मैँ अब बेहतर हूँ या पहले

अपने को बेहतर पाता था

कुछ भी कहलो उस माटी में

मेरा बचपन खिल उठता था


तब कुछ भी हो लेकिन हम खुद

अपने जीवन के मालिक थे

अपनी खुशियाँ अपने धन के

हम अपने तन के मालिक थे


धन भी क्या था घोंघे सीपी

गोली कंचे कंकड़ पत्थर

चढने को बापू के कंधे

सोने को माँ की गोद सुघर


जननी धरणी दो दो माएँ 

दोनों भर अंक खिलाती थीं

मानों हम कृष्ण कन्हैया थे

दो दो मांयें दुलराती थी


खुशियों का कोई छोर न था

मुझ पर दुःखों का जोर न था

मेरे  संगी    साथी     धन थे

उस धन का कोई चोर न था।।

सुरेश साहनी ,कानपुर

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