ही नुकसान पहुँचता हो।कहीं न कहीं यह कुशल मार्केटिंग का मकड़जाल ही है।इसमें हम भावुक भारतीय लोग कुछ ज्यादा ही उलझ जाते हैं।और देश के दुश्मन भी इसका लाभ उठाने का मौका नहीं चूकते।और इससे भी ज्यादा पीड़ा तब पहुंचती है जब #शाहरुख़खान जैसे कलाकार भी इस घृणित कार्य में सम्मिलित हो जाते हैं।मैं इस घृणित बाजारवाद की कड़ी निंदा करता हूँ।
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सभी कहते हैं मैं पहुंचा हुआ हूँ। मुझे लगता है मैं भटका हुआ हूँ।। बता दो शाम तक मैं लौट आऊँ तुम्हे लगता है गर भुला हुआ हूँ।। सितारों किस तरह दे दूँ विदाई तुम्हारे साथ ही जागा हुआ हूँ।। मुहब्बत की गली से दूर रक्खो बड़ी मुश्किल से मैं अच्छा हुआ हूँ।। क़यामत तक मैं जिसका मुंतज़िर हूँ उसे लगता है मैं सोया हुआ हूँ।।
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ये ग़ज़ल कितनी पुरानी है । हाँ मगर अब भी सुहानी है।। हम इसे कैसे सही ,माने इसमें राजा है न रानी है।। मैं ज़रा आश्वस्त हो जाऊँ आपको कब तक सुनानी है।। इश्क़ में जां तक लुटा देना मर्ज़ अपना ख़ानदानी है।। ये मेरी तुरबत नहीं यारों ज़िन्दगी की राजधानी है।। दोस्ती से आजिज़ी क्यों हो ज़िन्दगी भर ही निभानी है।। आज सागर हाथ आया है आज मौसम शादमानी है।।
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चम्पई हो कि सुरमई मौसम। बिन तुम्हारे है निर्दयी मौसम।। शाम शरमा के ओढ़ ले आँचल इस अदा से वो कह गयी मौसम।। बन सँवर के वो जब भी आते हैं हो ही जाता है जादुई मौसम।। रात रोती रही तुम्हारे बिन सुब्ह पसरा था आँसुई मौसम।। जाते जाते ठहर गया मौसम उसकी बातें बना गयी मौसम।। तुम भी नाज़ुक मिज़ाज़ हो लेकिन कुछ अधिक है छुई मुई मौसम।। उनकी तासीर हम कहें कैसे सर्दियों में रुई रुई मौसम।।
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ऐसा क्या दिखता है मुझ में। कोई लाल लगा है मुझमें।। आधी सदी बिता ली मैंने क्या कुछ अभी बचा है मुझमें।। पहले से कुछ बदल गया हूँ ऐसा कौन हटा है मुझमें ।। कोई है जो शरमाता है ऐसा कौन छुपा है मुझमें।। मुझ जैसे हारे की चाहत ऐसा क्या देखा है मुझमें।। हालत मेरी फ़क़ीरों जैसी फिर वो क्या पाता है मुझमें।। #सुरेशसाहनी ,कानपुर
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इस मुल्क की तकदीर है लाइन में लगे रहना। खुदशाह की तक़रीर है लाइन में लगे रहना।। ये राम की चाहत है अल्लाह की मर्जी भी इक नारा ए तकबीर है लाइन में लगे रहना।। राशन हो कि पानी और बिजली का किराया हो किस किस्म की जागीर है लाइन में लगे रहना।। खुद जिसने यहां अपने वालिद कई बदले हैं वो सोचे है तौकीर है लाइन में लगे रहना।। ये नाग नहीं है प्रभु मजलूम हैं लाइन में इनसेट की ये तस्वीर है लाइन में लगे रहना।। सुरेश साहनी
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अनहद नाद सुना दे कोई। मन के तार मिला दे कोई।। खोया खोया रहता है मन सोया सोया रहता है तन तन से तान मिला दे कोई।। कितने मेरे कितने अपने सबके अपने अपने सपने जागी आँख दिखा दे कोई।। जनम जनम की मैली चादर तन गीली माटी का अागर आकर दाग मिटा दे कोई।। साजन का उस पार बसेरा जग नदिया गुरु ज्ञान का फेरा नदिया पार करा दे कोई।।
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चलो कहानी कह कर देखें। कुछ बदनामी सह कर देखें।। जीना क्या दुनिया से छुपकर आज सामने रहकर देखें।। दरिया बनकर क्यों सिमटे हम दूर कहीं तक बह कर देखें।। कितने सही गलत हैं कितने खुद से आज जिरह कर देखें।। खूब लड़े हैं हालातों से यूँ ही चलो सुलह कर देखें।। नफरत ही करते आये हैं नही किया जो वह कर देखें।। तंगदिली ने तोड़े नाते दिल मे तनिक जगह कर देखें।।
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मैं ममता के इर्द गिर्द हूँ मां दुनिया के इर्द गिर्द है। या माँ मेरे इर्द गिर्द है दुनिया माँ के इर्द गिर्द है।। मेरे होने के कुछ पहले मेरी माँ के गाल सुर्ख़ थे अब गोया ममता के चलते मेरी माँ का जिस्म ज़र्द है।। यूँ भी मर्दो की दुनिया मे सिर्फ़ नाम के मर्द बचे हैं ऐसे में इस माँ को देखो सच पूछो तो यही मर्द है।।
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कौन सी तस्वीर देखी आपने। क्या हमारी पीर देखी आपने।। हर तरफ खुशहालियाँ रंगीनियां क्या कोई जागीर देखी आपने।। नित्य लूटी जा रही है अस्मिता सिर्फ बढ़ती चीर देखी आपने।। भूख सुरसा सी खड़ी है हर तरफ फिर कहाँ से खीर देखी आपने।। अपनी आदत है गुलामी सोचिए क्या कहीं जंज़ीर देखी आपने।। मुल्क़ की किस्मत में अच्छे दिन भी हैं कौन सी तक़दीर देखी आपने।। आप आखिर किस लिए बेचैन हैं क्या नई तहरीर देखी आपने।। सुरेश साहनी, कानपुर
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एक कली मुस्काई हो तो। भँवरे की बन आयी हो तो।। फूल खिले होंगे हर सूरत वो उपवन में आई हो तो।। यूँ तो इक डाली लचकी है ये उसकी अँगड़ाई हो तो।। क्या मैं ही इक बेइमां हूँ मौसम भी हरजाई हो तो।। गुल बुलबुल से मिल ले उस पर कोयल की शहनाई हो तो।। दिल जिस से मिल जाये बेहतर उस से ही कुड़माई हो तो।। सुरेश साहनी, कानपुर
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जब भी दिल के करीब आना हो। ऐसे आना कि फिर न जाना हो।। इश्क़ करना तो जान दे देना जान लेना अगर पता ना हो।। इश्क़ की ठोकरों में रहता है तख़्त हो ताज हो खज़ाना हो।। मुझ को ऐसी ग़ज़ल बना लो तुम उम्र भर जिसको गुनगुनाना हो।। प्यार करना तो याद भी रखना दूर रहना अगर भुलाना हो।। इम्तहानों से हम नहीं डरते आज़मा लो जो आजमाना हो।। इश्क़ ऐलान करके ही करना या न करना अगर छुपाना हो।। सुरेश साहनी, कानपुर
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इन गहरी चालों में फंसकर सत्ता के जालों में फंसकर अपना दुःख पीछे करती है जनता ऐसे ही मरती है।। तुम बसते हो इसका कर दो तुम हँसते हो इसका कर दो तब जनता खुद पर हंसती है जनता ऐसे ही मरती है ।। अब नोट नए ही आएंगे कुछ नोट नहीं चल पाएंगे फाके में फिर भी मस्ती है जनता ऐसे ही मरती है।। जाएगा उनका जाएगा आएगा अपना आएगा ये सपने देखा करती है जनता ऐसे ही मरती है।। कोई राजा बन जाता है जनता को क्या दे जाता है जनता जनता ही रहती है जनता ऐसे ही मरती है।।
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ऊँचा उड़ना सीखो बच्चा। आगे बढ़ना सीखो बच्चा।। सच्चाई का दामन छोड़ो झूठ पकड़ना सीखो बच्चा।। बगुले जैसा ध्यान लगा कर अवसर तड़ना सीखो बच्चा।। हक़ की ख़ातिर चुप क्या रहना थोड़ा लड़ना सीखो बच्चा।। स्वार्थ सिद्धि हित सही समय पर हठ पर अड़ना सीखो बच्चा।। कभी मान मनुहार मनौवल कभी झगड़ना सीखो भैया।। राजनीति में थूक चाटना नाक रगड़ना सीखो बच्चा।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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यां मुहब्बत के अलावा क्या है। और फिर इसमें दिखावा क्या है।। तुम नफे में हो मुझे है मालूम मेरे घाटे का मदावा क्या है ।। मैंने तस्लीम किया है देखें मेरे महबूब का दावा क्या है।। मेरा दिल लेके मुकर बैठे हो अब न कहना कि छलावा क्या है।। हमने माना कि उन्हें इश्क़ नहीं फिर ये नैनों का बुलावा क्या है।। तुमने बोला था तुम्हें याद नहीं तुम कहो और भुलावा क्या है।। सुरेश साहनी अदीब, कानपुर
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इनकी उनकी रामकहानी छोड़ो भी। क्या दोहराना बात पुरानी छोड़ो भी।। अक्सर ऐसी बातें होती रहती हैं इनकी ख़ातिर ज़ंग जुबानी छोड़ो भी।। शक-सुब्हा नाजुक रिश्तों के दुश्मन हैं यह नासमझी ये नादानी छोड़ो भी।। आओ मिलकर आसमान में उड़ते हैं अब धरती की चूनरधानी छोड़ो भी।। चटख चांदनी सिर्फ़ चार दिन रहनी है मस्त रहो यारों गमख़्वानी छोड़ो भी।। मर्जी मंज़िल मक़सद राहें सब अपनी सहना ग़ैरों की मनमानी छोड़ो भी।। दो दिन रहलो फिर अपने घर लौट चलो मामा मौसी नाना नानी छोड़ो भी।। सुरेश साहनी, कानपुर
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दिल हमें मानने नहीं देता। वो हमें रुठने नहीं देता।। उसके हाथों में हाथ है मेरा साथ ये छूटने नहीं देता।। चाह कर टूटने नही देता टूट कर चाहने नही देता।। कोई जादू है उसकी आँखों में होश में लौटने नही देता।। ख़्वाब जैसा वो खूबसूरत है ख़्वाब ये जागने नही देता।। इश्क़ है या गुनाह है कोई वो मुझे पूछने नही देता।।
