मुस्कुराई है ज़िन्दगी फिर से। लौट आयी है ज़िन्दगी फिर से।। मुद्दतों बाद ज़िन्दगी क्या है जान पायी है ज़िन्दगी फिर से।। मौत भी आज हार मान गयी जब लुटाई है ज़िन्दगी फिर से।। ग़ैर भी वाह वाह बोल उठा यूँ गंवाई है ज़िन्दगी फिर से।। आरजूओं ने कुछ कहा होगा कसमसाई है ज़िन्दगी फिर से।। ख़र्च ख़ुद को किया है तब जाकर कुछ कमाई है ज़िन्दगी फिर से।। गुनगुनी धूप प्यार की पाकर कुनमुनाई है ज़िन्दगी फिर से।। सुरेश साहनी, कानपुर
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Showing posts from August, 2023
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मन्नत तो उन माताओं ने मानी ही होगी सब देवी देवताओं को भी पूजा ही होगा फिर उनके भगवान किसलिए रूठ गये बाबा माताओं से लाल किसलिए छूट गए बाबा पूरे भारत में बाबा सरकार तुम्हारी है अब कुछ अच्छा करने में कैसी लाचारी है किस मुश्किल से एक बाप को बेटा मिलता है। नाना को नाती बाबा को पोता मिलता है घर वालों को आशाओं का सूरज मिलता है या विचलित नावों को एक किनारा मिलता है बड़ी तपस्या से घर में आती किलकारी है।। अब अच्छे दिन लाने में कैसी लाचारी है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मेरे दर्दे दिल की दवा था जो अभी उसमें कोई असर नहीं। मैं भी गुम था किसके ख़याल में जिसे मेरी कोई ख़बर नहीं।। कभी राब्ता था बला से था कभी आशना था हुआ करे अभी अपने हाल पे खुश हूँ मैं कोई मेरी फ़िक्र भी ना करे अभी में हूँ खुद की तलाश में मेरी मन्ज़िलों पे नज़र नहीं।। जो मिरा मक़ाम दिला सके मिली ऐसी राहगुज़र नहीं। मैं तो गुम था उसके ख़याल में मुझे अपनी कोई खबर नहीं।।SS
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बड़ा लेखक बनने के कई नुस्खे हैं। ये दादी के नुस्खों की तरह ही हैं।मेरे मित्र ने एक संस्मरण सुनाया कि कैसे लोहिया जी मुख्यमंत्री बनते बनते रह गए। उन्होंने अपनी जगह नेता जी को मुख्यमंत्री बनवा दिया।बाद में एक दिन साथ मे पीते समय उन्होंने(लोहिया जी)अपनी इस वेदना को उनसे व्यक्त किया था। मैने पूछा - 'क्या नेता जी के मुख्यमंत्री बनते समय लोहिया जी उनके साथ थे? और तब आप कितने साल के थे। फिर लोहिया जी पीते थे ये कैसे मान लें। अरे यार!तुम तो ज़बान पकड़ लेते हो। अरे हम उनके साथ काफी पीते थे।, मित्र ने खिसियाते हुए कहा।पर मैंने कहा लोहिया जी तो 1967 में ऊपर जा चुके थे। मित्र का पारा चढ़ चुका था पर वे संयत होते हुए बोले, ' यार! सब तुम्हारी तरह पढ़े लिखे नहीं होते। आज मोदी जी सरदार पटेल को अपना राजनीतिक गुरु बताते हैं।कउनो सवाल पूछता है क्या? अरे बड़ा नेता बनने के लिए हम अपनी फोटू गांधी जी के साथ दांडी यात्रा करते हुए लगा दें तब भी कउनो तुम्हारी तरह सवाल नहीं पूछेगा।और सुनो तुम अपनी अउकात में नहीं रहते । इसी लिए आज तक बड़े साहित्यकार नहीं बन पाए। " ...
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उस ख़ुदा ने तो हुस्नवार किया। सच कहो किसने दागदार किया।। वो तिज़ारत है हुस्न के बदले तुम जिसे कह रहे हो प्यार किया।। वो किसी ग़ैर का हुआ आख़िर हमने नाहक ही इंतज़ार किया।। पर मेरा इज़तेराब तो देखो बेवफ़ा का भी ऐतबार किया।। यकबयक दिल का आईना टूटा उसने क्या क्या न था क़रार किया।। सुरेश साहनी , kanpur 9451545132
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आप हमको कहाँ कहाँ रखते। दिल में रखते कि सू-ए-जाँ रखते।। डूब जाते तो क्या बता पाते हम किनारे जो किश्तियाँ रखते।। दिल के रिश्ते में आप थे हम थे और हम किसको दरमियाँ रखते।। ठीक है आप ही बता दीजै आग रखते कि हम धुंआ रखते।। हम चिरागों को साथ ले आते शौक से आप आंधियां रखते।। आप मिलते तो घर बसा लेते लोग कितनी भी बिज़लियां रखते।। सुरेश साहनी, कानपुर
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इधर हम मुस्कुराते जा रहे है। उधर वो खार खाते जा रहे है।। इधर हम खुश हैं गिरती बिजलियों से वो अपना दिल जलाते जा रहे हैं।। हमारे चाँद के जलवों से जल कर वो ख़ुद को ही बुझाते जा रहे हैं।। कहाँ जाने हैं वो दीने-मुहब्बत फ़क़त तोहमत लगाते जा रहे हैं।। हमें हरजाई कहने वाले सोचें वो ख़ुद को क्या बनाते जा रहे हैं।। हमें खुश देखकर पहलू में इनके जहन्नम में वो जाते जा रहे हैं।। न जाने क्यों दुखी हैं ग़ैर अपने जो हम हँसते हँसाते जा रहे हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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फिर महल के लिये झोपड़ी हँस पड़ी। धूप ढल सी गयी चांदनी हँस पड़ी।। ज़ुल्म ने देखा हसरत से बेवा का तन काम के दास पर बेबसी हँस पड़ी।। उम्र भर जो डराती फिरे थी उसी मौत को देखकर ज़िन्दगी हँस पड़ी।। मौत के डर से भागी इधर से उधर आज करते हुए खुदकुशी हँस पड़ी।। रोशनी अपने होने के भ्रम में रही साथ दे कर वहीं तीरगी हँस पड़ी।। जन्म से मृत्यु तक जीस्त भटकी जिसे है सफ़र सुन के आवारगी हँस पड़ी।। सुरेशसाहनी कानपुर
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वो फिर से याद आना चाहता है। न जाने क्यों सताना चाहता है।। नई तर्ज़े-ज़फ़ा ढूंढ़ी है शायद जो हमपे आज़माना चाहता है।। हमारे ख़्वाब कल तोड़े थे जिसने वही ख़्वाबों में आना चाहता है।। सरे-शहरे-ख़मोशा रो रहा है कोई किसको जगाना चाहता है ।। यहां दिल भी नहीं है पास अपने तो फिर क्यों दिल लगाना चाहता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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फिर बीती बातों की बातें। फिर गुज़रे लम्हों की बातें।। फिर झूठी कसमों पर चर्चा फिर झूठे वादों की बातें।। दिन दिन भर बतियाते रहना उन भीगी रातों की बातें।। किसके शानों पर हम रोयें करके उन शानों की बातें।। ख़त्म कहाँ होती है यारों साहिल से लहरों की बातें।। गांव गली में फैल गयी है आंगन ओसारों की बातें।। खैर कहाँ तक छुप सकती थीं उल्फ़त के मारों की बातें।। सुरेश साहनी ,कानपुर
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राख में अंगार लेकर जी रहे हैं। हम तुम्हारा प्यार लेकर जी रहे हैं।। लाश जैसे हो गए तुम रूठ कर और हम मनुहार ले कर जी रहे हैं।। मुँह चुराने के लिए हालात से हाथ मे अखबार लेकर जी रहे हैं।। लोग तो सरकार चुन कर मर गए और वे सरकार लेकर जी रहे हैं।। वो न बेचें देश तो मर जायेंगे ज़ेहन में व्यापार लेकर जी रहे हैं।।
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चाहते हैं आप कवि सब सच लिखे चाहते हैं आप कवि ही क्रांति लाये चाहते हैं सब कलम कुछ आग उगले चाहते हैं सब कलम सर भी कटाये चाहते हैं आप फिर आज़ाद बिस्मिल जन्म लें लेकिन किसी दूजे के घर मे चाहते हैं आप का बेटा पढ़े और नेक हो साहब बहादुर की नज़र में सच बताना आप ने कब किस कलम की अपने स्तर से मदद कोई करी है दरअसल है सच कि सब ये सोचते हैं खेल है कविता हँसी है मसखरी है आप खुद क्यों मौन हैं अन्याय सहकर जी रहे हैं अंतरात्मा का हनन कर हर कलम बोलेगी सच बस शर्त ये है आप सच का साथ दें घर से निकल कर
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भले तुमसे मिठाई हम न लेंगे। मगर कम एक पाई हम न लेंगे।। समझ लेना तुम्हारे साथ हैं पर विधायक से बुराई हम न लेंगे।। मेरे पी ए को दे देना जुटा कर रुपैय्या तुमसे भाई हम न लेंगे।। अगर मेहनत का है तो घूस दे दो कोई काली कमाई हम न लेंगे।। ये सुख सुविधा ये गाड़ी और बंगला सभी के काम आयी हम न लेंगे।। #हज़ल #व्यंग सुरेश साहनी कानपुर
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चौदह सितंबर आ रहा है। मैं इस बार भी किसी को नहीं बताऊंगा कि मैंने पचास से अधिक देशों की यात्रा नहीं की है। आख़िर इस बात से मेरी अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्रभावित हो सकती है। एक बार नुक्कड़ वाली चाय की दुकान पर मेरे एक मित्र चौबे जी मिल गए ।मैंने उन्हें भी चाय का आग्रह किया।उन्होंने मेरा आग्रह सहर्ष स्वीकार भी कर लिया। वैसे भी वो चाय पीना पसंद करते हैं पिलाना उनके शब्दकोश में नहीं है। ख़ैर चाय के दौरान बातचीत में उन्होंने बताया कि अब वे भी अंतरराष्ट्रीय कवि हो चुके हैं।क्योंकि अब वे इंटरनेट के नल पर कविताएं बहाते हैं। उनका उस गूगल में एकाउंट है। जिसमे करोड़ों अमरीकीयों के भी एकाउंट हैं। मैंने विचार किया कि , काश तुलसीदास भी अमरीका घूम आये होते तो आज वे भी अंतरराष्ट्रीय कवि होते। फिर लगा कि अगर वे अमरीका की छोड़ो लंका ही घूमे होते तो दूबे काहे कहे जाते। संत कबीर भी विदेश नहीं घूम पाए जबकि उमर भर गाते रहे कि , "रहना नहीं देश बेगाना है।।" पर वे काशी से निकले तो मगहर में अटक के रह गए।नेपाल भी नहीं जा पाए नहीं तो वे भी अंतरराष्ट्रीय कवि हो गए होते...
