हमारे बचपन में हमें ज्यादा सामाजिक जानकारियां नहीं थी।लेकिन इतना भलीभांति स्मरण है कि हमारे गांव नारायणपुर का घाट हमारे परिवार के नियंत्रण में था।घाट पर हमारे पास छोटी ,मध्यम और बड़ी कुल छह नावें थीं।शेष बाजार आदि जाने के लिए एक  लढ़िया (बैलगाड़ी ) और एक टायर वाली लढ़िया भी थी।बड़ी नावों का उपयोग बाहर के जिलों से माल आदि लाने ले जाने में होता था। बाढ़ के दिनों में उसकी उपयोगिता बढ़ जाती थी। दोनों पार के गांवों से फसल कटाई पर पर्याप्त मात्रा में अनाज मिल जाता था।जो कि बहुधा सम्पन्न किसानों के कुल उत्पादन जैसा ही होता था।उस समय रंगून से चावल कलकत्ता के रास्ते बनारस आता था।बनारस से नावों के जरिये स्थानीय बाज़ारों तक पहुंचाया जाता था। रंगुनिहा चावल और मीठे पानी की झींगा मछली उस समय महंगा भोजन माना जाता था। आस पास के तहसीलों में हमारे परिवार की ठीकठाक प्रतिष्ठा थी। वैसे उस समय नदियों में प्रदूषण न के बराबर होता था।लगभग हर मल्लाह नदी तालाबों से पर्याप्त कमा खा लेता था।

          लेकिन यही आगे चलकर समाज के लिए घातक भी हुआ । रोजगार और भोजन की सुनिश्चितता समाज को शिक्षा से दूर करती रही।हमारे गाँव से दुसरे समाज के लोग शिक्षा प्राप्त करने में लग गए।वे सामान्य से असाधारण होते रहे। हमारा समाज समय के साथ नहीं चलने के कारण पीछे होता रहा। हमारा परिवार भी आज बड़के घर के ओहदे से बहुत पीछे जा चुका है। बगल के गाँव में एक टोला था।जहाँ के लोग बंधुआ मजदूरी करने को मजबूर थे। गोरखपुर में सहगौरा गाँव के एक समाजसेवी श्री रामकेवल साहनी जी थे।उन्होंने उस गांव में लोगों को आंदोलित किया था।फलस्वरूप गांव बंधुआ मजदूरी से मुक्त हुआ। लेकिन रामकेवल जी आगे चलकर गुमनामी के अंधेरों में खो गए। यह एक विडम्बना है कि समाज के वास्तविक हितचिन्तक इसी तरह नेपथ्य में जाते रहे हैं। #क्रमशः

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