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दीदा-ए-तर में ग़ज़ल रखते हैं। हम तो तेवर में ग़ज़ल रखते हैं।। नींद से हम नहीं दबने वाले साथ बिस्तर में ग़ज़ल रखते हैं।। हम अंधेरों के मुक़ाबिल होकर दैर-ओ-दर में ग़ज़ल रखते हैं।। हम सियासी तो नहीं हैं लेकिन वज़्मे-लीडर में ग़ज़ल रखते हैं।। आपके सर में भरी है उलझन और हम सर में ग़ज़ल रखते हैं।। सुरेश साहनी अदीब, कानपुर
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मन कुछ हारा हारा सा है। बेघर सा बंजारा सा है।। कुछ हलचल है उस ओर हुई टूटा कोई तारा सा है।। जो आज गया है छोड़ मुझे कोई अपना प्यारा सा है।। इतना तो ख़ास नहीं है वो फिर भी कितना सारा सा है।। मन चंचल है सब कहते हैं क्या दिल भी आवारा सा है।। इतना मीठापन है उसमें फिर रिश्ता क्यों खारा सा है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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वो जो टीवी पर दिखता है। क्या वो अपना ही नेता है।। पीता तो होगा वाइज भी तकरीरों में गजब नशा है।। सरमायेदारों का भोंपू बातें जनता की करता है।। अच्छे दिन की बातें कहकर वो सपने बेचा करता है।। ठोकर ही जिनका नसीब है ये भोली भाली जनता है।। वो जो उनके संग रहता है क्या वो अपना भी नेता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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तुम्हारा हल हमारी मुश्किलें हैं। सताने के लिए हम ही मिले हैं।। अकेलापन का मतलब रास्ते हैं हमारा साथ मतलब मंजिलें हैं।। न ठुकराओ यही खुशियों के पल हैं नहीं तो उम्र भर शिकवे-गिले हैं।। बहारें भी तुम्हारी हमकदम हैं तुम्हें ही देखकर गुलशन खिले हैं।। हमें क्या राह दिखलाओगे वाइज़ हमारी राह चलते काफिले हैं।। अभी हम क्या बता दें लक्ष्य अपने अभी हम दो कदम ही तो चले हैं।। हमारी दास्ताँ में गैर क्यों हो तुम्हारे साथ अपने सिलसिले हैं।। अयाँ न हो मुहब्बत इसकी खातिर हमारे होठ खुद हमने सिले हैं।। मुहब्बत की फतह मुमकिन है लेकिन बहुत मजबूत दुनियावी किले हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
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हर इक को है एक शिकायत सबकी अलग अलग वजहें हैं शिद्दत भी कम या ज्यादा हैं सारे के सारे कहते हैं उस थाली में भात अधिक है कोई ज्यादा परस रहा है कोई ज्यादा मांग रहा है कुछ कहते हैं कम देता है कुछ को दिक्कत अधिक दे दिया कोई कहता नमक अधिक है कोई कहता पानी कम है कोई सादा मांग रहा है कुछ देशी घी पर अटके हैं कुछ ना जाने क्यों रूठे हैं उन्हें शिकायत है तो इतनी उसने थाली में क्यों छोड़ा कुछ कहते है वो दरिद्र है पूरी थाली साफ कर गया हम सब मिल कर इक समाज हैं हम सब मे ऐसे अवगुण हैं एक दूसरे को लक्षित कर हम संधान किया करते हैं एक दूसरे को लांछित कर निज गुणगान किया करते हैं देखें तो यह सहज प्रश्न है फिर भी अनसुलझे रहते हैं आपस मे ही छिद्रों के अन्वेषण में उलझे रहते हैं इस अनसुलझे से सवाल का कोई हल हो तो समझाना वरना हमें शिकायत होगी......
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तुम कौन! जन्म ले धरती पर यूँ पड़े धूल धुसरित होकर क्या तुम हो इस युग की पुकार या हो अव्यवस्था के शिकार या मूक बधिर है यह समाज क्या ऐसा ही था कंस राज क्यों कर इतने निष्ठुर युग में किलकारी भरने आते हो वह युग जिसमें प्रत्येक श्रवण चीखें सुनने का आदी है वह युग जिसमें जीना मुश्किल बस मरने की आज़ादी है..... सुरेश साहनी, कानपुर
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चला था जो आफताब लेकर। वो रुक गया क्यों ख़िताब लेकर।। उठाये सबने सवाल कितने क्यों चुप रहा वो जवाब लेकर।। जो हाथ शोलों से खेलते थे वो जल उठे इक गुलाब लेकर।। बचाएगा कैसे अपनी नफ़रत मोहब्बतें बेहिसाब लेकर।। ख़राब मत कर तू खाना-ए-दिल ख़ुदा का ख़ाना ख़राब लेकर।। मिटा दे दैरो हरम के झगड़े तो बैठ वाइज शराब लेकर।। तमाम चेहरे फिरें हैं अब भी नक़ाब पर दस नक़ाब लेकर।। Suresh sahani
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मुझसे अपनेपन की बातें कौन करे। मेरे खालीपन की बातें कौन करे।। सुन कर औरों से कह कर इठलायेगा उससे अपने मन की बातें कौन करे।। एक वही मन वृन्दावन की रौनक था अब मिश्री माखन की बातें कौन करे।। जिन अपनों ने यादों में उलझाया है उन से ही उलझन की बातें कौन करें।। तब दीवाने जान लुटाया करते थे अब दीवानेपन की बातें कौन करें।। उनको दर्द दिखाने का है मतलब क्या पत्थर से दर्पन की बातें कौन करे।। धीरे-धीरे सारे साथी चल निकले अब मेरे बचपन की बातें कौन करे।। सुरेश साहनी, कानपुर
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उनकी आंखों में ख़ुमारी भी रहे। और अपना ख़्वाब तारी भी रहे।। यूँ मिलो जैसे कि बिछुड़े कब के हो और ये एहसास जारी भी रहे।। आप का भी मान रह जाये सनम और कुछ लज्जत हमारी भी रहे।। दिल की दौलत से भले धनवान थे इश्क़ में उनके भिखारी भी रहे।। कुछ हमारा नाम भी हो इश्क़ में और कुछ शोहरत तुम्हारी भी रहे।। सुरेश साहनी कानपुर
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कहीं कोई अपनी डगर चल रहा है। कहीं कोई उस राह पर चल रहा हैं।। हुआ चाहता है कोई घर से बाहर कोई कह रहा है कि घर चल रहा है।। सफ़र आपका भी वहीं ख़त्म होगा ये सारा ज़माना जिधर चल रहा है।। ये उनका भरम है कि ठहरा है पैकर नफ़्स चल रही है बशर चल रहा है।। ये दोज़ख ये जन्नत ये मज़हब की बातें फ़क़त जाहिलों पे हुनर चल रहा है।। अभी मयकदे में हुआ है सवेरा अभी कारोबारे-शहर चल रहा है ।। ज़मीं आसमां चाँद तारे ये सूरज पसारा ये शामोसहर चल रहा है।। न जाने ये कब तक भटकता रहेगा के आदम सफ़र दर सफ़र चल रहा है।।SS
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चाँद फिरे है मारा मारा। जैसे हो कोई बनजारा।। किसने उसके ग़म को समझा बस कह देते हैं आवारा।। तन्हा तन्हा जलते रहना किस्मत का है दूर सितारा।। युग युग से देता आया है दिल वालों को चाँद सहारा।। चाँद दिखे तो दिख नाता है ग़म का घटता बढ़ता पारा।। दिल से दिल तक संदेशों का अक्सर चाँद रहा हरकारा।। आशिक से लेकर मामा तक उसने हर रिश्ता स्वीकारा।।
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अबके सूखी ईद रहेगी। फिर भी कुछ उम्मीद रहेगी।। बिस्तर होगा यादें होंगी गायब लेकिन नींद रहेगी।। धुन्ध, कुहासे,बदरी, चंदा जाने कैसी दीद रहेगी ।। अब नफ़रत इतनी हावी है प्रीत की रीत पलीद रहेगी।। बेटा अब उस देश न जाना होंगे तो उम्मीद रहेगी ।। कंस दुःशासन ख़ाक मिटेंगे फितरत अगर यज़ीद रहेगी।। राशन पर साँसें देने की सरकारी ताक़ीद रहेगी।।
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मुझे कुछ और जी लेने तो देते। निगाहें भर के पी लेने तो देते।। कभी कुछ भी नहीं उनसे मिला है इज़ाज़त ही सही लेने तो देते।। मेरी मैयत में कितने लोग आये जरा सी हाज़िरी लेने तो देते।। वो मेरी जान लेना चाहता था जरा सी चीज थी लेने तो देते।। तुम्हारे दर्द लेकर और जीता मुझे इतनी ख़ुशी लेने तो देते।। तेरे कदमों में जन्नत थी हमारी तुम उसकी खाक ही लेने तो देते।। सुरेशसाहनी
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लौटकर आता हूँ घर हारे जुवारी की तरह। पास जब किसी के जाता हूँ भिखारी की तरह।। मैं सियासत के किसी भी कोण से लायक नहीं इस्तेमाल होता हूँ मैं हरदम अनारी की तरह।। मैं कबूतर हूँ कोई दुनिया के इस बाजार में लोग दिखते देखते हैं ज्यूँ शिकारी की तरह।। चलती फिरती पुतलियाँ हैं हम उसी के हाथ की जो नचाता है सदा सबको मदारी की तरह।।
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मुझे मंदिर मुझे मस्जिद मुझे गिरजा न जाने दो। जहाँ इंसान बसते हों ,वहीँ पर घर बनाने दो।। समझते हों जहाँ पर लोग केवल प्रेम की भाषा वहीँ पर मौन रहकर गुनगुनाने मुस्कुराने दो।। न उसको रोकना बेहतर न उसको टोकना अच्छा अगर आता है आने दो नहीं आता है जाने दो।। हमारी उम्र आधी कट चुकी है तुमको मालूम है न सोचो अब तो बंधन वर्जनाएं टूट जाने दो।। मुझे झूठी तसल्ली दी सभी ने ये ही कह कह कर तुम्हारा है तो आएगा वो जाता है तो जाने दो।।