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बहुत बतंगड़ बड़ी बतकही। अब भी कोई बात बच रही।। दूध दही की नदी बहुत थी आज कहाँ है दूध और दही।। रामायण सब पढ़े सुने हैं कितनों ने अच्छाईयाँ गही।। कहा सुना कम उतरा दिल में किन्तु उन्हें खल गयी अनकही।। रहने पर था पड़े हुए हैं नहीं रहे तो मनी तेरही।। बीत गया अब करो विवेचन कौन गलत है कौन है सही।। सुरेश साहनी, कानपुर
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साहिल पे सर पटक के समंदर चला गया। गोया फ़क़ीर दर से तड़प कर चला गया।। जब साहनी गया तो कई लोग रो पड़े कुछ ने कहा कि ठीक हुआ गर चला गया।। ग़ालिब ने जाके पूछ लिया मीरो-दाग़ से ये कौन मेरे कद के बराबर चला गया।। महफ़िल से उठ के कौन गया देखता है कौन कल कुछ कहेंगे चढ़ गई थी घर चला गया।। अश्क़ों में किसके डूब के खारी हुआ अदीब चश्मा कोई मिठास का अम्बर चला गया।। सुरेश साहनी, अदीब कानपुर
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मत पूछो अलगाव कहाँ है। रिश्तों में ठहराव कहाँ है।। बेगानों की इस बस्ती में अपनेपन का भाव कहाँ है।। हर आँगन में दस दीवारें पहले जैसा गाँव कहाँ है।। जाने किसपे तुम माइल हो सोचो अभी लगाव कहाँ है।। दिल के रस्ते सीधे सादे सच मे यहाँ घुमाव कहाँ है।। बेशक़ तन से पास खड़े हो दिल से मगर जुड़ाव कहाँ है।। तुम तो कुश्ती के माहिर हो दिल जीते वो दाँव कहाँ है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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आप से दूर हम कहाँ जाएं दिल से मजबूर हम कहाँ जाएं।। दिल की दुनिया है आप से रौशन होके बेनूर हम कहाँ जाएं।। मरकज़-ए- गर्मी- ए -इश्क़ हैं आप ढूंढने तूर हम कहाँ जाएं।। होश होता तो मयकदे जाते हम हैं मख़मूर हम कहाँ जाएं।। उस मसीहा ने फेर ली नज़रें लेके नासूर हम कहाँ जायें।। उम्र भर जीस्त का सफ़र करके थक के हैं चूर हम कहाँ जाएं।। Suresh sahani Kanpur 9451545132
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हमारे गांवों में आज भी स्त्रियाँ पति का नाम नही लेती हैं । बचपन में किसी अख़बार शायद दैनिक आज में एक प्रसंग पढ़ा था । उस प्रसंग में एक देहाती स्त्री राशन की दुकान पर अपना राशन कार्ड लेने गयी थी । राशन दुकानदार ने कार्डधारक का नाम पूछा । स्त्री शरमा कर बोली ,'वही मा लिखा है । दूकानदार ने उसकी परेशानी समझते हुए उसके पति के नाम का संकेत बताने को कहा । उस स्त्री ने कहा उनके नाम का महीना होत है । दुकानदार ने फागु ,चैतू आदि नाम लिए किन्तु स्त्री ने निराशा से भरी असहमति जताई । पुनः उस स्त्री ने कहा की उनके नाम मा पानी बरसत है । दुकानदार ने तुरन्त पूछा 'कहीं भदई तो नही ?स्त्री ख़ुशी से चिल्ला उठी --हाँ हाँ !भदई!भदई !!! आईये भादो या भाद्रपद का स्वागत करते हैं ।
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बीजेपी अम्बानी की है,कांग्रेस अम्बानी का। कर ली दुनिया मुट्ठी में अब हुआ देश अम्बानी का।। कैसे कह दे यह अपना है यह विशेष अम्बानी का। अब सरकार किसी की हो पर है नरेश अम्बानी का।। देश के सेवक भेष बदल कर हुए मुलाजिम पूँजी के ख़िदमत जनता की करनी थी हो गए खादिम पूँजी के पूँजी हो गयी पूंजीपति की पूंजीपति अम्बानी का। अरबपति भी आज हो गया खरबपति अम्बानी का।। उसकी रेल जहाज़ उसी के उसका हर स्टेशन है पहले वह भी था नेशन का अब उसका ही नेशन है पीएम और मिनिस्टर उसके सदन हुआ अम्बानी का। साँसे धड़कन सब गिरवी हैं बदन हुआ अम्बानी का।। रोटी कपड़ा और मकान सस्ते होने की बारी है उसको किश्तों में जनता को देने की तैयारी है पाई पाई जनता की है अब निवेश अम्बानी का। वेश और गणवेश विमल के है स्वदेश अम्बानी का।। सुरेश साहनी
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कौन कितना बड़ा मदारी है। आज भी ये तलाश जारी है।। कौन सा देव कौन सा मंदिर वो सिरफ देह का पुजारी है।। लाख दुनिया पे राज करता है मेरी नजरो में वो भिखारी है।। हाँ वही लोग आज छोटे हैं जिनकी ऊँची महल अटारी है।। आप उसको पकड़ नही सकते उसमें इतनी तो होशियारी है।। मेरी आँखों में चन्द सपने हैं वो इसी बात का शिकारी है।।
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हमें याद हैं पढ़े ककहरे। हर अक्षर के बारह चेहरे।। लोकतंत्र के हिलते पाये लूले लंगड़े गूंगे बहरे।। जयकारों ने बिठा दिए हैं आवाज़ों पर अगणित पहरे।। कल काले थे जाने कैसे आज हो गए पृष्ठ सुनहरे।। सच कह कर थक गए आईने भावहीन हैं सारे चेहरे।। क्या कोई अवतार भरेगा जख़्म देश के गहरे गहरे।। ऐसी अन्धी होड़ लगी है जाने देश कहाँ पर ठहरे।। सुरेश साहनी, कानपुर
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ये फेसबुक के बड़े लोग।कविता और साहित्य के धुरंधर ।ये परिभाषाएं गढ़ते,बनाते और बिगाड़ते रहते हैं।आखिर दिल्ली जैसे शहरों में रहते हैं।आलोचक,समालोचक,कवि,अकवि,तुकांतक,अतुकांतक,समीक्षक , निंदक और न जाने क्या क्या?गुट, निर्गुट,गुटगुट।विभिन्न गिरोहों को चलाते ये साहित्यिक लोग अब खतरनाक से भी कुछ अधिक लगने लगे हैं।सत्ता की आभा से ओतप्रोत ये महान लोग ।सत्ता परिवर्तित होते ही इनके चिंतन के रंग भी बदलने लगते हैं।इनसे भले तो हमें अपने यहाँ के राजनीतिज्ञ लगते हैं।कुछ तो दीन बचा रखा है।ईमान की बात मैं नहीं करूँगा। लेकिन उन्हें जनमानस का भय तो है।लेकिन ये बड़े साहित्यिक लोग हमेशा गरियाने,फरियाने में व्यस्त मिलते हैं।उससे उबरे तो पीने पिलाने की चर्चा करते दिखेंगे।सुरूर बढ़ा तो दूसरे की चादर के छेद तलाशने में व्यस्त हो जाएंगे।कभी कभी कोफ़्त होने लग पड़ती है।फिर विचार आता है, अच्छा है यार!हम बड़े नही हुए।वरना यही सारे अवगुण हमारी शोभा भी बढ़ा रहे होते।पता नहीं परसाई जी तब बड़े थे या नही।
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परिवर्तन स्वीकार करो अब नवपथ अंगीकार करो अब। कर अतीत स्मृति में संचित वर्तमान से प्यार करो अब।। युग व्यतिक्रमित हो गए जब की पथ दिग्भ्रमित हो गए जब की इस संक्रान्ति काल में शुचियुत स्नेह संक्रमित हो गए जबकि प्रतिरोधी उपचार करो अब।। नवपथ अंगीकार करो अब।। मानव से मानव की दूरी मात्र स्वार्थ रह गए जरूरी किन्तु भूल जाता है मानव निजता है अस्मिता अधूरी भौमिकता स्वीकार करो अब।। नवपथ अंगीकार करो अब।। सूरज ढला रात होती है बीती रात सुबह आती है वक्ष चीर कर गहन तिमिर का उषा लालिमा कर जाती है आशा का संचार करो अब।। नवपथ अंगीकार करो अब।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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चलो हम तुम कहीं चलकर तलाशें। मेरे इंसां के लायक घर तलाशें।। चलो अब छोड़कर नफ़रत के डेरे मुहब्बत वाले दैर-ओ-दर तलाशें।। ये मुमकिन है जो हम पर हँस रहे हैं वो इकदिन हमको रो रोकर तलाशें।। कोई तुममें है तुमसे ख़ूबसूरत इज़ाज़त दो तो हम छूकर तलाशें।। ये दौलत अपने भीतर ही छुपी है सुक़ूने-दिल कहाँ जाकर तलाशें।। जफ़ाओं में भी कुछ तो नरमियत हो उन्हें कह दो नया खंज़र तलाशें।। न जाने ताज़ में कितने दफन हैं कहाँ तक नाम के पत्थर तलाशें।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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एक कलम से इतना सारा लिखते हो। स्याही को कैसे उजियारा लिखते हो।। सच का दावा आख़िर कितना जायज है क्या अंधियारे को अँधियारा लिखते हो।। कल तुमने उड़ते जुगनू का खून किया आज उसे ही चाँद सितारा लिखते हो।। औरों पर तो खूब उठाते हो अँगुली क्या अपनी भी ओर इशारा लिखते हो।। मत चिनार को सुलगाने की बात करो जमी झील क्यों दबा शरारा लिखते हो।। जंतर मंतर की खबरें क्यों दबती हैं कब अंगारे को अंगारा लिखते हो।। अपनी बारी में क्यों मुंह सिल जाता है औरों को तो खूब नकारा लिखते हो।। तुमसे सच की कैसे हम उम्मीद करें तुम तो गाँधी को हत्यारा लिखते हो।। #सुरेशसाहनी
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तुम आवाज़ों की हद सुनते। हम सुनते तो अनहद सुनते।। सोच अगर बौनी रखते हम क्या बौनों का ही क़द सुनते।। फरियादें थीं गांव गली की क्या हम जाकर संसद सुनते।। इन बूढ़ी सोचों से कहकर फिर फिर अपनी ही भद सुनते।। पत्थर के कानों से बेहतर बूढ़े वाले बरगद सुनते ।। धाक जमाना बात अलग है कैसे कह दें अंगद सुनते।। पर यक़ीन था राम कहानी श्याम न सुनते अहमद सुनते।। इश्क़ कबीर हुआ करता है कब शाहों की सरमद सुनते।। दिल की बातें दिल ना सुनता क्या महलों के गुम्बद सुनते।। कितना कर लेते छोटा दिल क्या सांसों में सरहद सुनते।। जब अपने अनसुनी कर गये दूजे कैसे बेहद सुनते ।। सुरेश साहनी, कानपुर
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घर के बाहर घर के बरगद रोप दिए। जिन ने हमको घर आंगन सब सौंप दिए।। हमें गांव का घर बेमानी लगता था हमने उस पर गैरों के घर थोप दिए।। बूढ़ी सांसें अक्सर खाँसा करती थी हमने उन आसों में खंजर घोंप दिए।। वे कब्रें जो राह निहारा करती हैं उन आंखों पर हमने धोखे तोप दिए।। अम्मा बाबू पुरखे और पुरनियों को हमने अनजाने में कितने कोप दिए।। जो अपनी जड़ थे प्रकाश थे पानी थे उनको हम पर लदने के आरोप दिए।।
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कल फिर एक दिन निकल जायेगा ऐसा होते होते आधी सदी गुज़र चुकी है ये वो दिन हैं जिसके लिए माँ ने नौ माह पीड़ा सही होगी व्रत उपवास रखे होंगे मन्नतें मानी होंगी मंदिरों के चक्कर भी काटे होंगे और एक दिन असीम पीड़ा के बाद मुझे पाया होगा भगवान भी पूरा सूद आना पाई वसूलने के बाद ही पिघलता है लेकिन वह अंतिम पीड़ा नहीं थी पालना तो और भी कठिन है इस का प्रतिफल माँ को कब मिलता है शायद कभी नहीं मुझे पता है माँ की पीड़ा कभी खत्म नहीं होती माँ अपनी अंतिम स्वास तक माँ ही रहती है न ममता कम होती है न पीड़ा हम नहीं पाल सके तुम्हें हम नहीं सहेज सके तुम्हें माँ मुझे नहीं पता तुमने मुझे पाया या तुमने मुझे दिया आज तुम नहीं हो तो अनुत्तरित है यह प्रश्न माँ!अगली बार मुझे जन्मना तो ज़रूर बताना....
