चला था जो आफताब लेकर।

वो रुक गया क्यों ख़िताब लेकर।।

उठाये सबने सवाल कितने

क्यों चुप रहा वो जवाब लेकर।।

जो हाथ शोलों से खेलते थे

वो जल उठे इक गुलाब लेकर।।

बचाएगा कैसे अपनी नफ़रत

मोहब्बतें बेहिसाब लेकर।।

ख़राब मत कर तू खाना-ए-दिल

ख़ुदा का ख़ाना ख़राब लेकर।।

मिटा दे दैरो हरम के झगड़े

तो बैठ वाइज शराब लेकर।।

तमाम चेहरे फिरें हैं अब भी

नक़ाब पर दस नक़ाब लेकर।।

Suresh sahani

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