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गिरे हैं टूट कर बिखरे नहीं हैं। कहीं से भी गए गुज़रे नहीं हैं।। ये कब बोला है हम पे तरस खाओ हमारे हाथ भी पसरे नहीं हैं।। हमारे आंसुओं से जल उठोगे ये अंगारे हैं ये कतरे नहीं हैं।। जहां जाएं वहीं साये मिलेंगे मुहब्बत के यही हुज़रे नहीं हैं।। नहीं तहज़ीब वाले हर्फ़े इनमें ये अपने पुश्त के सिज़रे नहीं हैं।। तरबियत की कमी है आज वरना विरासत से हमें खतरे नहीं हैं।। कि जाएंगे तो खोलेंगे हक़ीकत अभी जन्नत में हम ठहरे नहीं हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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आलू प्याज कहाँ महँगे हैं। किसने बोला हम गूँगे हैं।। महँगाई है नियति यहाँ की सियाराम हमरे संगे हैं।। खड़े रहे तो युवा तुर्क थे फिसल गए तो हर गंगे हैं।। लाठीतन्त्र उन्हें भाता है सम्विधान रखते ठेंगे हैं।। एक दृष्टि रखते हैं सब पर वे चिन्तन से ही भेंगे हैं।। उनका नँगापन मत पूछो हम गरीब बस अधनंगे हैं।। औरों के क्या दोष बताएं हम चंगे तो सब चंगे हैं।। सुरेश साहनी कानपुर
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का बतियायीं का बाचल बा अब ते कईसो बीत रहल बा बाग बगइचा आ बँसवारी उहो खाली नाम बचल बा हेल के जाईल बन्द भईल अब नारा उप्पर पूल बनल बा कटरी में अब खेती होता पोखरा पूरा पाट गईल बा ईया बाबा अब न भेटईहें लईकन से का भेंटे चलबा अब केके के चीन्हे जाता के उपराता के बूड़ल बा बड़को बाबू अब का चिन्हीहें उनहुँ के चश्मा टूुटल बा नवकन से कुछ मतलब नईखे का बाचल का छूट रहल बा बाबू तुंहयीं आईल करिहS तुहरे से कुछ आस बन्हल बा हमहुँ केतना दिन अब जीयब हमरो बेला आय गईल बा
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तुम्हारे साथ के मंज़र सुहाने। लगे हैं आज फिर से याद आने।। वो फिल्मी गीत आशा और रफ़ी के लगे थे साथ तुम जब गुनगुनाने।। तुम्हारे साथ छुप कर चौक जाना वही गुप्ता की कड़वी चाट खाने।। तुम्हारे फेर में वो लेट होकर बनाना क्लास में झूठे बहाने ।। न जाने किसलिये चुपचाप सुनना तुम्हारे वास्ते अपनों के ताने ।। मिले तुम अज़नबी जैसे, मिले तो तुम्हें हम किसलिये अपना न माने।। ख़ुदारा लौट आते काश फिर से लड़कपन और कॉलेज के ज़माने।। सुरेश साहनी,कानपुर
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फिर फिर गदहपचीसी लिखना। या ए सी को बीसी लिखना।। हत्यारों की मूर्ति लगाकर झूठी मातमपुरसी लिखना।। लोकतंत्र और संविधान की खुलकर ऐसी तैसी लिखना ।। रचनाओं को चुरा चुरा कर सिंहासन बत्तीसी लिखना।। इधर उधर ईमान डुलाना खुद को बड़ा हदीसी लिखना माल विलायत से मंगवा कर उस पर मेड इन देशी लिखना।। एफडीआई सौ प्रतिशत को है मूमेंट स्वदेशी लिखना।। ऐसे लिखने को कहते हैं हम कनपुरिया बीसी लिखना।। सुरेश साहनी,कानपुर
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तुम्हारा प्यार मैं पहला रहा हूँ। कि खुद को इस तरह बहला रहा हूँ।। सुनहरी धूप की चादर लपेटे सुहाने सर्द दिन को गोद लेकर तुम्हारी याद को सहला रहा हूँ मैं खुद को इस तरह बहला रहा हूँ।। तुम्हारी याद कितनी गुनगुनी है तुम्हारे रेशमी बालों के जैसी ख्यालों में किसे फुसला रहा हूँ कि खुद को इस तरह बहला रहा हूँ।। हमारी ज़ीस्त करवट ले रही है पता है शाम ढलते चल पड़ेगी अभी इस बात को झुठला रहा हूँ कि खुद को इस तरह बहला रहा हूँ।। सुरेश साहनी, कानपुर
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कइसे कटी राजा रउरे बिना ई जवनिया।। देहीं के बत्था त नउनिये छोड़ाई। हियरा के बत्था हम केकरा बतायीं ननदी से कइसे कहीं रउवा के बतिया माई के बताई त हो जाई न संसतिया निंदियो भईल बाटे आजु बैरनियाँ। कइसे कटी राजा रउरे बिना ई जवनिया।। पोरे पोरे राजा जी उठेले लहरिया बिछीया के डंक जैसे चढ़े विषहरिया काम नाही करे कवनो बैद के दवाई रतिया में राजा चाहे केतनो नहाइ तनिको सोहाला नाही देवरा के बनिया। कइसे कटी राजा रउरे बिना ई जवनिया।। सुरेश साहनी
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किसको समझाना चाहे है। हर कोई पाना चाहे हैं ।। बिन अभ्यास समर्पण श्रम सब चोटी पर जाना चाहे है।। फितरत मेरी फकीरों जैसी आना दो आना चाहे है।। सब जाने हैं अंत यही है कौन यहाँ आना चाहे है।। भाग रहा पूरब से पश्चिम हर पंछी दाना चाहे है।। आज बनी अज़गर यह दुनिया कर्म नहीं खाना चाहे है।। मानवता है धर्म साहनी किससे मनवाना चाहे है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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जाने वो प्यार बांटने वाले कहाँ गये। थे अपने आप में जो निराले कहाँ गये।। जब बिक रहे हैं हर तरफ अखबार झूठ के हक़ बात कहने वाले रिसाले कहाँ गये।। कहने को रोशनी के हैं सामान हर तरफ ना जाने इस तरफ के उजाले कहाँ गये।। लुटने लगी है द्रोपदी फिर लोकतंत्र की सुन ले पुकार बाँसुरी वाले कहाँ गये।। दहकां तो देते आये हैं इस मुल्क को अनाज फिर उनकी थालियों से निवाले कहाँ गये।। चैनल चुनाव के समय करवा रहे थे युद्ध अब वो बिगुल वो दमदमी नाले कहाँ गये।। वो अहले हुस्न और मेरे साहनी का दिल कैसे पता चले कि उठा ले कहाँ गये।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मुझे बिखरे हुए अरसा हुआ है। मगर लगता है कल का वाकया है।। मुझे हँसते हुए देखा है तुमने तुम्हे शायद कोई धोखा हुआ है।। मुझे महबूब तुमने ही कहा था बेवफा नाम भी तुमने दिया है।। वो पत्थर है यही काबिलियत है वो बेदिल है तभी तो देवता है।। मेरा हमदर्द भी उनकी नजर में बेगैरत है , काफिर है , बुरा है।। सूरेश साहनी
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तुमको लगा शिकारी हारा। जग को लगा जुआरी हारा। काश तुम्हारे मुख से सुनता मेरा प्रेम पुजारी हारा ।। क्षण भंगुर जीवन मे मैंने युग युग प्रेम प्रतीक्षा की है, तुमने अपराधी ठहराकर मेरी प्रेम परीक्षा ली है, मर्यादाओं की रक्षा में तेरा प्रेम भिखारी हारा।। किसी कर्ण की व्यथा भला कब कोई द्रौपदी सुन पाती है, मन में यदि कुछ कलुष भरें हैं सच्ची प्रीति कहाँ भाती है, खाली हाथ द्वार से लौटा राधा तेरा मुरारी हारा।। मुझको ये मालूम नहीं था किस्सों में उल्फ़त होती है दिल की दौलत से भी बढ़कर दुनियावी दौलत होती है दुनियादारी के मसलों में मैं था निपट अनाड़ी हारा।। सुरेश साहनी,कानपुर
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टूटा नहीं हूँ दिल से शिकस्ता नहीं हूं मैं।। हाज़िर हूँ अपने दौर से गुज़रा नहीं हूं मैं।। कुछ उलझनें हैं फ़िक्र हैं दुनिया के रंज हैं इक तुम चले गए तो क्या तन्हा नहीं हूं मैं।। मेरे मिज़ाज़ में कभी तल्ख़ी नहीं रही पर ये न सोच लेना कि रूठा नहीं हूं मैं।। साक़ी तेरी नज़र में अगर फेर है तो फिर आशिक़ हूँ सिर्फ़ जाम का प्यासा नहीं हूं मैं।। पत्थर है तू तो क्या करूँ अपने वजूद का मत सोच टूट जाऊंगा शीशा नहीं हूं मैं।। माहिर हूँ अपने फ़न पे मेरा अख्तियार है ये और बात है अभी चमका नहीं हूं मैं।। जैसा कि दिख रहा हूँ मैं वैसा तो हूँ मगर जैसा तेरा ख़याल है वैसा नहीं हूं मैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
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तुमने ख़त में कितनी बातें लिख दी हैं । आँसू लिक्खे हैं बरसातें लिख दी हैं ।। और विरह की सुबह नहीं होनी है क्या तुमने गम की काली रातें लिख दी हैं ।। तुमको वैसे भी एक अवसर देना था शह तो देते सीधे मातें लिख दी हैं ।। हम अब भी हैं इश्क़ के पहले दर्जे में तुमने फिर भी चार जमातें लिख दी हैं।। वो ज़ख्मों पर मरहम बनने आये थे जाने क्यों घातों पर घातें लिख दी हैं।। सुरेश साहनी ,कानपुर
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फिर वही बातें पुरानी । फिर वही भूली कहानी।। क्यों नहीं हम भूल जाते वो तेरी यादें सुहानी।। जिंदगी कुछ ऐसे बीती जैसे गुजरे राजधानी।। सच रहे कितने जमीनी ख़्वाब कितने आसमानी।। तुम न थे तो दूसरे थे जिंदगी तो थी बितानी।। उम्र संघर्षों में गुजरी क्या लड़कपन क्या जवानी।। क्या बताएं हम गलत थे या जवानी थी दिवानी।। सुरेश साहनी, कानपुर