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गुल के जैसा खार था वो। दूसरे का प्यार था वो ।। आज जो अपना नहीं है कल हमारा यार था वो।। जल गया जिस फूल से मैं क्या कोई अंगार था वो।। था वो रुसवाई का पर्चा या कोई अख़बार था वो।। क्यों दवा ने मार डाला आख़िरी बीमार था वो।। छोड़ आया आज जिसको क्या मेरा संसार था वो।। फिर भी दिल से हैं दुवाएँ कुछ हो आख़िर यार था वो।। बेवफ़ा मजबूर था या आदतन लाचार था वो।। है रक़ाबत का तो रिश्ता क्यों कहें अगयार था वो।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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कविता अच्छी या बुरी नहीं होती पर कवि का छोटा या बड़ा होना सुना है छोटे कवि बहुत बड़े होकर भी छोटे ही रहते हैं बड़े कवि कभी छोटे नहीं रहे होते हैं उनकी कविता से बड़ी उनकी लॉबी होती हैं पहुँच होती हैं शायद शोच भी छोटा कवि किसी पौधे की तरह बरगद के नीचे बढ़ने का प्रयास करता है और एक दिन गुम हो जाता है अपनी कविताओं की तरह
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आँख में फिर वही नमी क्यों है। आज बेचैन आदमी क्यों है ।। ज़श्न होते हैं एहतियात लिए आज खतरे में हर ख़ुशी क्यों है।। हर तरफ ज़िन्दगी मनाज़िर है फिर हवाओं में सनसनी क्यों है।। ऐ शहर तुझसे आशना हूँ मैं पर तेरे लोग अज़नबी क्यों है।। कल तलक मैं तेरी ज़रूरत था यकबयक इतनी बेरुखी क्यों है।। तेरी आँखे तो खुद समंदर हैं तेरी आँखों में तिश्नगी क्यों है।। मौत खुद चल के पास आएगी ज़ीस्त तू तेज भागती क्यों है।। हर तरफ़ हैं हसीन नज़्ज़ारे मेरी आँखों में इक तू ही क्यों है।। सुरेश साहनी
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बात थी आयी गयी सन्दर्भशः। ज़िन्दगी चलती रही सन्दर्भशः।। मैं प्रसंगों में कहीं आया नहीं ज़ीस्त आरोपित हुयी सन्दर्भशः।। कुछ इधर तो कुछ उधर जोड़ा गया यूँ कहानी बन गयी सन्दर्भशः।। काम उसने राक्षसों वाले किये बात देवों सी कही सन्दर्भशः।। सच समय पर सामने आया नहीं झूठ की मढ़ती रही सन्दर्भशः।। कृष्ण आये किन्तु थोड़ी देर से पांचाली लुट गयी सन्दर्भशः।। सुरेश साहनी, कानपुर
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धूप ज्यादा है रोशनी कम है। तम के सूरज की ज़िंदगी कम है।। मयकदे , महफिलें हैं साकी भी सिर्फ़ प्यासों में तिश्नगी कम है।। रात का खौफ़ क्या सताएगा हौसलों से तो तीरगी कम है।। दुश्मनी है तो है बहुत दो पल दोस्ती को तो ज़िन्दगी कम है।। उसकी नज़रों ने ज़िन्दगी दे दी उसको इस बात की खुशी कम है।। उस की आँखों में झाँक कर देखो अजनबी होके अज़नबी कम है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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तुम सूरज का ताप बन सको। दुष्टों का संताप बन सको।। क्या तुममें इतना साहस है जो राणा प्रताप बन सको।। ख़िदमतगार ख़ुदाई होना। दीनजनों की माई होना ।। सच पूछो तो बहुत कठिन है रानी लक्ष्मीबाई होना।। काम अगर निष्काम नहीं है। सृष्टि परक यदि काम नहीं है।। वह ढोंगी है संत नहीं है उसके मन मे राम नहीं है।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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अगर तुम आ रहे हो तो बताना। कन्हैया आस झूठी मत बंधाना।। छला है तुमने ब्रज की गोपियों को कभी गलती से बरसाने न जाना।। अभी दुश्शासनों की बाढ़ सी है अभी है कंस ये सारा ज़माना।। अभी हर ओर गौवें कट रही हैं खुला है हर शहर में कत्लखाना।। हजारो द्रौपदी लुटती हैं निसदिन बचाना एक को है तो न आना।। बता देना मुझे लाना पड़ेगा मेरे घर है अगर माखन चुराना।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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थरिया थरिया भूख भरल बा चुटकी चुटकी भात मिलल बा। हमहन के किसमत बा इहे डेगे डेगे घात मिलल बा।। इनके देखलीं उनकर सुनलीं इनसे काS उनहूँ से कहलीं बारह धाम निहोरा कइलीं सौ सौ बार मनौती मनलीं केतना बेर उपासे रहलीं खस्सी भेड़ चढ़इबो कइलीं सबकर किसमत जागत देखलीं आपन भाग ओंहात मिलल बा।। सुत्तत जागत उट्ठत बइठत दउड़त भागत टहरत डगरत थाकल देह न बुझलीं थाकल असकत तूरत काँखत कँहरत दिन दुपहरिया भागत रहलीं कब्बो बेर कुबेर न जनलीं तब्बो जइसे फटहा झोरी- में हमके खैरात मिलल बा।। #सुरेशसाहनी
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द्रोणागिरि पर्वत उत्तराँचल के दून क्षेत्र या गढ़वाल में स्थित है। इस क्षेत्र में द्रोणद्वारा गाँव भी है। गाँव में लालपत्थर का एक विशाल चबूतरा है ।लोग कहते हैं कि इस पत्थर को भीम अपने गुरु के लिए राजस्थान से लाये थे। तपोवन और सहस्त्रधारा में द्रोणाचार्य की तपस्या के चिन्ह मिलते हैं। इस पर्वत का नाम भी द्रोणाचार्य के नाम पर ही पड़ा है। क्या हनुमान जी इसी पर्वत से संजीवनी बूटी ले गये थे?
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अपनी पलकों में छिपा लो हमको। आज हमसे ही चुरा लो हमको।। मरहला है कोई मकाम नहीं हो सके आज ही पा लो हमको।। हम तो खुशबू हूँ बिखर जायेंगे अपनी सांसों में बसा लो हमको।। इसके पहले की चलें जाएँ कहीं दे के आवाज़ बुला लो हमको।। कल नही होंगे तो पछताओगे आज जी भर के सता लो हमको।। कल तुम्हे याद रहे या न रहे आज कुछ सुन लो सुना लो हमको।। कुछ सुकूने-ग़मे-फ़िराक़ मिले अपने ख्वाबों में सजा लो हमको।। सुरेश साहनी,अदीब" कानपुर
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क्या ये परमात्मा की ढिठाई नही है। राखी तो है पर कलाई नही है।। किसी घर में भाई है बहनें नही है कही पर बहन है तो भाई नही है।। कलाई है राखी के पैसे नही हैं किराया नही है मिठाई नही है।। यहां महंगाई ने मार डाला सभी को बकौल हुकमरान महंगाई नही है।। तमन्ना है जाके बनें हम ही भाई हर बहन के जिसके भाई नही है।। सुरेशसाहनी
व्यंग लेख
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यह कौन बतायेगा कि मॉरीशस में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लेने के लिए जाने वाली सूची में मेरा नाम था या नहीं।और नहीं था तो रहने के लिए क्या अर्हताएं थीं।अब जबकि हमारे मित्रगण आने जाने का किराया भी देने को तैयार हो गये।तो पता चला कि सूची तो सिंह साहब बना चुके हैं।चलो विदेश नहीं गए उसका गम नहीं।सो तो हम किसी दिन नेपाल चले जायेंगे।लेकिन अब हमारे मित्र लोग कह रहे हैं कि हम तुमको अब बड़ा साहित्यकार नहीं मानेंगे। अच्छा हुआ हम महिला नहीं हैं ,नहीं तो मैत्रेयी जी के अनुसार सूची से स्वतः बाहर हो जाते। एक और बात हम अभी तक किसी लेखक ग्रुप से नहीं जुड़ पाए हैं।ग्रुप जैसे- प्रगतिशील, वामपंथी,दक्षिणपंथी,समाजवादी,या दलित साहित्य आदि आदि।लोग बताते हैं इसलिए भी आप सहित्यमारों की सूची से बाहर हैं।आपको कोई एक पाला तो पकड़ना ही पड़ेगा।और अगर शॉर्टकट सफलता चाहिए तो किसी सरकार समर्थक पत्रकार से टॉमीगिरी का प्रशिक्षण ले लीजिए। खैर! अपनी आर्थिक स्थिति देखकर एक बार मन तो बहकता है लेकिन ज़मीर है कि मानता नहीं।
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कहाँ खो गए तुम बुलाते बुलाते। बताते वही गीत हम गुनगुनाते।। किधर जाके ढूंढें किसे हम पुकारें कहीं भी गए तुम बताकर तो जाते।। यकीनन मनाते तुम्हे हर तरह से मगर तुम हमें रूठकर तो दिखाते।। किधर जा रहे हो ये चेहरा छुपाए चलो अब बता दो मुहब्बत के नाते।। अजी कुछ तो बोलो हुआ क्या है ऐसा जो चुप हो गए हो सुनाते सुनाते।। सुरेशसाहनी
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तुमने मेरा बचपन छीना तुमने तरुणाई छीनी है। तुमने सखियों से दूर किया तुमने तनहाई छीनी है सब खेल खिलौने घर आँगन झूलों का सावन लूट लिया जो दर्पण देख लजाती थी तुमने वह दर्पण लूट लिया मैं बनी बावरी फिरती हूँ तुमने चतुराई छीनी है।। तुमने मेरा बचपन छीना...... मन ने तुमको स्वीकार किया तुमने तन पर अधिकार किया जिस मन से तुम्हे समर्पित हूँ क्या तुमने अंगीकार किया पूछो अपने दिल से किसने मेरी अंगड़ाई छीनी है।। तुमने मेरा बचपन छीना...... सुरेशसाहनी, कानपुर
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बनाकर इक बहाना छोड़ देना। फ़कीरों का घराना छोड़ देना।। जहां तुमको लगे तन्हाइयाँ है तुम उस महफ़िल में जाना छोड़ देना।। तराना छेड़ना जब आशिक़ी का मुहब्बत आजमाना छोड़ देना।। गुणनफल में विभाजित ही हुए हो न जुड़ना तो घटाना छोड़ देना।। दिया है तो लिया भी है मेरा दिल ये बातें दोहराना छोड़ देना।। तुम्हें किसने कहा है याद करना फ़क़त तुम याद आना छोड़ देना।।
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नागफनी के अंचल में हूँ। इंद्रप्रस्थ के जंगल में हूँ।। अश्वसेन ना बन बैठूं मैं खांडव के दावानल में हूँ।। पाकर प्रेम बरस जाऊंगा मैं बंजारे बादल में हूँ।। दिल के आईने में ढूंढो मैं नैनों के काजल में हूँ।। धड़कन में हूँ दिल के तेरे और नफ़स की हलचल में हूँ।। कौन निकल पाया है इससे हाँ माया के दलदल में हूँ।। तुम हो लाली उषाकाल की मैं अपने अस्ताचल में हूँ।। ओढ़ कफ़न ऐसा लगता है शायद तेरे आँचल में हूँ।। छोड़ो भी यह मिलना जुलना तुम अब में हो मैं कल में हूँ।।
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अब तक तो आज़ाद नहीं पर आज़ादी है सोच रहा हूँ बेशक़ बंडी फटी हुई है चाहूँ तो कल ही ले आऊं किन्तु पाँच दिन बिना चाय के बच्चों को कैसे बहलाऊँ और अभी वेतन आने में पूरे पंद्रह दिन बाकी हैं कितने काम ज़रूरी हैं पर कितने ही लेकिन बाकी हैं ऐसे में ख़ुद पर हर इक व्यय बरबादी है सोच रहा हूँ..... सोच रहा था इस वेतन में उसको साड़ी दिलवाऊंगा सोच रहा था अबकी उसको वृन्दावन भी ले आऊंगा पर बच्चों की भी ज़रूरते बस्ते कॉपी और किताबेँ दोनो की स्कूल ड्रेस भी अप्पर लोवर और जुराबें प्रभु ने मुझ पर ज़िम्मेदारी क्यों लादी है सोच रहा हूँ....... महँगाई बढ़ती है जैसे दिन दिन सुरसा मुंह फैलाये आवश्यकताएं घेरें घर मे आगे पीछे दाएं बाएं बाबू जी का चश्मा देखें या अम्मा की धोती लाएं सोच रहें हैं बजट बनें तो बाइक की सर्विस करवाएं किसे उलाहूँ कौन समय का अपराधी है सोच रहा हूँ....... सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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बन्ध और अनुबन्ध इन्ही शर्तों पर जीवन अपने हिस्से महज वेदना और समर्पण क्या उनका अपना कोई दायित्व नही है यही वेदना क्यों उनमे अपनत्व नही है? तुमने उनके लिए किया क्या?क्या बोलोगे किया धरा निर्मूल्य हुआ तब क्या बोलोगे तुम अपने प्रति कोई अपेक्षा क्यों करते हो अपना तुमको छोड़ गया तब क्या बोलोगे? खूब समर्पित रहो अंत में यह पाओगे अपनों को सब देकर खाली रह जाओगे बंधु बान्धव और यहां तक कि भार्या भी पूछेंगे क्या किया कहो क्या बतलाओगे? सुरेशसाहनी
