हमें याद हैं पढ़े ककहरे।

हर अक्षर के बारह चेहरे।।


लोकतंत्र के हिलते पाये

लूले लंगड़े गूंगे बहरे।।


जयकारों ने बिठा दिए हैं

आवाज़ों पर अगणित पहरे।।


कल काले थे जाने कैसे

आज हो गए पृष्ठ सुनहरे।। 


सच कह कर थक गए आईने

भावहीन हैं सारे चेहरे।।


क्या कोई अवतार भरेगा

जख़्म देश के गहरे गहरे।।


ऐसी अन्धी  होड़ लगी है

जाने देश कहाँ पर ठहरे।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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