सुबह गये तो शाम शज़र को लौटेंगे।
पंछी आख़िर औऱ किधर को लौटेंगे।।
वे नाहक़ मयखाने में रुक जाते हैं
मयखाने से भी जब घर को लौटेंगे।।
श्मशानों के द्वार खुले यह कहते हैं
बारी बारी लोग इधर को लौटेंगे।।
नींद हमारी वक़्त के हाथों बन्धक है
क्या मुँह लेकर हम बिस्तर को लौटेंगे।।
जाएंगे तो दो दिन को परदेश मगर
लौटेंगे तो जीवन भर को लौटेंगे।।
क्या फुलवा वैसे ही राह निहारेगी
जब अपने टोले टब्बर को लौटेंगे।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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