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मृत्यु का आधार जीवन मृत्यु के उस पार जीवन मृत्यु भी स्वीकार कर लो है अगर स्वीकार जीवन वह अटल जीवन जिया था मृत्यु तो सबकी अटल है जिंदगी जीना कठिन है मृत्यु पथ फिर भी सरल है मृत्यु से तब भागना क्या मृत्यु है हर बार जीवन।। आदमी जब आदमी को ही घृणा से देखता है दूसरे की मृत्यु में अमरत्व अपनी देखता है सोचता हूँ क्यों नहीं दिखता उसे निःसार जीवन।। Suresh sahani kanpur
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कौन कौन सी कहें कहानी कौन कौन सी बात बतायें। झूठ बखाने सिर्फ़ जीत की या फिर सच की मात बतायें।। कब रह पाये सात जन्म तक साथ निभाने वाले बंधन कहाँ प्रेम अरु कहाँ सहजता हर रिश्ता जैसे अनुबन्धन क्या है जन्म जन्म का नाता किसको फेरे सात बतायें।। कैसे रिश्ते क्या मर्यादा टूट चुका है तानाबाना आज स्वार्थवश पुत्र पिता को कहने लगता है बेगाना वृद्धाश्रम में किसे वेदना बूढ़े पितु और मात बतायें।। कहाँ बचे अब गांवों में भी घर ऐसी आबादी वाले परनाना परनानी वाले परदादा परदादी वाले क्या अब गाकर अपनी पीड़ा बूढ़े पीड़ित गात बतायें।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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ख़ुद को खोकर तुमको पाया तुमको पाकर स्वत्व मिल गया। मैं मर मिटा भले ही तुम पर पर मुझको अमरत्व मिल गया।। तुमको पाकर भी खोना था तुमको खोकर ही पाना था यह अदृश्य विनिमय ही दिल के सौदे का ताना बाना था आधे काम अधूरी रति को पूर्णानन्द शिवत्व मिल गया।। खुद को खोकर तुमने अपनी नींद गंवाकर मुझे अंक भर सुला लिया जब मेरी आँखों में निहार कर मुझको दर्पण बना लिया जब बैरी जग भी मित्र लगे है तुमसे वह अपनत्व मिल गया।। खुद को खोकर
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हम भी ख़ुद को कहाँ कहाँ ढूंढ़ें। राख खोजें कि हम धुआँ ढूंढें।। धूल उड़ कर जमीं पे आनी है हम किसे जाके आसमाँ ढूंढ़ें।। ग़र ख़ुदा हैं कहीं तो हम में है उसको अपने ही दरमियाँ ढूंढ़ें।। आशना कौन था यहाँ हमसे किसको जाकर यहाँ वहाँ ढूंढ़ें।। जब कि तन्हा सफ़र मुनक़्क़िद है क्या पड़ी है कि कारवाँ ढूंढ़ें।। जिस्म का जब मकान था तो था अब कहाँ जाके आशियाँ ढूंढ़ें।। अब न आएंगे साहनी मिलने उनको बेशक़ फलां फलां ढूंढ़ें।। सुरेश साहनी, अदीब कानपुर 9451545132
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इतना घना अँधेरा क्यों है। बादल स्याह घनेरा क्यों है।। क्यों हँसता है झूठ ठठाकर सच को सबने घेरा क्यों है।। रात समेटे ख़ुद को कैसे इतनी दूर सवेरा क्यों हैं।। तहजीबें ग़ुम हैं हम वाली ये मेरा और तेरा क्यों है।। बच्चों की किलकारी गुम है भय का आज बसेरा क्यों है।। लोकतंत्र में कदम कदम पर राजाओं का डेरा क्यों है।। #सुरेशसाहनी
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इश्क़ को जिस्म की ज़रूरत क्या। हुस्न इतना है खूबसूरत क्या।। रूह का हुस्न है क़यामत तक जिस्म रहता है ताक़यामत क्या।। वस्ले रूहों में जो मसर्रत है जिस्म देता है वो मसर्रत क्या।। पहले हिर्स-ओ-हवस किनारे रख तब तो जानेगा है मुहब्बत क्या।। उम्र भर रूठता रहा मुझसे काश कहता कि थी शिकायत क्या।। चार दिन ज़िन्दगी तो दी उसने और करता कोई मुरौवत क्या।। आदमी को न आदमी समझूँ मुझमें आएगी ये महारत क्या।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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आपके मुंह में पान है बाबू। खूब शीरी ज़ुबान है बाबू।। हम को इतना तो ज्ञान है बाबू। हम जो चुप हैं तो जान है बाबू।। आपको वक़्त ही बताएगा वक़्त हमसे महान है बाबू।। बात ये आसमाँ समझता है अपनी कितनी उड़ान है बाबू।। अब मशीनें ही बोल पाती हैं आदमी बेज़ुबान है बाबू।। अपनी औकात और क्या होगी आप ही की कमान है बाबू।। जीते जी मैं भले न ले पाया अब तो दो गज़ मकान है बाबू।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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क्यों कहें हम प्यार तुमसे था कभी हम क्यों कहें। क्यों गहें उस राह जब चलना नहीं कर क्यों गहें।। वो लड़कपन की कहीं बातें गयीं चाँद तारों से भरी रातें गयीं खेल गुड्डे और गुड़ियों के गए बेवजह खुशियों की बारातें गयीं क्यों बहें जब रसभरी घड़ियाँ बहीं हम क्यों बहें।। उस समय रिश्ते तो थे बेनाम थे सिर्फ पढ़ना खेलना ही काम थे निष्कपट थी तब हमारी ज़िन्दगी और तब सम्बन्ध भी निष्काम थे जब कि विधिसम्मत नहीं इस बन्ध में हम क्यों रहें।। और फिर अनुबन्ध कैसे तोड़ दें ईश्वरीय सम्बन्ध कैसे तोड़ दें सात फेरे अग्नि साक्षी मानकर हम बंधे जिस बन्ध कैसे तोड़ दें क्यों ढहे अपने ही हाथों जिंदगी, हम क्यों ढहें।। प्रेम पाना है तो खोना सीख लें दूसरों हित होम होना सीख लें मार्ग अपयश का पतन का त्याग कर सिर्फ मन का मैल धोना सीख लें क्यों सहें आलोचनाएं हर किसी की क्यों सहें।।
सदमे
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अभी सदमे से मैं उबरा नही हूँ। ये हैरत है कि मैं टूटा नही हूँ।। किसी झोंके से मैं पाला बदल लूँ कोई टूटा हुआ पत्ता नही हूँ।। हमें मालूम है वह जा चुका है समझता हूँ कोई बच्चा नही हूँ।। सहारा दोस्तों को दे न पाऊं अभी इतना गया गुज़रा नही हूँ।। उसी ने साथ छोड़ा है हमारा मैं अपनी बात से बदला नही हूँ।। अभी कुछ रोज मन भारी रहेगा अभी जी भर के मैं रोया नही हूँ।। अभी से कीमतें लगने लगी हैं अभी बाज़ार में पहुँचा नही हूँ।। #सुरेशसाहनी
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हुस्न इतना भी दागदार न कर। इससे बेहतर है प्यार वार न कर।। फ़ितरतन इश्क़ जान देगा ही तुझको जीना है जाँनिसार न कर।। इश्क़ और मुश्क कब छुपे हैं पर कम से कम ख़त तो इश्तेहार न कर।। इश्क़ इतना भी ताबदार नहीं यूँ अयाँ हो के बेक़रार न कर।। दिल के बदले में दिल ज़रुरी है दिल के मसले में तो उधार न कर।। क्या गए वक़्त से मुतास्सिर है वो न आएगा इन्तिज़ार न कर।। जब तू बाज़ार में नुमाया है दफ़्तरे-दिल तो तारतार न कर।। सुरेश साहनी, कानपुर
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कीजिए स्वदेश प्रेम जन्म कुल संवारिए। आज मातु भारती की आरती उतारिए।। राष्ट्र देव राष्ट्र बंधु राष्ट्र सत्य मित्र है सच कहें तो राष्ट्र जन्मभूमि का चरित्र है राष्ट्र के लिए सभी निजी हितों को वारिए।। मातु पर पड़े कोई कुदृष्टि फोड़ दीजिए हाथ शत्रु के बढ़े तुरंत तोड़ दीजिए भारती के पांव शत्रु रक्त से पखारिए।। भरत के वंशजों को ये श्रृगाल क्या डराएंगे वे हुआ हुआ करेंगे और भाग जायेंगे वज्र अंग अग्निवीर नाम तो पुकारिए।। दीन हीन देश के कभी किसी से मत डरें राष्ट्र के लिए जिएं राष्ट्र के लिए मरें सब गले मिलेंगे आप बांह तो पसारिए।। शत्रु देश सुन लें भूल भूल से भी मत करें शूल शूल है प्रहार फूल से भी मत करें दुष्चरित्र हैं तो अब चरित्र को सुधारिए।। राम जो हुए कुपित कोई बचा न पाएगा चीन रूस क्या यहां अमेरिका न आएगा ख़ुदा से खैर मांगिए न सत्य को नकारिए।।
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मैं अपने वक्त से कोई गिला शिकवा नहीं करता। मगर मैं टूटते रिश्तों को भी बाँधा नही करता।। मैं एक उम्मीद हरदम साथ लेकर के तो चलता हूँ मगर झूठी बिना पर कोई भी दावा नही करता।। जो खुद कुछ भी नही करते उन्ही को फ़िक्र ज्यादा है कोई ऐसा नही करता कोई वैसा नहीं करता।। ख़ुदा ने इस जहाँ में मोमिनो-काफ़िर बनाये हैं बड़ी हैरत है क्यों दुनिया को वो यकसा नही करता।। कोई काबे को जाता है कोई काशी को जाता है कोई पूजा नहीं करता कोई सजदा नही करता।। सुरेश साहनी
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कोई पागल क्यों डरेगा। जो मरेगा सो मरेगा ।। मन हरा है अंग धानी ख़्वाब पूरे आसमानी प्यार की ऐसी कहानी एक पागल ही लिखेगा।। सूर्य जैसी लालिमा दे रात शीतल चंद्रमा दे हर दशा में मन रमा दे कोई पागल ही मिलेगा।। ध्यान स्थिर चाल चंचल देह बेसुध मन में हलचल फर्क क्या कल आज या कल क्यों डरेगा क्या मरेगा।। तुम डरो घर टूटता है धन लुटेरा लूटता है सन्त का क्या छूटता है वो किधर भी चल पड़ेगा।। मृत्यु भी जीवन सफर है वीरता मरकर अमर है मृत्यु का कारण ही डर है जो डरेगा सो मरेगा।।
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कभी कभी लीक से हटकर लिखने की इच्छा होती है कभी पुराने ढर्रे पर ही चलते रहना भला लगे है।। कभी कभी उन्मुक्त गगन में उड़ने की कोशिश करता हूँ और कभी उसकी बाहों में बंध कर रहना भला लगे है।। इस उधेड़बुन में जीवन के कितने नाते टूटे उधड़े जाने कितनी आसें टूटी जाने कितने सपने उजड़े कभी कभी तुमसे भी छुपकर जीने की इच्छा होती है और कभी तेरी बाहों में मर जाना भी भला लगे है।।
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बचपन में औरों के जैसे मैंने भी तितली देखी है उड़ती हुई मदार की रुई- को बुढ़िया के बाल नाम से मैंने उछल उछल पकड़ा है मैंने गौरैया की ख़ातिर गत्तों के घर भी रखे थे उसमें दाने, रोटी पानी और न जाने क्या क्या रखकर अम्मा की डांटे खाई हैं मैंने भी बादल देखे हैं दूर किनारे आसमान के छोर पकड़ कर चढ़ने वाले बादल के पीछे सूरज को उसी तरह छुपते देखा है जैसे मैँ अम्मा के पीछे कुछ असफल सा छुप जाता था वे बादल भी अलग अलग से रंग बदल कर यूँ दिखते थे जैसे नए दौर के मानुष काले भूरे उजले धूसर कभी कभी ललछउहे जैसे भउजी शरमाकर दिखती थी अभी ट्रेन में बैठे बैठे आसमान ही ताक रहा हूँ और उधर खिड़की के बाहर सब कुछ पीछे छूट रहा है जैसे जाने कितने रिश्ते नाते छूटे फिर लापता हो गए जैसे बचपन मे बादल को देख देख उपजी कविताएं उपजी फिर लापता हो गईं बादल तो अब भी दिखते हैं लेकिन मेरा बचपन गुम है बचपन का भोलापन गुम है जिनसे कविताएं बन पातीं....
