बचपन में तितली,फूल,पेड़,पौधे,

बादल, सूरज,चाँद, तारे 

आसमान या पंछी देखकर

गुड्डे गुड़िया परियां बौने और 

राक्षस की कहानियां सुनकर 

प्रतिपल कविता जैसी भावनाएं 

उपजती और विलीन होती थीं

बिल्कुल उसी तरह जैसे

बारिश में बुलबुले 

बनते और फूटते रहते हैं

बाबा, दादी,अम्मा  बाबूजी और कवितायें

सब विलुप्त हो गए

तब सहेजना नहीं आता था

अब जानते हैं सहेजना भी

दुनिया के गुणा भाग भी

पर अब वह निश्छलता नहीं

जिससे कविता उपजती थी

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