ये फेसबुक के बड़े लोग।कविता और साहित्य के धुरंधर ।ये परिभाषाएं गढ़ते,बनाते और बिगाड़ते रहते हैं।आखिर दिल्ली जैसे शहरों में रहते हैं।आलोचक,समालोचक,कवि,अकवि,तुकांतक,अतुकांतक,समीक्षक , निंदक और न जाने क्या क्या?गुट, निर्गुट,गुटगुट।विभिन्न गिरोहों को चलाते ये साहित्यिक लोग अब खतरनाक से भी कुछ अधिक लगने लगे हैं।सत्ता की आभा से ओतप्रोत ये महान लोग ।सत्ता परिवर्तित होते ही इनके चिंतन के रंग भी बदलने लगते हैं।इनसे भले तो हमें अपने यहाँ के राजनीतिज्ञ लगते हैं।कुछ तो दीन बचा रखा है।ईमान की बात मैं नहीं करूँगा। लेकिन उन्हें जनमानस का भय तो है।लेकिन ये बड़े साहित्यिक लोग हमेशा गरियाने,फरियाने में व्यस्त मिलते हैं।उससे उबरे तो पीने पिलाने की चर्चा करते दिखेंगे।सुरूर बढ़ा तो दूसरे की चादर के छेद तलाशने में व्यस्त हो जाएंगे।कभी कभी कोफ़्त होने लग पड़ती है।फिर विचार आता है, अच्छा है यार!हम बड़े नही हुए।वरना यही सारे अवगुण हमारी शोभा भी बढ़ा रहे होते।पता नहीं परसाई जी तब बड़े थे या नही।
भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील
अमवा के बारी में बोले रे कोयिलिया ,आ बनवा में नाचेला मोर| पापी पपिहरा रे पियवा पुकारे,पियवा गईले कवने ओर निरमोहिया रे, छलकल गगरिया मोर निरमोहिया रे, छलकल गगरिया मोर||........... छलकल .... सुगवा के ठोरवा के सुगनी निहारे,सुगवा सुगिनिया के ठोर, बिरही चकोरवा चंदनिया निहारे, चनवा गईले कवने ओर निरमोहिया रे, . छलकल .... नाचेला जे मोरवा ता मोरनी निहारे जोड़ीके सनेहिया के डोर, गरजे बदरवा ता लरजेला मनवा भीजी जाला अंखिया के कोर निरमोहिया रे, . छलकल .... घरवा में खोजलीं,दलनवा में खोजलीं ,खोजलीं सिवनवा के ओर , खेत-खरिहनवा रे कुल्ही खोज भयिलीं, पियवा गईले कवने ओर निरमोहिया रे, छलकल ....
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