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बचपन में तितली,फूल,पेड़,पौधे, बादल, सूरज,चाँद, तारे आसमान या पंछी देखकर गुड्डे गुड़िया परियां बौने और राक्षस की कहानियां सुनकर प्रतिपल कविता जैसी भावनाएं उपजती और विलीन होती थीं बिल्कुल उसी तरह जैसे बारिश में बुलबुले बनते और फूटते रहते हैं बाबा, दादी,अम्मा बाबूजी और कवितायें सब विलुप्त हो गए तब सहेजना नहीं आता था अब जानते हैं सहेजना भी दुनिया के गुणा भाग भी पर अब वह निश्छलता नहीं जिससे कविता उपजती थी
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सिर्फ़ उस दिन निज़ाम बदलेगा। जब तू तौरे- कलाम बदलेगा।। सिर्फ़ क़िरदार के बदलने से क्या ये किस्सा तमाम बदलेगा।। सूरते हाल तो बदल न सका सिर्फ़ शहरों के नाम बदलेगा।। नेमतें मिल रही है ख़ासों को और कहता है आम बदलेगा।। खेत खलिहान छीनकर यारों वो किसानों के गाम बदलेगा।। तंत्र मजदूर के किसानों के छीनकर काम दाम बदलेगा।। जब भी बदलेगा मुल्क की किस्मत मुल्क का ही अवाम बदलेगा।। हाल फिलहाल क्या कहें यारों जो भी बदलेगा राम बदलेगा।। सुरेश साहनी, कानपुर
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सुबह गये तो शाम शज़र को लौटेंगे। पंछी आख़िर औऱ किधर को लौटेंगे।। वे नाहक़ मयखाने में रुक जाते हैं मयखाने से भी जब घर को लौटेंगे।। श्मशानों के द्वार खुले यह कहते हैं बारी बारी लोग इधर को लौटेंगे।। नींद हमारी वक़्त के हाथों बन्धक है क्या मुँह लेकर हम बिस्तर को लौटेंगे।। जाएंगे तो दो दिन को परदेश मगर लौटेंगे तो जीवन भर को लौटेंगे।। क्या फुलवा वैसे ही राह निहारेगी जब अपने टोले टब्बर को लौटेंगे।। सुरेश साहनी, कानपुर
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किस तरह तुम उभय पक्ष साधे रहे। इस तरफ उस तरफ आधे आधे रहे।। तुमसे अच्छे रहे अर्ध नारीश्वर तुम न मीरा बने तुम न राधे रहे।। तुम मदारी हुए फिर भी पुतली रहे किसके कहने पे बस कूदे फांदे रहे।। तुममे काबिलियत है कोई शक नही झूठ कह कह के मजमे तो बांधे रहे।। एक अंगुली पे गिरधर उठाया किये इक तरफ कालिया नाग नाधे रहे।। हम निरे भक्त के भक्त ही रह गए जो कि तुझ से छली को अराधे रहे।। सुरेश साहनी, कानपुर ग़ज़ल
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कितनी नफरत ज़ेहन में रखते हो। ख़ुद को दौरे-कुहन में रखते हो।। घर ही अपना जला न बैठो तुम रिश्ते शक़ के दहन में रखते हो।। क्या ज़माना है अपने वालिद को घर से बाहर सहन में रखते हो।। हो लिबासों पे इतने माइल क्या- रूह भी पैरहन में रखते हो।। इतनी शीरी ज़ुबान है फिर भी कितनी तल्ख़ी कहन में रखते हो।। 1.ज़ेहन/मष्तिष्क, 2. दौरे-कुहन/पुराने समयकाल 3.दहन/ मुख, 4.सहन/दालान,5.माइल/आसक्त, 6.पैरहन/वस्त्र, 7.शीरी/मीठी 8.तल्ख़ी/कड़वाहट सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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यही काम तो हर कोई करता है श्रीमान। फिर क्यों निंदा एक कि दूजे का गुणगान।। साथ आपके आ गया तुरत हो गया सन्त। साथ छोड़ जाते कहा डाकू उसे तुरंत।। सत्ता के सापेक्ष है ई डी का व्यवहार। एक जगह बन ही गयी ईडी की सरकार।। साथ मलाई चाटते मिलकर पक्ष विपक्ष। कह सुरेश कलिकाल में जनता ही प्रतिपक्ष।। मौसम की हर चाल को नेता लेता भाँप। नेता से पीछे सभी गिरगिट हो या साँप।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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जीवन को उपहार लिखो कवि जितना हो श्रृंगार लिखो कवि किन्तु देश जब संकट में हो तब केवल ललकार लिखों कवि बेशक़ सब कुछ प्यार लिखो कवि जीत हृदय की हार लिखो कवि पर जब बात देश की आये तन मन उस पर वार लिखो कवि प्रेयसि से मनुहार लिखो कवि मधुपुरित अभिसार लिखो कवि पर जब सीमा पर संकट हो बम बम का उच्चार लिखो कवि तोड़ कलम तलवार गहो कवि प्रलयंकर अवतार गहो कवि मधुर मिलन के गीत न गाकर शब्दों में हुँकार लिखो कवि।। साहनी
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(मेरी इस व्यंग्य रचना पर आशीर्वाद दें) कल नारी कमजोर थी आज एकता (कपूर)का जमाना है अब ये अलग बात है कि यह तर्क है या फिर बहाना है सीता के बनवास से आधुनिक नारियों को सन्देश मिला है कि तीन सासू माँओं के साथ रहने से तो जंगल ही भला है।। एक पंडित जी ने बताया अरे बेटा! तुम्हे कुछ पता हैं? ये जो बुद्धू बक्से की स्मृति श्वेता या एकता हैं, न तो ये देवी हैं नाही ये अप्सरा हैं अरे ये सब तो त्रेतायुग की ताडिका हैं, त्रिजटा हैं मंथरा हैं। और अब ये मत सोचो कि ये सिर्फ जंगल में अथवा दशरथ के अंतःपुर में हैं अब तो इनकी पहुँच भारत के हर घर में है हर घर में हैं। (copyright एक्ट के अंतर्गत सर्वाधिकार सुरक्षित)
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कुल भयवा पगलाईल बाड़े आपस में अझुराईल बाड़े भाषा प्रान्त और जाति धरम में कुल्हि जनां भरमायिल बाड़े एक दुसरे से नफरत कईके सबकर जीयल आफत कई के भाईचारा बतियावेलन झगड़ा कई के झंझट कई के अईसन शकुनी माहिल बाड़े....आपस में वादा उप्पर वादा कईलस जनता उनकर झोली भरलस लेकिन जीत गइल त उहे जनता के बन्ने भुलववलस अब जनता बउराईल .बाड़े...आपस में
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चलो न यूँ करें हम तुम यहीं से लौट चलें सफर से तुम भी थक चुके हो हम भी आज़िज़ है तुम्हारी राह कई देखते हैं हसरत से न जाने कितने सहारे बड़ी मुहब्बत से मैं क्यों कहूँ तुम्हे चाहा है हमने शिद्दत से नहीं है प्यार तो कोई सफर है बेमानी अगर न दिल मिले तो हमसफ़र है बेमानी वो रौनकें-फ़िज़ां-ओ-रहगुज़र है बेमानी चलो कि मुड़ चलें राहों में शाम से पहले चलो कि तुमको नया हमसफ़र तो मिल जाये चलो कि हम भी कोई ग़मगुशार तो पा लें कि मयकदा हमें और तुमको घर तो मिल जाये सफ़र से तुम भी थक गये हो हम भी आज़िज़ हैं......
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भीगा पड़ा शहर सावन है। और टपकता घर सावन है।। अड़चन लिए सफर सावन है कीचड़ भरी डगर सावन है।। झोपड़ियों में जाकर देखो टूट चुका छप्पर सावन है।। कहीं बाढ़ में बह ना जाये गांव गली का डर सावन है।। ठहर गयी है रोजी रोटी ऐसी दिक़्क़त भर सावन है।। राशन पानी खत्म मजूरी हम पर एक कहर सावन है।। कहने वाले कह देते हैं शिव बमबम हरहर सावन है।। हम ऐसा भी कह सकते हैं रोगों का दफ्तर सावन है।। आप भले माने ना माने ऐसे ही मंज़र सावन है।। कैसे माने कैसे कह दें फागुन से बेहतर सावन है।।
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आज की ग़ज़ल समाअत फरमायें।--- गर्दिशों की उठावनी कर दे। खत्म ग़रीब- उल- वतनी कर दे।। उनके हिस्से में चाँद तारे रख कुछ इधर भी तो रोशनी कर दे।। बेहतर है फ़कीर रख मुझको हाँ मुझे बात का धनी कर दे।। ज़िस्म जैसा है ठीक है फिर भी मेरी अर्थी बनी ठनी कर दे।। दिन किसी भी तरह गुज़ार लिया शाम कुछ तो सुहावनी कर दे।। धूप से कब तलक तपायेगा मुझको इतना न कुन्दनी कर दे।। सुरेश साहनी
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कोई खुशबू में ढाला जा रहा है। कोई कांटों में पाला जा रहा है।। कमी है जबकि तेरे मयकदे में समन्दर क्यों खंगाला जा रहा है।। हलाहल शौक से मुझको पिला दो अगर अमृत निकाला जा रहा है।। यक़ीनन देश की जनता ही होगी जिसे वादों पे टाला जा रहा है ।। कोई ज़रदार भूखा रह गया क्या गरीबों का निवाला जा रहा है।। मुसलसल हो रहे हैं जब चिरागां किधर आख़िर उजाला जा रहा है।। जनाजा देखकर अगियार बोले वो देखो इश्क़ वाला जा रहा है।। सुराख होना है इक दिन आसमां में अभी पत्थर उछाला जा रहा है।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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रिश्ते नहीं बवाल हो गए। झोले झल्ली झाल हो गए।। बाबू का चश्मा क्या टूटा बेटे पीले लाल हो गये।। बच्चे बोझ समझ बैठे थे बूढ़े दिल कंकाल हो गए।। बहुएं खुश हैं बुड्ढे टपके बेटे मालामाल हो गए।। मां भी तन्हा कब तक जीती पूरे अस्सी साल हो गए।। राम महज़ आदर्श रह गए सरवन सिर्फ मिसाल हो गए।। डॉलर कमा कमा कर बेटे दिल से क्यों कंगाल हो गए।। Suresh sahani kanpur
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हमारी ख्वाहिशें कमतर नहीं हैं। हम उड़ना चाहते हैं पर नहीं हैं।। तू अपने घर रुके फुरसत नहीं है हमारे पास अपने घर नहीं हैं।। तेरी बर्बादियों पर जश्न करते हमारे दिल मगर पत्थर नहीं हैं।। तुम्हारी फ़ितरतें हैं बेवफ़ाई हमारे हाथ में खंज़र नहीं हैं।। बहुत दिन से तुम्हें देखा नही है बहुत दिन से भले मंज़र नहीं हैं।। #सुरेशसाहनी
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आरज़ू करती रही गुंजाइशें। ज़िन्दगी करती रही अज़माइशें।। लुत्फ़ उनकी ख़िदमतों में मर गया और वो करती रही फरमाईशें ।। जो न आदम कर सका था चाहकर काम वो करती रहीं पैदाईशें ।। आख़िरी दम तक रहें हम मुन्तज़िर दम ब दम बढ़ती रही है ख्वाहिशें।। लब तलक आकर भी तिश्ना लब रहे मयकदे तक आ गयी हैं साजिशें।। बेक़रारी ने कहाँ देखीं हदें आप भी अब तोड़ दीजै बंदिशें।। मेरी मन्ज़िल कब हमें मालूम थी इस जगह लायी समय की लग्जिशें।। सुरेशसाहनी कानपुर
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जिंदगी मुख़्तसर नही होती। आदमी से बसर नही होती।। मरते दम तक जवान रहती हैं हसरतों की उमर नही होती।। मौत सबकी खबर तो लेती हैं मौत की कुछ ख़बर नही होती।। ख्वाहिशें बेसबर तो होती हैं हासिलत बेसबर नही होती।। हो सके तो किसी से मत लेना बददुआ बेअसर नही होती।। हमने कितनों को कहते देखा है ज़िन्दगी अब गुजर नही होती।। तू भी कितने सवाल करता है इक ज़रा सी सबर नही होती।। जन्नतों से हमें उम्मीद नही रहती दुनिया में गर नही होती।। Suresh Sahani kanpur
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हमें आदमी नहीं ज़मीन की ज़रूरत है तुम्हें मालूम है नौ आदिवासी ज़मीन से कीमती नहीं थे पहली बात तो हर आदमी आदमी नहीं होता उनके हिन्दू होने पर भी सवाल है और सवाल सवाल ही रहता है दरअसल तुम जिन्हें सवाल कहते हो वे तुम्हारे द्रोह के स्वर हैं किन्तु सवाल वे हैं जो नाज़िल होते हैं दरअसल वे सवाल नहीं हुक्म हैं जैसे तुम आदिवासी हो नागरिकता तुम्हारे अस्तित्व पर भद्दा सवाल है।
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मैंने सोचा था दान मांगेगा। क्या पता था कि जान मांगेगा।। मांगता तीर हँस के दे देता पर वो शातिर कमान मांगेगा।। बशर दो गज़ ज़मीन में खुश है किसने बोला मकान मांगेगा।। चोट दिल की कहाँ से दिखलाये यार मेरा निशान मांगेगा।। काट देगा मेरे परों को जब तब वो मुझसे उड़ान मांगेगा।। एक सोने का पींजरा देकर वो मेरा आसमान मांगेगा।। कुछ न देगा सिवाय बातों के और घर खेत खान मांगेगा।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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क्या ग़लत था भला सही क्या था। आज से पहले आदमी क्या था।। कल से पहले न थी मेरी हस्ती कल से पहले मेरा वली क्या था।। जबकि नज़रें मिली ही थी अपनी दिल मिलाने में हर्ज़ ही क्या था।। आप से दिल की बात कहने में लाज़िमी ग़ैर लाज़िमी क्या था।। चोट मुझको था दर्द था उसको हाथ कंगन को आरसी क्या था।। आज तक मैं न खुद को जान सका क्या बताता कि साहनी क्या था।। सुरेश साहनी, कानपुर
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ये नंग वो धड़ंग हैं मालूम ही न था। दुनिया के इतने रंग हैं मालूम ही न था। है कोफ्त उससे मांग के मायूस जो हुए मौला के हाथ तंग है मालूम ही न था। दौलतकदो से यूं न मुतास्सिर हुए कभी फितरत से हम मलंग हैं मालूम ही न था।। है डोर उस के हाथ सुना था बहुत मगर जीवन भी इक पतंग है मालूम ही न था।। ये छल फरेबो गम ये ज़हां भर की जहमतें सब आशिकी के अंग हैं मालूम ही न था।। सुरेश साहनी कानपुर
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छोड़िये खालिको-खलक की बात। पहले करिये हमारे हक की बात।। जब जमीं ही नहीं सलामत है क्या करे आसमां तलक की बात।। तू भले मन की बात करता है झूठ निकली है आजतक की बात।। तेरा जलवा भी क्या कयामत है चार सूं है तेरी झलक की बात।। होश बाकी रहे तो बात करे तेरी उठती हुयी पलक की बात।। मेरी उम्मत को जाननी होगी हर सियासी उठापटक की बात।। साथ के लोग अब न बहकेंगे जानते हैं तेरे हलक की बात।। जिनको अपनी जमीं का इल्म नहीं हैफ वो करते हैं फलक की बात।।
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बताओ तो शिकायत कौन से लहजे में की जाये। ये गुस्ताखी यकायक या कि फिर हिज्जे में की जाये।। मेरे सच बोलने से गर तुम्हारी शान घटती है तो बतलाओ ये कोशिश कौन से दरजे में की जाये।। हमारे देश के हालात बिगड़े हैं तो बतलाओ मरम्मत कौन से हिस्से में किस पुर्जे में की जाये।। अज़ल से हश्र तक कोशिश में है मयनोश और वाईज़ अगर जन्नत हैं तो फिर किस तरह कब्ज़े में की जाये।। रहमदिल है ख़ुदा सारे गुनाह जब माफ़ करता है तो बेहतर है की तौबा आखिरी रोज़े में की जाये।। सुरेश साहनी,कानपुर
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हे गौरी के लाल शरण हम तुम्हरी आये हैं। देवों के भूपाल...... शिव चिंतन से उपजे हो प्रभु हर उबटन से उपजे हो प्रभु त्रिपुरासुर के भय से कम्पित जन वंदन से उपजे हो प्रभु हो दुष्टों के काल......... देवों सन्त जनों के त्राता रिद्धि सिद्धि ऐश्वर्य प्रदाता प्रथम देव हो सब देवों में मोदक प्रिय मुद मंगल दाता हे बल बुद्धि विशाल .......... वक्रतुंड तन गिरि सम धारा सूर्य कोटि सम रूप तुम्हारा विघ्न रहित हो कारज मेरे सदा सुमङ्गल जीवन सारा गजमुख उन्नत भाल......