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सफ़र से हार कर लौटा नहीं हूँ। थका तो हूँ मगर टूटा नही हूँ।। तुम्हारा हूँ तुम्हारा ही रहूँगा फ़क़त मज़बूर हूँ झूठा नहीं हूँ।। विरासत में दुआयें ही मिली है मैं आलमगीर का बेटा नहीं हूं।। सियासत मेरे बस की तो नहीं है ज़ुबाँ देकर कभी पलटा नहीं हूँ।। भले दौलत नहीं शोहरत नहीं है नसीबन दिल से मैं छोटा नहीं हूं ।। मुहब्बत की कसौटी पर उतारो खरा निकलूँगा में खोटा नहीं हूँ।। सुरेशसाहनी
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किस पत्थरदिल ने मेरी तक़दीर लिखी। दिल मुझको उसके हिस्से में हीर लिखी।। खुशियां सारी दे डाली अगियारों को मेरे हिस्से में ग़म की जागीर लिखी।। देना था तो देता सिफत मसीहाई खाली पीली फितरत मेरी कबीर लिखी।। मैं आवारा बनजारा ही अच्छा था क्यों पैरों में रिश्तों की जंज़ीर लिखी।। कैसे सोता मस्ती की चादर ताने जब हो दिल मे दुनिया भर की पीर लिखी।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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जीना गुनाह है यहाँ मरना गुनाह है। सरकार से सवाल भी करना गुनाह है।। सरकार की अदा है बदल जाना बात से किसने कहा है उनका मुकरना गुनाह है।। सँवरे बगैर हुस्न कयामत है यार का उसकी नज़र में कत्ल न करना गुनाह है।। सिजदे में सिर है ज़ेहन है इबलीस की नज़र बेशक़ ख़ुदा के नाम पे डरना गुनाह है।। सिर लेके चल रहे हो मुहब्बत की राह पर यूँ इश्क़ की गली से गुजरना गुनाह है।। जब लोग जी रहे हैं उन्हें देख देख कर ये मत कहो कि उनका सँवरना गुनाह है।। दरअस्ल आशिक़ी का मज़ा डूबने में हैं फिर कारोबारे-ग़म से उबरना गुनाह है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मेरा दुश्मन तो आस्तीन में हैं। आपका घर कहाँ ज़मीन में है।। जबकि क़ातिल को जानते हैं सब महकमा अब भी छानबीन में है।। क़त्ल करके अज़ीज़ है ज़ालिम बात कोई तो उस हसीन में है।। डेमोक्रेसी है दे मोये कुरसी आज जनमत का दम मशीन में है।। उनके जलवे उन्हें मुबारक हों बन्दा तेरह में हैं न तीन में है।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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क्या कहें हम फिर मसूरी रास्ते में आ गयी। दिल की फिर दिल्ली से दूरी रास्ते में आ गयी।। हमने चाहा था मुक़म्मल प्यार से देखें तुम्हें वक़्ते-फुरक़त खानापूरी रास्ते मे आ गयी।। हाय रे ये उम्र भर की पेट की मज़बूरियां ज़िम्मेदारी फिर ज़रूरी रास्ते मे आ गयी।। उसका मेरा प्यार यूँ परवान चढ़ते रह गया कुछ अनायें कुछ गुरूरी रास्ते मे आ गयी।। हम अदब की मंजिलों पर जा रहे थे बेखबर आड़े अपनी बेशऊरी रास्ते मे आ गयी।। मेरा परमोशन अचानक होते होते रुक गया ये कि उनकी जी हुजूरी रास्ते मे आ गयी।। जान देने में हमें दिक्कत न कोई थी मगर वस्ल की हसरत अधूरी रास्ते मे आ गयी।। Suresh sahani, kanpur
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ये न पूछो किधर गया पानी। उसकी आँखों का मर गया पानी।। जेहन से ही उतर गई नदिया इस तरह कुछ उतर गया पानी।। प्यास से कोई मर गया सुनकर सबकी आंखों में भर गया पानी।। सिर्फ उतना उधर नदी घूमी बह के जितना जिधर गया पानी।। झील बनकर उदास रहता है उस नदी का ठहर गया पानी।। आख़िरी सांस ली नदी ने फिर अपनी हद से गुज़र गया पानी।। मोती मानुष के साथ चूना भी क्या बचेगा अगर गया पानी।। जाने कितने शहर गयी गंगा जाने कितने शहर गया पानी।। सुरेश साहनी, अदीब कानपुर
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फकीरों जैसी उसकी बानगी थी। मेरे राजा में इतनी सादगी थी।। न जाने कौन सा मजहब था उसका फितरत में तो उसके बंदगी थी।। सियासत तो अज़ल से ऐबगर है मगर उसके जेहन में ताजगी थी।। तेरे आने से कुछ बेहतर हुआ था वगरना हर तरफ चोरी ठगी था।। हुकूमत अब गरीबों की बनेगी तेरे आने से ये आशा जगी थी।। चलन जिसका नहीं था उस समय भी तेरी लौ देश सेवा में लगी थी।। Suresh Sahani
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कुछ इतने ज़ेर-ओ-बम हो गए हैं। बहुत कमज़ोर से हम हो गए हैं।। तुम्हारा ग़म है यह भी नीम सच है अगरचे चश्म कुछ नम हो गए हैं।। ये बासन्ती बयारों का असर है पुराने ज़ख्म मरहम हो गए हैं।। रियाज़ों में रवानी है मुसलसल मेरे नाले भी सरगम हो गए हैं।। मेरे आंसू तुम्हारे सर्द रुख से लरज कर आज शबनम हो गए हैं।। उधर आये हो तुम होकर रक़ीबां इधर हम और बेदम हो गए हैं।। तेरे बाज़ार में क्या कुछ नहीं है फ़क़त इंसान कुछ कम हो गए हैं।। -सुरेश साहनी
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#धूप हमें तुम यूँ लगती हो जैसे इक यादों की चादर या माँ की थपकी के जैसी हौले हौले सारा तन मन गर्माहट से पुलकित करती हर थकान को हर लेती हो और तुम्हारा होना जैसे किसी दोस्त के साथ बैठना या जैसे माँ के आँचल में बच्चे जैसा दुबके रहना या फिर बापू के कंधे पर चढ़कर ज्यों दुनिया पा लेना या फिर नर्म रजाई लेकर बिस्तर में ही आड़े तिरछे काफी की फरमाइश करना फिर काफी के साथ तुम्हारा थोड़ा सकुचाते शरमाते मेरे पहलू में आ जाना और बहुत धीरे से कहना छोड़ो! बच्चे देख रहे हैं, धूप सेकना ही लगता है धूप तुम्हारी कितनी परतें ओढ़ी और बिछाई मैंने पर तुम अनासक्त प्रेमी सा हाथ छुड़ाकर चल देती हो ऐसा करना ठीक नहीं है साथ मेरा देना जाड़े भर.....
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सब फरिश्ते सब मलायक हों ये मुमकिन है तो कह। उज़्र क्या तेरी नज़र में रात भी दिन है तो कह।। तब मुवक्किल कह रहा था गाय गाभिन थी तो थी आज मुंसिफ़ कह रहा है बैल गाभिन है तो कह।। हमने माना इश्क़ फ़ानी है कहाँ इन्कार है फिर भी दिल पर हाथ रख के हुस्न साकिन है तो कह।। तेरा दावा है कि दुनिया आज की ख़ुदगर्ज़ है मान लेंगे हम तुझे पर तू जो मोहसिन है तो कह।। मुझको तेरे झूठ पर भी है बला का ऐतबार पर मेरी उल्फ़त पे तुझको अब भी लेकिन है तो कह।। मैंने कब बोला तुझे क़ायम हूँ मैं ईमान पर उस बुते-काफ़िर पे मर के भी तू मोमिन है तो कह।। सुरेश साहनी, कानपुर साकिन/ स्थिर, वाशिंदा ज़ामिन / ताबीज़ , ज़मानत लेने वाला मोहसिन/ सहायक, परोपकारी बुते-क़ाफ़िर/ भटकाने वाला सौंदर्य मोमिन/ विश्वास करने वाला,मुसलमान
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उसे जो रोशनी से उज़्र होगा। तो सच की पैरवी से उज़्र होगा।। मौजें सर पटकती हैं मुसलसल हमारी तिश्नगी से उज़्र होगा।। हमारे घर मे चाँद उतरा हुआ है हमें क्यों चांदनी से उज़्र होगा।। वो कारोबारे-नफ़रत में लगा है उसे क्यों तीरगी से उज़्र होगा।। खुशी के अश्क़ हम पहचानते हैं भला क्यों शबनमी से उज़्र होगा।। छुपाते हैं ये अहले हुस्न वरना किसे दीदावरी से उज़्र होगा।। अज़ीयत होगी अहले हुस्न से भी उन्हें जो आशिक़ी से उज़्र होगा।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मौत हिन्दू मुसलमा नहीं देखती। मौत आदम ओ हव्वा नहीं देखती।। मौत आती है सबको बराबर सनम मौत अदना कि आला नहीं देखती।। आज उनकी हुई और तुम हँस दिए कल तुम्हारी हुई वे हँसेंगे सनम आज तुम हो फंसे मौत के जाल में कल इसी जाल में वे फँसेंगे सनम मौत इनका कि उनका नहीं देखती। मौत अपना पराया नहीं देखती।। एक से एक आला कलंदर हुए जाने कितने ही भैरव मछिन्दर हुए लाख कारूँ हुए हाथ खाली गए वे हलाकू हुए या सिकन्दर हुए जिन्दगी के बड़े थे मदारी ये सब मौत लेकिन तमाशा नहीं देखती।। कोई आलिम बड़ा है तो फ़ाज़िल कोई है कोई पीर-ओ- मुर्शिद तो कामिल कोई कोई घर तो कोई राह में मर गया कुछ सफ़र में मरे पा के मंज़िल कोई मौत हसरत या हासिल नहीं देखती मौत खोया कि पाया नहीं देखती।।
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सिर्फ हमारे लड़ने से क्या बदलेगा यही सोचकर हमने लड़ना छोड़ दिया चींटी दीवारों पर चढ़ती है गिरती है क्या गिरने से उसने चढ़ना छोड़ दिया दशरथ मांझी भी तो इक इंसान ही था जिसने पर्वत का भी सीना तोड़ दिया इसी धरा पर राँझा जैसा वीर हुआ जिसकी जिद ने दरिया का रुख मोड़ दिया हम भी सोचें क्या यह निर्णय उचित रहा हमने आखिर कैसे लड़ना छोड़ दिया दो रोटी और थोड़े से सुख की ख़ातिर बड़े युद्ध को कितना अधिक सिकोड़ दिया।।
