ज़मीन छुट गयी क्या आसमान में रहते।

किराएदार थे कब तक मकान में रहते।।


ये तुमने ज़ख्म नहीं इल्म दे दिया  गोया

वगरना हम भी वफ़ा के गुमान में रहते।।


निकल के हसरतों ने राह इक दिखा दी नई

बिना हवा के कहाँ तक उड़ान में रहते ।। 


न तुम मिले न खुदा से पनाह मिलनी थी

तो ऐसे हाल में हम किस जहान मे रहते।।


हरेक उरूज़ का इकदिन ज़वाल आना है

तो हम भी इश्क़ थे कब तक उठान में रहते।।


भले ही डूब गए हमको इसका रन्ज नहीं

नदी तो तैर ली हमने उफान में रहते।।


यकीं नहीं रहा मेराज़ के मआनी क्या

किसी भी तीसरे के दरम्यान में रहते।।


निकल गए तो वो वापस कहाँ से आएंगे

के हक़ था तीर पे खाली कमान में रहते।।


ये इश्क़ ही नहीं ग़ैरत भी दख्ल रखती है

तो अहले सैफ़ कहाँ तक म्यान में रहते।।


सुरेश साहनी, कानपुर।

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