गिरे हैं टूट कर बिखरे नहीं हैं।
कहीं से भी गए गुज़रे नहीं हैं।।
ये कब बोला है हम पे तरस खाओ
हमारे हाथ भी पसरे नहीं हैं।।
हमारे आंसुओं से जल उठोगे
ये अंगारे हैं ये कतरे नहीं हैं।।
जहां जाएं वहीं साये मिलेंगे
मुहब्बत के यही हुज़रे नहीं हैं।।
नहीं तहज़ीब वाले हर्फ़े इनमें
ये अपने पुश्त के सिज़रे नहीं हैं।।
तरबियत की कमी है आज वरना
विरासत से हमें खतरे नहीं हैं।।
कि जाएंगे तो खोलेंगे हक़ीकत
अभी जन्नत में हम ठहरे नहीं हैं।।
सुरेश साहनी, कानपुर
9451545132
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