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मुहब्बत तिश्नगी का नाम है क्या? हमारा हुस्न कोई ज़ाम है क्या? गली में मेरी मिलते हो हमेशा सही कहना तुम्हें कुछ काम है क्या? ये जो तुम इश्क़ बोले हो हवस को इसी से आशिक़ी बदनाम है क्या? चले आये हो मक़तल में भटककर पता है इश्क़ का अंजाम है क्या? कि हमने जान देके दिल लिया था बतायें क्या कि दिल का दाम है क्या? यहाँ दिन रात हम खोए हैं तुममे सुबह क्या है हमारी शाम है क्या? सलीबो-दार ओ जिंदानों-मक़तल सिवा इनके कोई ईनाम है क्या?..... सुरेश साहनी, कानपुर
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दिल को जो भी लोग यगाने लगते हैं। अक्सर वो ही लोग भुलाने लगते हैं।। ज़ख़्म जिगर के भरना मुश्किल है कितना कम होने में दर्द ज़माने लगते हैं।। नींद वहीं गायब हो जाती है अक्सर जब ख़्वाबों में उनको पाने लगते हैं।। राज अयाँ हो जाते हैं वो शह करके अक्सर जिनको लोग छुपाने लगते हैं।। इश्क़ वहाँ लगती है इक नेमत लगने जब ज़ख्मों को लोग सजाने लगते हैं।। सुरेश साहनी
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कभी दावा नही करता मैं शायर हूँ नही भी हूँ।। मेरा होना न होना है मैं हाज़िर हूँ नहीं भी हूँ।। मेरे अंदर के इन्सां के मैं मिट जाने से डरता हूँ बिलाहक झूठ क्यों बोलूं मैं कायर हूँ,नहीं भी हूँ।। मुझे चलते ही जाना है या तुर्बत ही ठिकाना है मैं इन अनजान राहों का मुसाफ़िर हूँ नही भी हूँ।। बनाया तुझको होने ने मिटाया मुझको होने ने तू होकर भी नही दिखता मैं ज़ाहिर हूँ नही भी हूँ।।
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पंडित नेहरू बड़े स्वार्थी इंसान थे। इसीलिए उन्होंने सत्ता को विकेन्द्रित किया। उनसे बाबा साहेब नाराज नहीं रहे,लेकिन बाबा साहेब के अनुयायी नाराज रहते हैं।शहीदे आज़म सरदार भगत सिंह ने उन्हें एक व्यापक सोच और दूरदृष्टि वाला इंसान बताया था। जब भारत आज़ाद हुआ तब देश का खजाना खाली था।वैसे इस आर्थिक संकट से ब्रिटिश सरकार और ब्रिटिश इंडिया सरकार दोनों जूझ रही थी। उन्होंने इसी कारण भारत को आज़ाद करके अपना पीछा छुड़ाया। ऐसे में प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू जी ने देश की बागडोर सम्हाली।सरदार पटेल को देश की आन्तरिक मामलों का मंत्री बनाया। बाबा साहेब को न्याय व्यवस्था थी।इसी प्रकार सबकी योग्यतानुसार जिम्मेदारियां सौपी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व दो ध्रुवोय हो चुका था।ऐसे कठिन दौर में विश्व को गुट निरपेक्ष मंच देना शायद उनकी मूर्खता रही होगी। वे जानते थे कि देश के विकास के लिए आधारभूत जरूरतों के मामले आत्मनिर्भर होना जरूरी है। देश में पैसा नहीं होने के चलते उन्होंने विदेशी सहयोग से भारी उद्योग धंधे लगवाए ।देश में बेरोजगारी कम करने के लिए विकल्प खोजे। उनके कारण देश में आज लगभग तीस क...
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मेरी ग़ज़लें बहर से बाहर हैं। मेरी नज़्में असर से बाहर हैं।। कब तलक उनको याद में रखें जो हमारी नज़र से बाहर हैं।। ये सियासत है आपकी मंज़िल और हम इस सफ़र से बाहर हैं।। हम भी थे हक़ के रहनुमाओं में अब हुकूमत के डर से बाहर हैं।। जाने किसके ख़याल में हैं गुम घर में होके भी घर से बाहर हैं।। हम गये वक्त के सितारे हैं आज़कल हर ख़बर से बाहर हैं।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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आजु सावन खतम होत बा। सावन तीज तेवहार के महीना मानल जाला।हमन पंचई के दिने दालभरल रोटी , आलू चना के सब्जी आ खीर खात रहुँवी। बड़ लईके पतंग उड़ावत रहलें।आ छोटवार कुल गुड़िया पीटे जात रहलें।सावन में लईकी लोग आपन कुल खेल खेलौना नदी नारा के तीरे परवाह करत रहली।आ छोट लईका लोग ओके छोट लाठी चाहे डाटी से पीट पीट के पानी में बीग देत रहलन।एकर मूल भावना इहे रहे कि लईकिन के ई एहसास हो जा कि अब ऊ बड़ हो गईल बाड़ी आ ओ लोगन के माया मोह गुड्डागुड़िया आ नैहरे से कम हो जा।ई एक तरह के मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया आ उपचार के तरीका रहुवे। आ छोट लईकन के जनावल जात रहे कि सांप भा नाग कईसन होलें आ उनहन से कईसन बरताव करे के चाही। बेटी बहिन एह ऋतू में नैहरे आ जात रहुवीं। कुल मिला के भाई बहन के त्यौहार रक्षा बंधन मना के भेंट घाट कS के सावन के समापन होत रहुवे।अब ते सांस्कृतिक फ्यूज़न के ज़माना बा।पिज्जा बरगर आ फिरेंड खोजल जात बावे।
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हमारे बचपन में हमें ज्यादा सामाजिक जानकारियां नहीं थी।लेकिन इतना भलीभांति स्मरण है कि हमारे गांव नारायणपुर का घाट हमारे परिवार के नियंत्रण में था।घाट पर हमारे पास छोटी ,मध्यम और बड़ी कुल छह नावें थीं।शेष बाजार आदि जाने के लिए एक लढ़िया (बैलगाड़ी ) और एक टायर वाली लढ़िया भी थी।बड़ी नावों का उपयोग बाहर के जिलों से माल आदि लाने ले जाने में होता था। बाढ़ के दिनों में उसकी उपयोगिता बढ़ जाती थी। दोनों पार के गांवों से फसल कटाई पर पर्याप्त मात्रा में अनाज मिल जाता था।जो कि बहुधा सम्पन्न किसानों के कुल उत्पादन जैसा ही होता था।उस समय रंगून से चावल कलकत्ता के रास्ते बनारस आता था।बनारस से नावों के जरिये स्थानीय बाज़ारों तक पहुंचाया जाता था। रंगुनिहा चावल और मीठे पानी की झींगा मछली उस समय महंगा भोजन माना जाता था। आस पास के तहसीलों में हमारे परिवार की ठीकठाक प्रतिष्ठा थी। वैसे उस समय नदियों में प्रदूषण न के बराबर होता था।लगभग हर मल्लाह नदी तालाबों से पर्याप्त कमा खा लेता था। लेकिन यही आगे चलकर समाज के लिए घातक भी हुआ । रोजगार और भोजन की सुनिश्चितता समाज को शिक्...
