बचपन में औरों के जैसे

मैंने भी तितली देखी है

उड़ती हुई मदार की रुई-

को बुढ़िया के बाल नाम से

मैंने उछल उछल पकड़ा है

मैंने गौरैया की ख़ातिर 

गत्तों के घर भी रखे थे 

उसमें दाने, रोटी पानी

और न जाने क्या क्या रखकर

अम्मा की डांटे खाई हैं

मैंने भी बादल देखे हैं

दूर किनारे आसमान के 

छोर पकड़ कर चढ़ने वाले

बादल के पीछे सूरज को 

उसी तरह छुपते देखा है

जैसे मैँ अम्मा के पीछे

कुछ असफल सा छुप जाता था

वे बादल भी अलग अलग से 

रंग बदल कर यूँ दिखते थे

जैसे नए दौर के मानुष

काले भूरे उजले धूसर

कभी कभी  ललछउहे जैसे

भउजी शरमाकर दिखती थी

अभी ट्रेन में बैठे बैठे

आसमान ही ताक रहा हूँ

और उधर खिड़की के बाहर

सब कुछ पीछे छूट रहा है

जैसे जाने कितने रिश्ते

नाते छूटे फिर लापता हो गए

जैसे बचपन मे बादल को

देख देख उपजी कविताएं

उपजी फिर लापता हो गईं

बादल तो अब भी दिखते हैं

लेकिन  मेरा बचपन गुम है

बचपन का भोलापन गुम है

जिनसे कविताएं बन पातीं....

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