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एक मुहब्बत से हटकर क्या लिखता मैं। फिर अपने हद से बाहर क्या लिखता मैं।। तुम थे ,गुलअफसां थे और बहारें थी इन से ज़्यादा भी सुन्दर क्या लिखता मैं।। ले देकर इक दिल था वो भी पास नही बेदिल रहकर दिल दिलवर क्या लिखता मैं।। ख़्वाबों और ख़्यालों में तुम आते हो होश में गायब है पैकर क्या लिखता मैं।। सुरेश साहनी,कानपुर
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हमसे उल्फ़त की कहानी पूछ मत। बात गैरों की जुबानी पूछ मत।। हम जहाँ पहुँचे वहीं पर रह गए हमसे दरिया की रवानी पूछ मत।। रेत पर बनना बिगड़ना आम है रेत पर उसकी निशानी पूछ मत।। वो मेरे पीछे चलेगी उम्र भर मौत की आदत पुरानी पूछ मत।। सिर्फ चेहरे की शिकन महसूस कर क्या हुआ आंखों का पानी पूछ मत।। चार दिन की ज़िंदगी मे थक गए और लम्बी ज़िन्दगानी पूछ मत।। दर्द दिल मे लेके हँसना क्या कहें खुद की खुद से बेईमानी पूछ मत।। सुरेश साहनी, कानपुर
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तुझको पाने की दुआ क्या करते। सिर्फ़ हम करके वफ़ा क्या करते।। हम खिजाओं से गिला क्या करते। हम बहारों का पता क्या करते।। ज़िन्दगी तुझको पता था सब कुछ मर न जाते तो भला क्या करते।। हुस्न को इश्क़ अता कर न सके बाखुदा और ख़ुदा क्या करते।। मुन्तज़िर ही रहे ताउम्र तेरे हम भला इसके सिवा क्या करते।। तेरे बीमार का मरना तय था तुम भी आते तो दवा क्या करते।। दिल मेरा टूट गया टूट गया प्यार पत्थर से हुआ क्या करते।। मेरे क़ातिल ने बड़ी हसरत से जान मांगी थी मना क्या करते।। सुरेश साहनी,कानपुर
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मेरे दुश्मन सभी ख़ुद्दार निकले । फरेबी तो पुराने यार निकले।। दवा लेते कहाँ से आशिक़ी की शहर में सब तेरे बीमार निकले।। ज़रूरत क्या है हम दुश्मन तलाशें अज़ल से आप ही गद्दार निकले ।। मेरी आँखों में ये महसूस कर लो ये मुश्किल है ज़ुबाँ से प्यार निकले।। कभी ऐसा न हो ये हक़बयानी मुहब्बत के लिए तलवार निकले।। क़लम कर देंगे वो सबकी जुबानें न भूले से कभी यलगार निकले।। हिकारत थी मुझे ग़ैरों से लेकिन मेरे क़ातिल मेरे सरकार निकले।। सुरेश साहनी,कानपुर
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मेरे गीतों में कौन रहा जिसने स्वप्नों में आ आकर मन के भावों को देकर स्वर गूंगे शब्दों को किया मुखर यह अलग बात मैं मौन रहा..... वह था यौवन का सन्धि-काल या उम्मीदों का मकड़जाल जितने सपने उतने बवाल मन यती व्रती का भौन रहा..... सब उसको पूछा करते हैं अगणित अनुमान लगाते हैं गीतों की तह तक जाते हैं अब किसे बता दें कौन रहा.... मेरे गीतों में कौन रहा...... सुरेश साहनी
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तुम्हे अंदाज़-ए-उल्फ़त नहीं है। ये कहने में कोई उज़रत नहीं है।। कभी तो हाले-दिल मेरा समझते तुम्हें क्या इतनी भी फुरसत नहीं है।। चलो तुम खुश रहो अपनी बला से हमें भी अब कोई दिक्कत नही है।। जहाँ एहसास है हाज़िर सुखन के अमीरी है वहां गुरबत नही है।। मुहब्बत और अपनापन भी है धन के दौलत ही कोई दौलत नही है।। Suresh Sahani
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मेरे गीतों में कौन रहा जिसने स्वप्नों में आ आकर मन के भावों को देकर स्वर गूंगे शब्दों को किया मुखर यह अलग बात मैं मौन रहा..... वह था यौवन का सन्धि-काल या उम्मीदों का मकड़जाल जितने सपने उतने बवाल मन यती व्रती का भौन रहा..... सब उसको पूछा करते हैं अगणित अनुमान लगाते हैं गीतों की तह तक जाते हैं अब किसे बता दें कौन रहा.... मेरे गीतों में कौन रहा...... सुरेश साहनी
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यार कुछ मस्तियों की बात करो। हमने माना कि रोज़गार नहीं नापने के लिए सड़क तो है क्रीज़ अपनी कड़क नहीं तो क्या अपनी हालत ज़रा कड़क तो है सर छुपाने को छत नहीं तो क्या चाँद पर बस्तियों की बात करो.... साहिलों पर बहुत चले लेकिन साहिलों पर गुहर नहीं मिलते डूब कर देखते हैं मुस्तकबिल यह किनारे अगर नहीं मिलते नाव पर ज़िन्दगी कटी होगी डूबती किश्तियों की बात करो..... इस जवानी को कुछ नहीं दिखता घरऔ,परिवार की दशा क्या है सब नशा करते हैं कोई न कोई धर्म इससे बड़ा नशा क्या है मन्दिरों-मस्ज़िदों की बात करो हुस्न की हस्तियों की बात करो..... Suresh Sahani , Kanpur
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तुम गए तो ये घर उदास हुआ। रोई तुलसी शज़र उदास हुआ।। कमरे कमरे में याद बन बिखरे दिल तुम्हें याद कर उदास हुआ।। रोया आँगन सहन में चुप सी है दिन कोई रात भर उदास हुआ।। तुम गए सिर्फ़ चार दिन के लिए और दिल उम्र भर उदास हुआ।। अपने बीमार का भरम रख ले और कह चारागर उदास हुआ।। तेरी रुसवाईयों का डर लेकर मेरे मन का शहर उदास हुआ।। जिस्मे-फ़ानी भी साथ है कब तक मैं यही सोचकर उदास हुआ।। सुरेश साहनी, कानपुर
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जब देखो तब दिल की बातें करते हो। कैसी बहकी बहकी बातें करते हो।। दौलत से तुम दिल पर शासन कर लोगे कितनी हल्की फुल्की बातें करते हो।। तुम भी धोखा देने वाले हो शायद तुम भी अक्सर मन की बातें करते हो।। डर लगता है इस सर्दी में भी तुमसे क्यों तुम दहकी दहकी बातें करते हो।। अच्छे दिन अब आएंगे नामुमकिन है नाहक़ अच्छे दिन की बातें करते हो।। सुरेश साहनी, कानपुर।
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हम विकासशील देश हैं।हमारे यहाँ इंटरनेट सुविधाएँ विकसित राष्ट्रों की तुलना में बहुत कम हैं।कितना भी बढ़िया सेट और महंगे से महंगा नेटपैक हो ,काम नहीं करता। क्योंकि गति पर हम भारतीयों का नियंत्रण हैं।हमारी रफ़्तार कम ही रहेगी।जग सुधर जाए हम नहीं सुधरेंगे ।हम सोचते थे कि इंटरनेट के सुचारू रूप से काम नहीं करने से केवल नुकसान ही होता है।लेकिन अब पता चला कि इसके लाभ भी हैं।इसका पता तब चला जब हमारी श्रीमती जी ने मुझे वीडियो काल करने का प्रयास किया।नेट नहीं होने से संपर्क नहीं हो पा रहा था । साधारण ऑडियो कॉल किया।मैं मित्रों के साथ आउटिंग पर था।और मैंने फोन पर बोल दिया ,मैं ऑफिस में हूँ।धन्यवाद इंटरनेट वालों का ।सोचिये कितने लोग बाहर वाले बॉस या घर वाले बॉस के कहर से बच जाते हैं।इस तरह कितनी नौकरियां और कितने परिवार सुरक्षित रह लेते हैं।इंटरनेट ठीक से काम करता तो क्या यह सम्भव हो पाता। फिर सरकारी उपक्रमों के कितने अधिकारी बेमौत मरने से बच जाते हैं।आखिर इतने कम रूपये में परिवार कहाँ चल पाता है।वो तो भला हो वोडाफोन आईडिया और अन्य प्राइवेट कंपनियों का जो अपने पे-रोल पर स...
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हम कहाँ इस कदर पराये थे। हम तो इक दूसरे के साये थे।। और शिकवे-गिले कहाँ करते आप ही ने तो ज़ुल्म ढाये थे।। हम गुनहगार है तो किसके हैं आपके नाज़ ही उठाये थे।। आपने आज भी कहाँ माना आप तब भी समझ न पाये थे।। मेरे रोने पे रोईं थी महफ़िल सिर्फ इक आप मुस्कुराये थे।। अब वो दिन लौट के न आएंगे आपने संग जो बिताये थे।। आप ही अब जबाब दे दीजै आप ही ने सवाल उठाये थे।। सुरेश साहनी, कानपुर
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धूप हमें तुम यूँ लगती हो जैसे इक यादों की चादर या माँ की थपकी के जैसी हौले हौले तन मन गर्माहट से पुलकित करती हर थकान को हर लेती हो और तुम्हारा होना जैसे किसी दोस्त के साथ बैठना या जैसे माँ के आँचल में बच्चे जैसा दुबके रहना या फिर बापू के कंधे पर चढ़कर सारी दुनिया सा पा लेना या फिर नर्म रजाई लेकर बिस्तर में ही आड़े तिरछे काफी की फरमाइश करना फिर काफी के साथ तुम्हारा थोड़ा सकुचाते शरमाते मेरे पहलू में आ जाना फिर धीरे से यह भी कहना छोड़ो! बच्चे देख रहे हैं, धूप सेकना ही लगता है धूप तुम्हारी कितनी परतें ओढ़ी और बिछाई मैंने पर तुम अनासक्त प्रेमी सा हाथ छुड़ाकर चल देती हो ऐसा करना ठीक नहीं है साथ मेरा देना जाड़े भर.....