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मैं हाथ मे गुलाब लिये सोचता रहा। आंखों में तेरे ख़्वाब लिए सोचता रहा।। तुमने बड़े सवाल किये और उठ लिए मैं मुख़्तसर जवाब लिए सोचता रहा।। प्याले थे आरिज़ों के मेरे सामने मगर शीशे में मैँ शराब लिए सोचता रहा।। अंजामे-वस्ल लुत्फ़ का कातिल न हो कहीं मैँ कैफ़-ए-इज़्तिराब लिए सोचता रहा।। वो बरहना मिज़ाज़ लिए नाचते रहे मैँ हाथ में नक़ाब लिए सोचता रहा।। सुरेशसाहनी कानपुर मुख़्तसर/संक्षिप्त आरिज़/होठ अंजामे-वस्ल/संसर्ग का परिणाम लुत्फ़/आनन्द कैफ़-ए-इज़्तिराब /धैर्य का आनन्द बरहना मिज़ाज़/ नंगापन
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लग रहा है इस शहर में आज था कुछ हाँ अभी दो चार गज़लें कुछ परीशां सी दिखी हैं एक ने तो एक होटल से निकल कर उड़ रही काली घटाओं में उलझती कुछ निगाहों के सवालों को झटक कर बोझ सा अपने सरों पर बाँध कर कुछ पर्स में रखने के जैसा रख लिया है छन्द जैसा रोब रखते चंद मुक्तक कुछ पुरानी शक्ल के दोहे निकलकर जो बिगड़कर सोरठा से हो चुके हैं नए गीतों को कहन समझा रहे हैं उस ज़माने की कहानी जिनको शायद आज अगणित झुर्रियों ने ढक लिया है और अब उन हुस्न के ध्वंसावशेषों की- कथाओं को नए परिवेश में फिर से सुनाकर सोचते हैं ग़ज़ल उन पर रीझकर के ढूंढ़कर फिर सौप देगी कल के उजले और काले कारनामे जो कि अब अस्तित्व अपना खो चुके हैं कल शहर फिर कुछ करेगा.... सुरेश साहनी ,कानपुर
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इस कड़ी सी धूप में इक शामियाना चाहिये। हाँ तुम्हारे साथ बस इक पल सुहाना चाहिए।। चार दिन की ज़िंदगी है एक लंबा सा सफ़र साथ कोई हमसफ़र जाना अज़ाना चाहिये।। अपने पहलू में बिठा कर गेसुओं की छाँव दो उम्र भर किसने कहा दिल मे ठिकाना चाहिए।। और फिर शहरे-ख़मोशा तक चलें किसने कहा उठ के उनको दो कदम तो साथ आना चाहिये।। आपके इनकार की कोई वजह शक या शुबह किसलिये हैं दूरियाँ कुछ तो बताना चाहिए।। लोग देखे हैं, कोई आ जायेगा ,जल्दी में हैं हमसे बचने के लिये कुछ तो बहाना चाहिए।। नाज या नखरे,दिखाना हुस्न का हक़ है मगर इश्क़ जब मरने पे आये मान जाना चाहिए।। सुरेश साहनी, कानपुर
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महका महका मेरा आँगन रहता है। तुम से ही घर गोया गुलशन रहता है।। रातें रजनीगंधा सी महकाती हो दिन भर सारा घर चंदन वन रहता है।। चाँद नहीं आता है कोई बात नहीं मेरा घर तो तुमसे रोशन रहता है।। जिस घर पूजी जाती है प्रातः तुलसी वो घर मंदिर जैसा पावन रहता है।। एक तुम्हारे होने से मेरे घर मे नियमित पूजन अर्चन वंदन रहता है।। तुम कहती हो आप का घर अपने घर को हाँ यह सुनने को मेरा मन रहता है।। मेरा होना है घर का गोकुल होना तुम रहती हो तो वृंदावन रहता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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अभी दुनिया कसैली हो गयी है। हवाएं भी विषैली हो गयी है।। कहूँ कैसे बदन-शफ्फ़ाक़ हूँ मैं नज़र उसकी जो मैली हो गयी है।। जवानी में जो महफ़िल लूटती थी वो अब कितनी अकेली हो गयी है।। वो खुशियां बांटती थी दोस्तों में जो अब ग़म की सहेली हो गयी है।। किसी की आँख का पानी मरा है नज़र अपनी पनीली हो गयी है।। वो नेता बन के आएं हैं ग़मी में ज़नाज़ा है कि रैली हो गयी है।। अभी उनको तवज्जह कौन देगा बिगड़ना उनकी शैली हो गयी है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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इन फ़िज़ाओं में सनसनी क्यों है। ज़ीस्त इतनी भी अनमनी क्यों हैं।। किसलिए है बुझा बुझा सूरज तीरगी तुझमें रोशनी क्यों है।। तेरा दावा है गर खरेपन का तेरी बातों में चाशनी क्यों है ।। आज चौदह की रात है फिर भी इतनी गुमसुम सी चांदनी क्यों है।। जो खफा होके मुस्कराता हो उसकी भौंहे तनी तनी क्यों है।। रोज सादा लिबास रहती थी वक़्ते-रुखसत बनी ठनी क्यों है।। Suresh Sahani Kanpur
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दर्द दिल के उभार जाते हैं। जान जीते जी मार जाते हैं।। लाख दुनिया से जीत कर आये आप अपनों से हार जाते हैं।। उनकी इज़्ज़त रहे रहे न रहे आपकी तो उतार जाते हैं।। उस गली से नहीं चले ग़ालिब जिस गली से ख़ुमार जाते हैं।। साख देखें कि बेबसी अपनी वो जो लेने उधार जाते हैं।। मेरी मैय्यत पे लोग बोल उठे आज यारों के यार जाते हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मैँ अब बेहतर हूँ या पहले अपने को बेहतर पाता था कुछ भी कहलो उस माटी में मेरा बचपन खिल उठता था तब कुछ भी हो लेकिन हम खुद अपने जीवन के मालिक थे अपनी खुशियाँ अपने धन के हम अपने तन के मालिक थे धन भी क्या था घोंघे सीपी गोली कंचे कंकड़ पत्थर चढने को बापू के कंधे सोने को माँ की गोद सुघर जननी धरणी दो दो माएँ दोनों भर अंक खिलाती थीं मानों हम कृष्ण कन्हैया थे दो दो मांयें दुलराती थी खुशियों का कोई छोर न था मुझ पर दुःखों का जोर न था मेरे संगी साथी धन थे उस धन का कोई चोर न था।। सुरेश साहनी ,कानपुर
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फिर मुझे ग़मशनाश कर डाला। याद आ कर उदास कर डाला।। देखकर इक निगाह भर तन का जाम आधा गिलास कर डाला।। उन निगाहों के खंज़रों ने मुझे देख कर बेलिबास कर डाला।। मेरी चर्चे गली गली करके बेवज़ह मुझको ख़ास कर डाला।। संगदिल वो तो देवता न हुआ पर मुझे बुततराश कर डाला।। उसने ख़्वाबों में वस्ल को लेकर जाने क्या क्या क़यास कर डाला।। उसकी वहशत थी या हवस या जुनूँ पर हमें बदहवास कर डाला।। सुरेश साहनी
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प्रिय ऐसा क्या लिख दूँ जिससे तुम फिर मुझसे रूठ न पाओ।। लिख दूँ श्याम कहानी जिसमे तुम राधा बन निकल न पाओ।। क्या लिख दूँ काले केशों पर शरमा जाएं नैन शराबी रक्तिम अधरों पर क्या कह दूँ दहक उठे ये गाल गुलाबी अपने मध्य प्रिये क्या लिख दुं तुम मुझसे फिर दूर न जाओ।। सागर से लेकर मरुथल तक सपने प्यासा ही लौटाया आज प्रेम के नन्दनवन में मिली प्रतिक्षाओं को छाया क्या लिख दूँ जो युगो युगों तक साथ मेरे तुम भी दोहराओ।। सुरेश साहनी, कानपुर
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हुस्न ख़ुद पर निगाह मांगे है। दिल भी करना गुनाह मांगे है।। इश्क़ की चाल है बड़ी बेढब हर घड़ी दिल से राह मांगे है।। उस दीवाने को कौन समझाए उस से आलम पनाह मांगे हैं।। इश्क़ उसको अज़ल से है लेकिन वक़्ते- क़ुर्बत कोताह मांगे हैं।। यार की ज़ीस्त में उजाले और अपनी रातें सियाह मांगे है।। सिर्फ़ दो ग़ज़ ज़मीन दे मौला यार कब ख़ानक़ाह मांगे है।। अब समन्दर पटक रहा है सिर आदमी है कि थाह मांगे है।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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प्रधान मंत्री आवास योजना के तहत गांव में कुछ आवासहीन लोगों को आवास देना तय हुआ था। राम जी के पास मकान के नाम पर एक टूटी झोंपड़ी मात्र थी। कई बार उस पर कब्जा करने की कोशिश की गई थी। पिछली बार जब भगीरथ यादव प्रधान बने तो उन्होंने राम जी को यह स्थान छोड़ने के लिए कह दिया था। लेकिन पुराने प्रधान वकील अहमद ने इस प्रस्ताव का कड़ा विरोध किया था। दरअसल पारिवारिक विवाद में राम जी के बेघर होने के बात पंचायत से ग्राम समाज की जमीन पर यह छोटा सा पट्टा उनके नाम कर दिया गया था। राम जी इसी गांव में पैदा हुए ।यहीं खेले खाये,बड़े हुए और वह समय भी आया जब प्रौढ़ावस्था में उन्हें अपने इस गाँव के निवासी होने का प्रमाण पत्र बनवा कर देना पड़ा था।उन्हें उस समय बहुत तकलीफ हुई थी।तत्कालीन प्रधान ने उनसे इस बात के लिए 100 रुपये ले लिए थे।उन्हें बाद में पता चला था कि इसकी कोई फीस नहीं पड़ती थी। ख़ैर उनकी झोपड़ी की जगह एक सुंदर सा लिंटरदार मकान खड़ा था जो उनकी झुक चुकी झोंपड़ी से ढाई गुना ऊँचा था।दरअसल यह इस योजना का पहला निर्माण था जिसे दिखाकर शेष योजना का मात्र पैसा पास कराना था।वैसे भी प्रधा...
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जब किसी पर जवाल आता है। सिर्फ़ रब का खयाल आता है।। क्या उसे नेकियां बचा लेंगी जो वो दरिया में डाल आता है।। रोज़ उस पर यक़ीन लाता हूं रोज शीशे में बाल आता है।। मैं हूं जिसके ख्याल में उसको क्या मेरा भी ख्याल आता है।। सिर्फ हालात बर्फ़ करते हैं जब लहू में उबाल आता है।। रोज दिल में सवाल उठते हैं रोज दिल उनको टाल आता है।। क्या उसे भी जवाब आते हैं रोज जिसका सवाल आता है।। सुरेश साहनी कानपुर संपर्क - 9451945132
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रास्ते पगडंडियों के साथ हैं या कि उनके साथ है पगडंडियां। रास्तों को व्यर्थ का अभिमान है वो घटाते हैं दिलों की दूरियां।। हम मुसाफ़िर हैं हमें मालूम है फासलों की मन्ज़िलों से यारियां अपनी मर्जी अपने मकसद से चले किसने पूछी रास्तों से मर्जियाँ अपनी जिद थी चल दिये तो चल दिये हमने कब की कूँच की तैयारियां।। सुरेशसाहनी कानपुर
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ग़ैर फिर भी संवार जाते हैं। आपको अपने मार जाते हैं।। दर्द दिल के उभार जाते हैं जख़्म देकर हज़ार जाते हैं।। लाख दुनिया से जीत कर आयें आप अपनों से हार जाते हैं।। उनकी इज़्ज़त रहे रहे न रहे आपकी तो उतार जाते हैं।। उस गली में नहीं हुये रुसवा जिस गली से ख़ुमार जाते हैं।। शान देखें कि बेबसी देखें जो कि लेने उधार जाते हैं।। मेरी मैय्यत पे लोग बोल उठे आज यारों के यार जाते हैं।। सुरेश साहनी,कानपुर
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खिलते फूलों में ख़ारों की चुप्पी है। कमरों में भी दीवारों की चुप्पी है।। हम जैसे अंधे युग मे जा पहुंचे हैं खबरे हैं पर अखबारों की चुप्पी है।। नई रगों में दौड़ रही है खामोशी आवाजों में यलगारों की चुप्पी है।। देश शहर फिर हम सबके घर बेचेगा बारी आने तक यारों की चुप्पी है।। मैं बोला तो सब कह देंगे पागल हो बने हुए सब हुशियारों की चुप्पी है।। ये चुप्पी है अंतरात्मा मरने की या ये चुप्पी बीमारों की चुप्पी है।। जिन मुद्दों पर तब दिल्ली हिल जाती थी उनपर ही अब सरकारों की चुप्पी है।। अब भी चुप हो जब रोजी पर संकट है अब की चुप्पी गद्दारों की चुप्पी है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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भीगते हो बारिशों में धूप में भी जल रहे हो ओ पथिक कितने अराजक हो सड़क पर चल रहे हो।। धूप में चेहरा झुलसता ओष्ठ फटते सर्दियों में और बारिश के दिनों में धान लेकर गल रहे हो।। तुम बिजूका बन के खेतों में खड़े मिलते हो अक्सर किन्तु अब पंछी तनिक डरते नही है ढल रहे हो।। गाँव की पगडंडियों से जो सड़क आ पर गए हो झोपड़ी जैसे महल के सामने हो खल रहे हो।। आज की सरकार तुमको बोझ जैसा मानती है पालते हो देश को, क्यों श्वान जैसे पल रहे हो।। सुरेश साहनी कानपुर
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दिन में सूरज ने तपाया अक्सर। रात चंदा ने सताया अक्सर।। जब कभी ग़म के अंधेरे छाए दीप यादों ने जलाया अक्सर।। अब वफ़ा बात है बीते कल की ये ज़माने ने बताया अक्सर।। आसरे दिन से कहाँ मिल पाए सर तो रातों ने छुपाया अक्सर।। जब कभी नींद की आगोश मिली ख़ुद को फुटपाथ पे पाया अक्सर।। तुमसे उम्मीद कोई क्या रखते छोड जब जाता है साया अक्सर।। अब मुसाफिर के बने रहने को जिस्म देता है किराया अक्सर।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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न मैं धरती न था आकाश जैसा। मैं होकर भी रहा आभास जैसा।। समय ने गोद से हर क्षण उतारा मनाया कब किसी ने कब पुकारा कटा जीवन किसी वनवास जैसा।। कभी व्राजक कभी बन कर भिखारी कटी यायावरी में उम्र सारी चला हूं उम्र भर अभ्यास जैसा।। तुम्हारे बिन कहां कैसा ठिकाना रहा हर दिन यही खाना कमाना कभी व्रत तो कभी उपवास जैसा ।। सुरेश साहनी कानपुर
