फिर महल के लिये झोपड़ी हँस पड़ी।

धूप ढल सी गयी चांदनी हँस पड़ी।।


ज़ुल्म ने देखा हसरत से बेवा का तन

काम के दास पर बेबसी हँस पड़ी।।


उम्र भर जो डराती फिरे थी उसी

मौत को देखकर ज़िन्दगी हँस पड़ी।।


मौत के डर से  भागी इधर से उधर

आज करते हुए खुदकुशी  हँस पड़ी।।


रोशनी  अपने होने के भ्रम में रही

साथ दे कर वहीं तीरगी  हँस पड़ी।।


जन्म से मृत्यु तक जीस्त भटकी  जिसे

है सफ़र  सुन के आवारगी हँस पड़ी।।


सुरेशसाहनी कानपुर

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