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यार की मस्तनिगाही का भरम क्या रखता। सर्द से रिश्तों में जज़्बात गरम क्या रखता।। उससे नफ़रत से भरी बात नहीं की मैंने ऐसे हालात में रुख इससे नरम क्या रखता।। ज़हर देने की जगह उसको दवा दी मैंने उसके हाथों में भला इतना भी कम क्या रखता।। उसने पहले ही मुझे अपनी कसम दे दी थी उसके आगे मैं कोई और कसम क्या रखता।। बोझ दिल पर लिए फिरने की कोई बात नहीं पर दिले-मोम में पत्थर का सनम क्या रखता।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मैं तुम को लिखने की कोशिश करता हूँ तुम भी कुछ कहने की कोशिश किया करो मैं तुमको पढ़ने की कोशिश करता हूँ तुम किताब के पन्नों जैसा खुला करो.... कितनी बातें आज तलक अनसुलझी हैं तुम मेरी हर उलझन सुलझा सकती हो और अगर चाहो तो इस यायावर मन को तुम अपनी जुल्फों में उलझा सकती हो मुझे पता है केवल तुम दे सकती हो इस बैरागी भटकन को ठहराव नया इन शब्दों के ढेरों को दे सकती हो नीरसता से हटकर कोई भाव नया तुम गूंगी आवाज़ों को दे सकती हो सुन्दर सुर संगीत नया अंदाज़ नया पंख कटे भावों को भी दे सकती हो तुम हँस कर आकाश नया परवाज़ नया मैं तुमको फिर फिर पुकारना चाहूँगा तुम केवल सुनने की कोशिश किया करो प्रश्न नहीं पर इस मन की अकुलाहट को बस उत्तर देने की कोशिश किया करो......
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जब अंतस्थल के कोने में प्रेम अंकुर कोई फूट पड़े तब तुम्हें याद मैं आऊंगा। दिल की गहराई से आकर हसरत कोई अंगड़ाई ले तब तुम्हें याद मैं आऊंगा।। यदि मैंने कभी हृदयतल से चाहा तो तुमको चाहा था यदि तुमने कभी स्वप्न में भी मेरे बारे में सोचा था यदि क्षणिक स्नेह का छोह तुम्हें दो पल भी भावाकुल कर दे तब तुम्हें याद मैं आऊंगा।। मैं कितनी रातें जागा हूँ मैं कितनी नींदें सोया हूँ अगणित तारे गिन डाले हैं अगणित सपनों में खोया हूँ यदि मेरी असफलताओं के अहवाल तुम्हें व्याकुल कर दें तब याद तुम्हें मैं आऊंगा।। सुरेश साहनी, कानपुर
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कोई कह रहा मयकशी में मज़ा है। कोई कह रहा तिश्नगी में मज़ा है।। जो कहते थे लाएंगे हम ही उजाला वो कहते हैं अब तीरगी में मज़ा है।। अज़ब उसके बीमार हैं कह रहे हैं उन्हें उसकी चारागरी में मज़ा है।। ग़मे-इश्क़ की लज़्ज़तें हम से पूछो असल तो यही आशिक़ी में मज़ा है।। तुम्हें मौत से उज़्र है भी तो क्यों है बताओ कहाँ ज़िन्दगी में मज़ा है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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इश्क़ मुहब्बत की बीमारी ले लूँ क्या। दिल देकर के दर्द उधारी ले लूँ क्या।। बदनामी तो है इसमें पर नाम भी है आज शहर से रायशुमारी ले लूँ क्या।। उन की मस्त निग़ाहें तीर चलाती हैं मैं भी बरछी ढाल कटारी ले लूँ क्या।। डर लगता है जब वो माइल होता है तब कहता है जान तुम्हारी ले लूं क्या।। प्यार वफ़ा के चार कदम चल पाओगे वरना बोलो शान सवारी ले लूं क्या।। सुरेश साहनी कानपुर
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जाने क्या सोचकर नही लौटा । छोड़कर घर वो घर नही लौटा।। कुछ नए लोग आ गए लेकिन जाने वाला इधर नही लौटा।। और माँ बाप जी के क्या करते जब वही उम्रभर नही लौटा।। उस परिंदे में कोई बात तो है फिर से उस पेड़ पर नहीं लौटा।। हाल सुन कर मेरा वो रो देता पर वो लेने ख़बर नही लौटा।। कितना रोते हम और क्यों रोते जाने वाला अगर नही लौटा।। सच यही है कि कोई भी पत्ता टूटकर शाख पर नही लौटा।। सुरेश साहनी,कानपुर
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आपका दिल ही स्याह है साहब। फिर मेरा क्या गुनाह है साहब।। नज़्म होती तो दाद ले लेते ये मेरे दिल की आह है साहब।। शादमानी कहाँ से ले आयें अपनी दुनिया तबाह है साहब।। बेवफाई को भूल जाये हम बेतुकी सी सलाह है साहब।। और किस्सा तवील मत करिए ज़ीस्त अपनी कोताह है साहब।। अपनी मंज़िल ही मुझको याद नहीं राह तो फिर भी राह है साहब।। सुरेश साहनी, कानपुर
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तीरगी से गुज़र गया होगा। पर उजालों से डर गया होगा।। अजनबीयत से भर गया होगा। जब वो अपने शहर गया होगा।। सर हथेली में ले लिया अपना इश्क़ वालों के घर गया होगा।। हुस्न को इश्क़ से अज़ीयत है कोई गुमराह कर गया होगा।। यार को अपने सामने पाकर आईना भी सँवर गया होगा।। कैसे ढूंढूं वजूद को अपने राम जाने किधर गया होगा।। उसके चेहरे से आदमी गुम है तय है एहसास मर गया होगा।। मेरी ग़ज़लों से मिल के लगता है मुझमें ग़ालिब उतर गया होगा।। सुरेश साहनी, कानपुर
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ख्वाबों पे संजीदा मत हो टूट गये तो दिक्कत होगी। फिर ग़म से बाहर आने में तुमको बड़ी मशक्कत होगी।। यादों के अनगिनत झरोखे आठो पहर खुले रहते हैं। अच्छी और बुरी यादों के प्रतिफल सदा एक रहते हैं स्मृति अमरबेल होती हैं भूलोगे फिर स्मृत होगी।। ख्वाबों...... मन के अश्व मचलने मत दो प्रेम पथिक बनने की ख़ातिर व्यसन आदि की सहज अधिकता पतन मार्ग पकड़ेगी आखिर अभी बहुत मनभावन है पर आगे यही मुसीबत होगी।।ख्वाबों.... सुरेश साहनी ,कानपुर
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क्या तुझे पता है तेरी माँ के प्राण तुम्हीं में बसते हैं एक पिता के स्वप्न और अरमान तुम्ही में बसते हैं अगर पता है तो सम्हाल ले जो घर की मर्यादा है क्यों उनके यक़ीन को तू खो देने पर आमादा है क्या तेरी माता से बढ़कर प्यार दूसरा दे देगा और पिता से अधिक तुझे उपहार दूसरा दे देगा क्या घर वालों से अधिक कोई अपनापन दूजा दे देगा यह लाड़-दुलार-सनेह और तन मन धन दूजा दे देगा यह प्रेम नहीं जो घर से छिप कर वन उपवन में रोती है इस काम वासना के सागर में निज अस्तित्व डुबोती है रोना है माँ के सम्मुख रो जो साथ तेरे खुद रोयेगी दुख-पीड़ा-व्यथा पिता से कह खुशियों घर चलकर आएंगी जा बेटी घर जा लिख पढ़ कर कुल और समाज का गौरव बन इन छलनाओं पर भ्रमित न हो जा घर आंगन की शोभा बन जब तन मन से जीवन के प्रति वे तुमको विकसित पाएंगे माँ बाप स्वयं तेरी पसन्द के साथी तक ले जाएंगे.....
