घटा घिर घिर के गहरी हो रही है।

हवा ज़िद पर है  ज़हरी हो रही है।।

किसी की दावते-इफ़्तार है तो

कहीं फांके की सहरी हो रही है।।  

किसी का दिन अभी भी सो रहा है

जवां कोई दुपहरी हो रही है।।

सुना है साँझ का आँचल ढला है

शरम से रात दोहरी हो रही है।।

हमारी ख़्वाहिशें रोहू की मछली

मगर तक़दीर सिधरी हो रही है।।


सुरेश साहनी,कानपुर

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