चौदह सितंबर आ रहा है। मैं इस बार भी किसी को नहीं बताऊंगा कि मैंने पचास से अधिक देशों की यात्रा नहीं की है। आख़िर इस बात से मेरी अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्रभावित हो सकती है। 

 एक बार नुक्कड़ वाली चाय की दुकान पर  मेरे एक मित्र  चौबे जी मिल गए ।मैंने उन्हें भी चाय का आग्रह किया।उन्होंने मेरा आग्रह सहर्ष स्वीकार भी कर लिया। वैसे भी वो चाय पीना पसंद करते हैं पिलाना उनके शब्दकोश में नहीं है।

 ख़ैर चाय के दौरान बातचीत में उन्होंने बताया कि अब वे भी अंतरराष्ट्रीय कवि हो चुके हैं।क्योंकि अब वे इंटरनेट के नल पर कविताएं बहाते हैं। उनका उस गूगल में एकाउंट है। जिसमे करोड़ों अमरीकीयों के भी एकाउंट हैं।

  मैंने विचार किया कि , काश तुलसीदास  भी अमरीका घूम आये होते  तो आज वे भी अंतरराष्ट्रीय कवि होते। फिर लगा कि अगर वे अमरीका की छोड़ो लंका ही घूमे होते तो दूबे काहे कहे जाते।

संत कबीर भी विदेश नहीं घूम पाए जबकि उमर भर गाते रहे कि , "रहना नहीं देश बेगाना है।।"

पर वे काशी से निकले तो मगहर में अटक के रह गए।नेपाल भी नहीं जा पाए नहीं तो वे भी अंतरराष्ट्रीय कवि हो गए होते।

  चौबे जी ने आगे बताया कि उनको एक साल में एक सौ चौसठ सम्मान मिल चुका है , और भागलपुर विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट का सम्मान कल ही पोस्ट से मिला है।इतना सम्मान तो हरिवंश बाबू को भी नहीं मिला होगा जबकि हमें युगांडा से लाइव कविता पाठ में हिंदी विश्वभूषण सम्मान का प्रमाणपत्र फेसबुक पर मिला है। पूरा युगांडा मेरी कविता पर झूम रहा था।

 चौबे जी जी ने अपनी अन्तर्राष्ट्रीयता पर धारा प्रवाह तीन चार मिनट उवाच किया उसके बाद उन्होंने कहा कि अब चाहो तो एक चाय और मंगा सकते हो।

और आप को खास बात बता दूं। अइसही किसिम मतलब चौबे जी टाइप के  दो दर्जन अंतरराष्ट्रीय कवि मेरे पास और हैं।

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