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मेरी रफ़्तार को पर मिल रहे हैं। मेरे स्वर में कई स्वर मिल रहे हैं।। नया कुछ तो सृजन होकर रहेगा कि धरती और अम्बर मिल रहे हैं।। गई दो गज़ जमीं की फ़िक्र भी अब सुना है चाँद पे घर मिल रहे हैं।। बड़ी थी आपको शौके-शहादत तो फिर क्यों आज डरकर मिल रहे हैं।। आगे बढ़ के इस्तक़बाल करिये अगर ख़ंजर से खंज़र मिल रहे हैं।। मेरी नीयत में कुछ तो खोट होगा गुलों के साथ पत्थर मिल रहे हैं।। कभी सोचा न था ऐसा भी होगा ये कैसे कैसें मंज़र मिल रहे हैं।। कि सूरज जुगनुओं की क़ैद में है नदी में आके सागर मिल रहे हैं।। सुरेश साहनी ,कानपुर
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मुझसे मेरा ही वक्त ठहरकर नहीं मिला। खुशियों को साथ लेके मुकद्दर नहीं मिला।। जब ठौर मिल गया तो ठिकाना नहीं मिला ठिकाना मिला तो रुकने का अवसर नहीं मिला।। दरिया के जैसे चलके यहाँ आ गए तो क्या सहरा मिला यहाँ भी समुन्दर नहीं मिला।। ताउम्र भटकते रहे जिसकी तलाश में उस घर के जैसा हमको कोई घर नहीं मिला।। दीवार मिल गई तो कभी छत नहीं मिली छत मिल गयी तो मुझको मेरा सर नहीं मिला।। सोचा था मक़बरा ही क़यामत तलक रहे तो इस मियाद का कोई पत्थर नहीं मिला।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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रंग इतना भी मौसमी मत दे। गिरगिटों जैसी ज़िन्दगी मत दे।। दर्द भी हैं तेरे कुबूल मुझे उसकी आँखों को ये नमी मत दे।। दिन की हस्ती सियाह हो जाये इस क़दर रात शबनमी मत दे।। मेरा साया न छोड़ दे मुझको इतनी ज़्यादा भी रोशनी मत दे।। सुनके ही दम मेरा निकल जाये इस तरह भी कोई खुशी मत दे।। मेरा क़िरदार कर न कर रोशन उसकी राहों में तीरगी मत दे।। मुझको ख़ुद पर हँसी न आ जाये ग़मज़दा हूँ मुझे हँसी मत दे।। धूप में भी तो मत तपा मुझको ठीक है रात चांदनी मत दे।। माना तन्हा सफ़र नहीं बेहतर हमसफ़र भी तो अजनबी मत दे।। सुरेश साहनी, कानपुर
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आपकी छाँव की ज़रूरत थी। प्यार के गांव की ज़रूरत थी।। इश्क़ की बेड़ियों ने बांध दिए। रक़्स को पाँव की जरूरत थी।। ज़ीस्त ने मौत से मुहब्बत की मौत को दाँव की ज़रूरत थी।। सिर्फ़ दो गज़ ज़मीन है मन्ज़िल क्या इसी ठाँव की ज़रूरत थी।। प्यार में डूबना था दोनो को फिर किसे नाव की ज़रूरत थी।। और मैं तू ही तू पुकार उठा बस इसी भाव की ज़रूरत थी।। सुरेश साहनी, कानपुर
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नींद आंखों को लोरी सुनाती रही। याद तेरी मगर कसमसाती रही ।। हिज़्र का ग़म सुनाते तो आख़िर किसे ख़्वाब में तू ही तू मुस्कुराती रही।। चाँद बादल में छुपता निकलता रहा और यादों की बारात आती रही।। गुनगुनी धूप में मन ठिठुरता रहा चाँदनी रात भर तन जलाती रही।। ख़्वाब बनते बिगड़ते रहे रात भर नींद पलकों पे नश्तर चुभाती रही।। सुरेश साहनी
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आज कलम सचमुच आहत है। अब लक्ष्मीपुत्रों के आगे पुत्र सरस्वति के बेबस हैं एकलव्य के हाथ कटे हैं अर्जुन के खाली तरकश हैं किन वृहन्नलाओं के जिम्मे आज द्रौपदीयों की पत है।। आज कलम सचमुच आहत है।।..... किन शिखण्डियों ने थामी है आज धर्म की जिम्मेदारी अभिमन्यु से छल करने को उद्यत हैं कायर प्रतिहारी अट्टहास सुन सुतहन्तों के हृदय सुभद्रा का विक्षत है।।.... आतुर पार्थ पलायन को है सोये चक्र -सुदर्शन धारी कुटिल शकुनि ललकार रहा है भय कम्पित है जनता सारी अवतारों की राह ताकना सिर्फ़ कायरों की आदत है।।.... उठो वंशजों सत्यवती के उठो व्यास के धर्म रक्षकों एकलव्य की संतानों तुम राह दिखाओ उभय पक्ष को उठो बदल दो दिशा युद्ध की फिर से आज महाभारत है ।.... सुरेश साहनी, कानपुर
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मन उलझन से कैसे निकले तुम्हें पता है तुम्ही बता दो पीड़ाओं का अंत नहीं है अगर दवा है तुम्ही बता दो तुमने दर्द सहा होता तो मेरे दिल का दर्द समझते तुमने प्रेम किया होता तो मेरी हालत पर ना हंसते प्यार-मुहब्बत तुम क्या जानो कभी किया है तुम्ही बता दो....इस राधा से लेकर मीरा तक सबने कुछ खोकर पाया है तुमने प्यार किया ही कब है तुमको कब रोना आया है नहीं दिया दिल कि दे दिया है किसे दिया है तुम्ही बता दो..... इस #सुरेश साहनी,कानपुर
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कल जाने क्या भूल गया मैं आज बहुत बेचैनी में हूँ। तुम श्लोकों में मत भटको मैं साखी, शबद, रमैनी में हूँ।। कागद कागद आखर आखर भटका काशी कसया मगहर प्रेम न जाना फिर क्या जाना करिया अक्षर भैंस बराबर बस इतने पर भरम हो गया मैं कबीर की श्रेणी में हूँ।। मीरा ने अनमोल बताया वह माटी के मोल बिक गया मैं भी मिट्टी का माधो सुन ढाई आखर बोल बिक गया अब कान्हा के अधरों पर हूँ या राधा की बेनी में हूँ।।
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बिगड़ा है बर्बाद नही है। घर तो हैं, आबाद नही है।। सोने चांदी की दुनिया में केवल लब आज़ाद नही है।। दिल से दिल की बात करा दे वो तकनीक इज़ाद नही है।। मेरे दिल में दो रह जाएँ इतना भी इफराद नही है।। हम भी अल्ला के बन्दे है तू ही अल्लाज़ाद नही है।। मन मेरा मजबूत है लेकिन तन मेरा फौलाद नही है।। उसके आगे क्या हम रोते वो सुनता फरियाद नही है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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आज इस बात से बेखबर कौन है। आदमी से बड़ा जानवर कौन है।। छोड़ कर चल दिए तुम कोई गम नहीं साथ देता यहाँ उम्र भर कौन है।। इतना नादान हूँ जान पाया नहीं राहजन कौन है राहबर कौन है।। चाँद उसको बतादे कि उसके लिए याद में जागता रात भर कौन है।। हम से पहले जहाँ छोड़ कर चल दिए अब तुम्ही ये कहो बेसबर कौन है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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चर्चा होती है गांवों में चर्चा होती है अपनों में चर्चा कहाँ नहीं होती है चर्चा क्या है खूब बतकही वो अपनों में हो पाती है चर्चा को परिवार चाहिए नाते रिश्ते दार चाहिए अपना घर संसार चाहिये अपनापन अपनत्व चाहिए प्यार नाम का तत्व चाहिए कहीं प्रेम के बोल नहीं है चर्चा का माहौल नहीं है चर्चा में अब कितना दम है मन की बातों का मौसम है यूँ भी अब सब बदल रहा है गांव शहर को निकल रहा है फिर भी हम भूले जाते हैं गांवों में रिश्ते नाते हैं गांवों में इक अपनापन है गांवों का यौवन बचपन है शहरों में क्या अपनापन है शहरों से गायब जीवन है गांव गांव है शहर शहर है हम जीये खाये जाते हैं पर सच झुठलाए जाते हैं गांवों से ज्यादा गंवार अब शहरों में पाए जाते हैं।। यह भी भ्रम है पढ़े लिखों में संस्कार पाये जाते हैं।। सुरेश साहनी
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न जाने क्या समझकर कह दिया है। जो आदम को पयम्बर कह दिया है।। मेरे पानी से बादल बन के उसने मुझे सिमटा समंदर कह दिया है।। कोई कहकर न वो सब कह सकेगा जो तुमने कुछ न कहकर कह दिया है।। मेरे शीशे से दिल को क्या समझकर तुम्हारे दिल ने पत्थर कह दिया है।। ज़मीं से उठ रहे हैं यूँ बवंडर ज़मीं को कैसे अम्बर कह दिया है।। नहीं है दिल मेरे पहलू में उसने मेरे दिल मे ही रहकर कह दिया है।। वो खाली हाथ लौटेगा यक़ीनन उसे सबने सिकन्दर कह दिया है।। उसे दिक़्क़त है मेरे आँसुओं से मुझे जिसने सितमगर कह दिया है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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हँस के तूफान को हवा दे हम। और मल्लाह को सज़ा दें हम।। जो न बोले उसे मिटा दें हम। जो भी बोले उसे दबा दें हम।। कल न ये भी मशाल बन जायें इन दियों को अभी बुझा दें हम।। काफ़िले हैं ये नौनिहालों के राह इन को गलत बता दें हम।। जो भी हक़ मांगे देश मे अपना उसको रेड इंडियन बना दें हम।। सर उठा कर के जो भी बात करे उसको दुनिया से ही उठा दें हम।। देश विज्ञान से नहीं चलता देश को मध्ययुग में ला दें हम।। सुरेश साहनी, कानपुर
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(#फ्रेंडशिपडे पर) तू किसी शख्स से दगा मत कर या मुझे दोस्त भी कहा मत कर दोस्ती में नहीं जगह इसकी वेवजह शुक्रिया गिला मत कर दुनियादारी भी इक हकीकत है खुद को ख्वाबों में मुब्तिला मत कर जो तुझे प्यार से मिले उससे अजनबी की तरह मिला मत कर तू किसी से बुरा कहा मतकर तू किसी से बुरा सुना मत कर तू भलाई न कर गुरेज नही पर किसी के लिए बुरा मत कर दोस्ती उम्र भर का सौदा है रस्म इक रोज का अदा मत कर #सुरेशसाहनी
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वो ग्वाले वो गोकुल वो गैया कहाँ हैं सुदामा बहुत हैं कन्हैया कहाँ हैं...... वो पनिहारिने और पनघट कहाँ है जो मटकी को फोड़े वो नटखट कहाँ है जो लल्ला पे रीझी थीं मैया कहाँ हैं..... सरेआम पट खींचते हैं दुशासन हैं चारो तरफ गोपिकाओं के क्रंदन पांचाली के पत का रखैया कहाँ है..... अर्जुन को उपदेश अब कौन देगा गीता का सन्देश अब कौन देगा वो मोहन वो रथ का चलैया कहाँ है.. .. बाल होठों पे मुस्कान आने को तरसे बालिकाएं निकलती हैं डर डर के घर से कलियानाग का वो नथैया कहाँ है.... नंदलाला वो बंशी बजैया कहाँ है।....
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हम भला तुमसे और क्या लेते। इक ज़रा हाले-दिल सुना लेते।। तुमको हमपे यक़ीन हो जाता तुम अगर हमको आज़मा लेते।। ये अदावत चलो पुरानी है यार खंजर तो कुछ नया लेते।। हम भी कुछ मुतमईन हो जाते तुम बहाना कोई बना लेते।। हम तुम्हारी नज़र से राजी थे ख्वाब पलकों पे कुछ सजा लेते।। कर गुजरते तेरी रज़ा पे हम हम तुम्ही से तुम्हे चुरा लेते।। ये मेरा दिल हैं इश्कगाह नही और कितनों को हम बसा लेते।। Suresh Sahani, Kanpur
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इश्क़ से दुश्वारियां जाती रहीं। हुस्न की ऐयारियाँ जाती रहीं।। दोस्तों ने ज़ख्म इतने दे दिए दूसरी बीमारियां जाती रहीं।। आपकी इस दिल में क्या आमद हुयी जाने कितनी यारियां जाती रहीं।। पास आकर दूर उनसे हो गए दूर रहकर दूरियाँ जाती रहीं।। वस्ल को लेकर बड़े अरमान थे जब मिले तैयारियाँ जाती रहीं।। सुरेश साहनी ,अदीब कानपुर
व्यंग
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मुंबई की एक बिल्डिंग में एक गली का कुत्ता बारिश से बचने के लिए घुस आया, गार्ड ने उसे पीटा और कुत्ता बेचारा मर गया.... अब लोगों ने उस मृत कुत्ते का नाम लकी रखा है, और उसके लिए आज क़रीब ५०० लोगों ने प्लेकार्ड्स लेकर प्रोटेस्ट किया है, जिनपे लिखा हुआ है "जस्टिस फ़ोर लकी"। मैं भारत के उच्च मध्यम वर्ग या सो कॉल्ड हाई क्लास की न्यायप्रियता का कायल भी हूँ। वे कभी नहीं चाहते कि कोई कम आय वाला अथवा गरीब बन्दा भूल से भी कोई अपराध करे।इसीलिए जब गार्ड ने कुत्ते को मारा तो पूरे आकुल सोसाइटी के लोग कुत्ते को न्याय दिलाने निकल पड़े।इनके यहाँ सबके हृदय एक साथ झनझनाते हैं। कुत्ते की मार का दुख बच्चे से लेकर बूढ़ों तक समान रूप से व्याप्त है। कुत्ता सर्वहारा है और गॉर्ड शोषक वर्ग का मुक़म्मल रिप्रेजेंटेटिव।आख़िर क्यों ना हो? इन सो कॉल्ड हाई क्लास में आदमी से ज्यादा कुत्तों से प्यार किया जाता है, पर वह कुत्ता विदेशी होना चाहिये। देशी की क्या औकात। धोती पहनने वाले देहाती को तो टीटी भी बन्दे भारत ट्रेन से उसी तरह उतार देता है,जैसे गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन से फेंक दिए गए थे।इन अपर मिडि...