तुम आवाज़ों की हद सुनते।

हम सुनते तो अनहद सुनते।।


सोच अगर बौनी रखते हम

क्या  बौनों का ही क़द सुनते।।


फरियादें थीं गांव गली की

क्या हम जाकर संसद सुनते।।


इन बूढ़ी सोचों से कहकर

फिर फिर अपनी ही भद सुनते।।


पत्थर के कानों से बेहतर

बूढ़े वाले बरगद सुनते ।।


धाक जमाना बात अलग है

कैसे कह दें अंगद सुनते।।


पर यक़ीन था राम कहानी

श्याम न सुनते अहमद सुनते।।


इश्क़ कबीर हुआ करता है

कब शाहों की सरमद सुनते।।


दिल की बातें दिल ना सुनता

क्या महलों के गुम्बद सुनते।।


कितना कर लेते छोटा दिल

क्या सांसों में सरहद सुनते।।


जब अपने अनसुनी कर गये

दूजे  कैसे  बेहद  सुनते ।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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