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मंज़िलों मरहलों से गुज़रते रहे। दमबदम दिनबदिन हम संवरते रहे।। जीस्त ढलती रही अपनी रौ में मग़र हम दमकते चमकते निखरते रहे ।। हम मिले जब जहाँ मुस्कराकर मिले लोग रोते रहे आह भरते रहे।। आप चलते रहे इक तकल्लुफ़ लिए हम हबीबों के दिल में उतरते रहे।। वो हया बन के हममे सिमटती रही हम मुहब्बत थे उन पर बिखरते रहे।। सुरेश साहनी, कानपुर
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बरसे मेरे मिज़ाज के बादल नहीं कभी। मैंने पसारा आस में करतल नहीं कभी।। ये था कि तुम मिलोगे तो चाहूंगा उम्र भर पर था तुम्हारे प्यार में पागल नहीं कभी।। माँ उम्र भर किसी की भी रहती नहीं मगर सर से हटा दुआओं का आँचल नहीं कभी।। मंगल नहीं किया ये भले बेबसी रही लेकिन किया किसी का अमंगल नहीं कभी।। क़िस्मत ने मुझको नाच नचाया बहुत मगर टूटी मेरे ज़मीर की पायल नहीं कभी।। साभार Suresh Sahani
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आशना होने से पहले ही ख़फ़ा होता रहा। इस तरह हर दोस्त मिलते ही जुदा होता रहा।। उम्र भर इंसाफ पाने को फिरे हम दरबदर उन की ख़ातिर रात में भी फैसला होता रहा।। जितने अपने देवता हैं सब के सब हैं संगदिल बेवजह मैं इनकी ख़ातिर आईना होता रहा।। लोग डर से या अक़ीदत से उन्हें पूजा किये इस तरह हर एक पत्थर देवता होता रहा।। इस क़दर चाहा कि उसको बदगुमानी हो गयी मैं वफ़ा करता रहा वो बेवफा होता रहा।। सुरेश साहनी, कानपुर
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कहाँ जीने की अब आज़ादियाँ हैं। कि अब तो हर तरफ पाबंदियां है।। किसी की जान लेने पर तुले हो चुहलबाजी है या गुस्ताख़ियाँ हैं।। नारा–ए–दीन फिर लगने लगे हैं किसी कोहराम की तैयारियां हैं।। जिसे अपना समझ कर दिल लुटाया जेहन में उसके भी मक्कारियां हैं।। ये किस दुनिया में हम आये हैं ये तो ठगों और ताजिरों की बस्तियां हैं।। यहाँ बारूद पर बैठी है दुनियां ये आखिर किनकी कारस्तानियां है।। नई पीढ़ी तरक्की कर रही हैं मेरी आँखों में ही कुछ खामियाँ हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मस्जिद की तामीर मुक़र्रर। मन्दिर की प्राचीर मुक़र्रर।। राजा साहब टिकट पा गए राजा की जागीर मुक़र्रर।। ये गरीब पीढ़ी दर पीढ़ी पाते हैं तक़दीर मुक़र्रर।। जो आएगा वो जायेगा सबकी है तहरीर मुक़र्रर।। ख़्वाब न देखो कब होती है ख्वाबों की तदबीर मुक़र्रर।। हर हिस्से की ख़्वाबख्याली हर हिस्से की पीर मुक़र्रर।। आज हमारा कर ही देगा अब कल की तस्वीर मुक़र्रर।। सुरेश साहनी,कानपुर
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लोग आशंकित हैं बेशक रात से भयग्रसित हैं लोग पर किस बात से रात के होने से ढल जाने तलक अजनबी घड़ियों के टल जाने तलक लोग सूरज को लपकना चाहते हैं धूप की छतरी में रहना चाहते हैं लोग ऐसे भी हैं जो अपने लिए धूप को लॉकर में रखना चाहते हैं धूप सबके पास आना चाहती है धूप दो पल मुस्कुराना चाहती है धूप हंसना और खिलना चाहती है धूप अब उनसे ही मिलना चाहती है जो अंधेरों में भी जीना जानते हैं जो निशा में भी चमकना जानते हैं सुरेश साहनी
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मैं अज्ञानी ही ठीक प्रभू!!! मैं अहंकार में सना रहूँ एक विश्वकोश सा बना रहूँ या ठूंठ ताड़ सा तना रहूँ ऐसे ज्ञानी से बेहतर है यह नादानी ही ठीक प्रभू!! यह दुनिया जैसे मेला है रिश्ते-नातों का रेला है उस पर ही प्राण अकेला है जब कोई साथ न जाता हो तो वीरानी ही ठीक प्रभू!! क्या हाथी घोड़े साथ गये क्या महल दुमहले साथ गये क्या बेटी बेटे साथ गये तब क्या होगा दानाई से है नादानी ही ठीक प्रभू!!!
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और यूँ ही देखते दिखाते गुम हो गई कथायें कितनी।..... मन यायावर तन बनजारा और विचार हुये आवारा इसे सहेजें उसे सँवारें जब उलझन में छूटा सारा क्यों बच गईं व्यथाएँ इतनी।।... इसकी इनकी उसकी बारी इसी तरह से सबकी बारी सब अपने अपने पर रोये रो न सके सब अपनी बारी मृत्यु सुने विपदायें कितनी।।....... कुछ अपने कुछ रहे पराये कुछ अनजाने कुछ हमसाये जगत मंच पर सबने अपने दिए गए किरदार निभाये दे दे गए व्यथाएँ कितनी।।... सुरेश साहनी चित्र Ashok Kumar Singh जी की वाल से
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सभी पकड़ना चाह रहे हैं घने वृक्ष की छाँव। कौन घूमता है ऐसे में मेरे मन के गांव।। पैदा होते है स्टेटस सिंबल लेकर बच्चे कितने होनहार ऐसे में रह जाते अधकच्चे शिक्षक भी हैसियत देख बदला करते हैं भाव।। कौन घूमता है..... अब अंधों की दूरदृष्टि का होता है गुण गायन इस अंधेर नगर की प्रतिभा करती नित्य पलायन चकाचौंध हो अंधियारों का जुगनू करें चुनाव।। कौन घूमता है...... सुरेश साहनी
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मेरे सवाल उठे वक्त का जवाब गया। नज़र झुकाये हुए ओढ़ कर नक़ाब गया।। मिटी है क्या कभी नस्लें किसी परिंदे की गया तो हार के सैयाद या उक़ाब गया।। बुरी निगाह से उठ उठ के हाथ हार गए कहीं न खार गये ना कहीं गुलाब गया।। के ज़ुल्म सह के फरियाद की जुबां न थकी गया तो हार के ज़ुल्मी का इज़तेराब गया।। गया न कुछ भी कहीं इश्क़ के भटकने पर गयी तो शर्मो-हया हुस्न का हिज़ाब गया।। सुरेश साहनी
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ग़म के दरिया खंगाल आये हैं। ज़ीस्त अब तक निकाल आये हैं।। मौत कब कोशिशें नहीं करती हम ही ये वस्ल टाल आये हैं।। जितना हालात ने दबाया है हम में उतने उछाल आये हैं।। तीरगी में थी दिल की तन्हाई दीप यादों के बाल आये हैं।। हम भी डूबे थे इश्क़ में लेकिन ख़ुद को फिर भी सम्हाल आये हैं।। ये नहीं इश्क़ में हमी टूटे हुस्न पर भी जवाल आये हैं।। नेकियों का हिसाब वो जाने हम तो दरिया में डाल आये हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
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आस का दीया बाले रख। दर्द दिलों में पाले रख।। जिनसे नफरत बढ़ती है उन बातों को टाले रख।। सबकी रात चरागाँ कर सबकी सिम्त उजाले रख।। मौला से बस एक दुवा सबके हाथ निवाले रख।। नरमी शबनम वाली रख तेवर तूफां वाले रख।। इसमें कोई फर्क न कर सब को देखे भाले रख।। मंजिल कब नामुमकिन है पहले पॉँव में छाले रख।। --अदीब कानपुरी(suresh sahani)
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अपना दर्द छुपाये रखना गैरों ख़ातिर रोते रहना। अपने दुख को पीकर औरों- के हित नैन भिगोते रहना।। फितरत अपनी काली जैसी जीवन मिला रुदाली जैसा सपने मिले गृहस्थों जैसे परिणत हुआ कपाली जैसा इनसे परे भाग्य को अपने दोनों हाथ संजोते रहना।। यादों की आवाजाही से स्मृति ने अवकाश ले लिया एकाकीपन ने जीवन मे स्थायी आवास ले लिया जीवन जैसे शेष समय मे अपना ही शव ढोते रहना।। Suresh Sahani
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कुछ वक्त मुझे देना कल तुमपे लिखूंगा कुछ। कल तुम भी सुनाना कुछ कल मैं भी सुनूंगा कुछ।। जीने की तमन्नाएं दम तोड़ चुकी हैं पर तुम साथ अगर दोगे मैं और जियूँगा कुछ।। तनहाई में काटे हैं दिन रात बहुत मैंने इस दर्द को समझो तो मैं तो न कहूंगा कुछ।। नाराज़ रहो लेकिन पहलू में बने रहियो तुम पास बने रहना मैं दूर रहूंगा कुछ।। जब रात के आंगन में वो चाँद नज़र आये शरमा के सिमटना तुम मैं और खुलूँगा कुछ।। दिखता है तुम्हे मुझमे रूखा सा कोई चेहरा दुनिया के लिए कुछ हूँ मैं तुमको मिलूंगा कुछ।। हो लाख उमर लम्बी, पर उसकी वज़ह तुम हो तुम साथ नही दोगे तो ख़ाक जियूँगा कुछ।। सुरेश साहनी,कानपुर
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देश में निषाद संस्कृति अथवा फिशरमैन कम्युनिटी भारत की जनसंख्या में एक अच्छी भागीदारी रखती रही है।अकेले उत्तर प्रदेश में ही देखा जाए तो कहार,गोंड, तुरैहा, सोरहिया,निषाद, केवट , बिन्द, मांझी मंझवार,नागर,धीवर,किसान ,धुरिया कश्यप और मल्लाह वर्माआदि अनेक जातियों उपजातियों में बँटा हुआ यह समाज लगभग 10.5 प्रतिशत है। यदि संख्या में लोधी राजपूत भी जोड़े जाएं तो यह संख्या बढ़कर 14%चली जाती है।लगभग यही स्थिति बिहार में भी है । जो किसी भी राजनैतिक दल की गणित को आसानी से बना बिगाड़ सकती है।पौराणिक सन्दर्भों में राजा दशरथ के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ करने वाले श्रृंगी ऋषि निषाद ही थे।कालांतर में उनके पुत्र निषादराज गुह्य मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्री राम के मित्र बनें और राज्य कोलियवन तथा श्रृंगबेरपुर को काशी की भाँति अयुद्ध क्षेत्र अथवा अयोध्या का मित्र राज्य माना गया। महाभारत काल मे राजमाता सत्यवती और उनके विद्वान पुत्र भगवान वेदव्यास के साथ साथ अंगराज कर्ण के पिता अधिरथ, राजा हिरण्यधनु और वीर एकलव्य,कश्यप राजा हिडिम्ब और घटोत्कच, मत्स्यराज विराट, अवन्ति के बिन्द ,महिष्मति के अ...
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जिसकी वंशी ने दिल चुराया है जिसपे दिल गोपियों का आया है जिसने राधा का दिल चुराया है कृष्ण जो गोपियों को भाया है सुन रहे हैं कि नन्दलाला है कैसे मानें वो एक ग्वाला है..... जबकि गैयो को भी चराता है जम के माखन दही चुराता है जबकि इतना शरीर है मोहन फिर भी है गोपियों का मनमोहन हर तरफ जिसका बोलबाला है कैसे माने वो सिर्फ़ ग्वाला है...... ब्रज उसे हाथोंहाथ लेता है मान देता है माथ लेता है जब वो ग्वालों को साथ लेता है कालिया को भी नाथ लेता है सब ये कहते हैं मुरली वाला है कैसे मानें वो सिर्फ़ ग्वाला है.... गोपियों संग रास करता है मुझसे ज्यादा विलास करता है काम भी ऐसे खास करता है हर हृदय में निवास करता है सिर्फ़ मेरे ही दिल का छाला है कैसे मानें वो सिर्फ़ ग्वाला है..... सुन रहे हैं वो मुझको मारेगा पाप हर लेगा जग को तारेगा मोक्ष पाकर के उनके हाथों से कौन कहता है कंस हारेगा वो जो मथुरा में आने वाला है कैसे मानें वो सिर्फ़ ग्वाला है..... सुरेश साहनी,कानपुर
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मेरे आने पे खुश रहना मेरे जाने पे चुप रहना कोई तो फर्क पड़ता है मेरे होने न होने से। हमारी प्यास दरिया सी तुम्हारी आस नदिया सी हमारी पूर्णता है खुद को एक दूजे में खोने से तुम्हें ढूंढा बहुत बाहर पुकारा जब भी अकुलाकर तेरी आवाज आई है हमारे दिल के कोने से मुहब्बत क्या है पूछो तो हमें कुछ भी नही मालुम मिटा मैं मेरे होने से मिला तो खुद को खोने से सुरेश साहनी
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उस बुत की परस्ती कहीं ईमान न ले ले। डरते हैं मुहब्बत मेरी पहचान न ले ले।। पत्थर के पिघलने में बड़ा वक़्त लगेगा आईना तेरा इश्क़ तेरी जान न ले ले।। मुज़रिम मेरा ज़रदार है कमज़र्फ है मुंसिफ वो अपने मुताबिक नया मीज़ान न ले ले।। मुमकिन तो नहीं है मगर इक कैफ़ की खातिर दिल उनके इनायात के एहसान न ले ले।। इक चोर को अरकान बनाना भी गलत है वो देके शहर कोई बियावान न ले ले।। अल्लाह भी डरता है धरती पे उतरने से के उसकी जगह कोई इंसान न ले ले।। बेकार की हर बात को उठते ही दबा दो बढ़कर वो कहीं शक्ल-ए-तूफान न ले ले।। सुरेश साहनी,कानपुर
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ले अंधेरे शाम की मुंडेर पर बैठ जाती है उदासी घेर कर उसने मौके की नज़ाकत भाँप ली आस का सूरज गया मुँह फेर कर रोशनी की झिलमिलाहट क्या बढ़ी ये अंधेरे और गहरे हो गए फुलझड़ी तड़पी पटाखे रो दिए हर किसी के कान बहरे हो गए क्या करें फरियाद इस हालात में कौन दे देगा उजाला भीख में हाथ मेरे आज तक फैले नहीं किसलिए माँगू निवाला भीख में सुरेश साहनी , कानपुर
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मन्दिर चईये चईये ना। फिर क्या है चुप रइये ना।। मज़हब खाने को देगा दे ना दे चुप रईये ना।। धरती पे क्या रक्खा है सबको जन्नत चईये ना।। उधर शराबी नहरों संग हूर बहत्तर चईये ना।। हम उलमा हैं मालूम है हमको भी घर चईये ना।। राम पियारे बेघर हैं हरम बराबर चईये ना।। मुल्ला और पुजारी को पीना मिलकर चईये ना।। नर्क ज़मीं को करना है इंसां को डर चईये ना।। SS 8/11/19
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कुछ नहीं धूप की छाँव लेकर चलो। हौसलों से भरे पाँव लेकर चलो।। जिस शहर को नहीं गांव से वास्ता उस शहर की तरफ गाँव लेकर चलो।। छल फरेबों से दुनिया भरी है तो क्या मन मे विश्वास का भाव लेकर चलो।। उस भँवर में कहीं फंस न जाये कोई उस भँवर की तरफ नाव लेकर चलो।। जिस जगह चार पल की तसल्ली मिले ज़िन्दगी को उसी ठाँव लेकर चलो।। सुरेश साहनी अदीब कानपुर 8/11/20
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उस पार चलो तो कविता हो इक बार मिलो तो कविता हो...... नयनों के मौन निमन्त्रण को स्वीकार करो तो कविता हो...... इस तन के सूखे कोटर से किंचित कोंपल अंगड़ाई ले इन झुर्रीदार त्वचाओं से विस्मित जीवन तरुणाई ले सूखे अधरों पर अधरों से रस धार भरो तो कविता हो...... इक बार मिलो तो कविता हो...... प्रणयाकुल की आकुलता को इक बार पढो तो बात बने सौ बार पहल हमने की तुम- इस बार बढ़ो तो बात बने लज्जातट का उल्लंघन कर इक बार बहो तो कविता हो.... उस पार चलो तो कविता हो..... Suresh Sahani
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यूँ अधरों पर धर दिये अधर मानो स्वीकृति पर लगी मुहर।। उसका दुस्साहस तो देखो मेरी सौ बार असहमति पर वह हठी न माना थका नहीं अनगिनती प्रणय निवेदन कर वह अपने तप मे सफल हुआ मुझ से पत्थर को पिघला कर।।.... हो लाख हृदय प्रणयाकुल पर कब भाव शब्द में प्रकट हुए नयनों ने भी इंकार किया तब कैसे हम सन्निकट हुए क्या इसमें मेरी सहमति थी कुछ देर नयन मुंद गए अगर।।.... कुछ हो मर्यादा का कोई तटबन्ध नहीं तोड़ा मैंने निभ सका जहाँ तक निभा कोई अनुबन्ध नहीं तोड़ा मैंने हम पूर्ण संयमित होकर क्यो थे विह्वल उच्छ्रंखलता पर।।.....
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नींद में होके चल रहा हूँ मैं। क्या कहूँ ख़ुद को छल रहा हूँ मैं।। ख़्वाब रोशन हैं किसलिए मेरे क्या चिरागों सा जल रहा हूँ मैं।। ज़िन्दगी कब उरूज़ पर होगी जिस्म कहता है ढल रहा हूँ मैं।। जाने तक़दीर की सुबह कब है देर से आँख मल रहा हूँ मैं।। जबकि दुनिया हबीब है अपनी क्यों यतीमों सा पल रहा हूँ मैं।। और कितने रक़ीब हैं अपने और कितनो को खल रहा हूँ मैं।। सामने ले रहे हो अंगड़ाई फिर न कहना मचल रहा हूँ मैं।। किसकी यादो की गर्मियां हैं ये बर्फ जैसा पिघल रहा हूँ मैं।। उन की आंखों में मयकदा है क्या लड़खड़ा कर सम्हल रहा हूँ मैं।। सुरेश साहनी,कानपुर
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हमको लहरों का मचलना भा गया। उस समंदर का उबलना भा गया।। हांफना तूफान का अच्छा लगा इक शिकारे का सम्हलना भा गया।। कोई बिस्मिल क्यों कहेगा इश्क़ में तीर का दिल से निकलना भा गया।। हर तरफ गुल के दरीचे बिछ गए बाग को उनका टहलना भा गया।। चाँद का दीदार ही मकसूद था दफ़्फ़तन राहों में मिलना भा गया।। फिर तलातुम से मुहब्बत हो गयी बल्लियों दिल का उछलना भा गया।। जिस्म बाहों में सुलगते रह गया चाँद का ख़ामोश जलना भा गया।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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गर्दिशों से हम उबरना चाहते तो थे। वक्त के हम साथ चलना चाहते तो थे।। तुमने कब मौका दिया हम आखिरी दम तक तुमको जी भर प्यार करना चाहते तो थे।। हल कुदाल हमने उठाये हैं परिस्थिति वश वरना हम भी आगे बढ़ना चाहते तो थे।। मौन हो तुम लोक लज्जावश समझता हूँ मेरी खातिर तुम भी लड़ना चाहते तो थे।। अब हमें भी नींद आती है खुदा हाफिज संग वरना हम भी जगना चाहते तो थे।। सुरेश साहनी
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जिन मक़ामात से गुज़रा हूँ मैं। इम्तेहानात से गुज़रा हूँ मैं।। मैं न टूटा तो उन्हें हैरत है हाथ दर हाथ से गुज़रा हूँ मैं।। कैसे कैसे थे निगाहों में तेरी जिन सवालात से गुज़रा हूँ मैं।। जिस से बचने की तमन्ना पाली हाँ उसी बात से गुज़रा हूँ मैं।। बोझ से जिस्म दबा जाता है यूँ इनायात से गुज़रा हूँ मैं।। होने वाली थी क़यामत न हुयी वस्ल की रात से गुज़रा हूँ मैं।। सुरेश साहनी
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तुम्ही बोलो तुम्हें कैसे मनाऊं। कहाँ से चाँद तारे तोड़ लाऊं।। ये तुम पर है हमें कितना झुकाओ मगर इतना नहीं कि टूट जाऊँ।। तुम्हें मेरी उदासी चुभ रही है तुम्हारी किस अदा पर मुस्कुराऊँ।। तुम्हें हर पल बदलते देखता हूँ तुम्हें क्या नाम दूँ कैसे बुलाऊँ।। अगर तुम पास होते भूल जाता तुम इतने दूर हो कैसे भुलाऊँ।।
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हम अगर बावरे नहीं होते। वो मेरे सांवरे नहीं होते।। फिर मेरी याद आ गयी होगी घाव यूँ ही हरे नहीं होते।। प्यार हर एक से नहीं होता आम पर संतरे नहीं होते।। प्यार चलता है सीधी राह लिए प्यार में पैतरे नहीं होते।। ग़ैर से ज़िक्र मत किया करिये इश्क़ पर मशवरे नहीं होते।। प्यार दीन-ए-ज़हान हो जाता हम अगर सिरफिरे नहीं होते।। इससे बढ़कर कोई शराब नहीं वरना आशिक़ बुरे नहीं होते।। सुरेश साहनी, कानपुर
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तुमने गद्दी तो दिल की पा ली है। क्या कभी सल्तनत सम्हाली है।। कांप उट्ठी है तीरगी दिल की एक कंदील ही तो बाली है।। ढूंढ कर एक मसीह ले आओ दर्द ने फिर जगह बना ली है।। हुस्न ही को गुरुर है जायज़ इश्क़ हर हाल में सवाली है।। अपने बीमार को सताने की तुमने तरकीब क्या निकाली है।। वस्ल तूमसे है ईद हो जाना तुम जहां हो वहीं दियाली है।। मुबारकबाद सुरेशसाहनी,कानपुर