खिलते फूलों में ख़ारों की चुप्पी है।

कमरों में भी दीवारों की चुप्पी है।।

हम जैसे अंधे युग मे जा पहुंचे हैं

खबरे हैं पर अखबारों की चुप्पी है।।

नई रगों में दौड़ रही है खामोशी

आवाजों में यलगारों की चुप्पी है।।

देश शहर फिर हम सबके घर बेचेगा

बारी आने तक यारों की चुप्पी है।।

मैं बोला तो सब कह देंगे पागल हो

बने हुए सब हुशियारों की चुप्पी है।।

ये चुप्पी है अंतरात्मा मरने की

या ये चुप्पी बीमारों की चुप्पी है।। 

जिन मुद्दों पर तब दिल्ली हिल जाती थी

उनपर ही अब सरकारों की चुप्पी है।।

अब भी चुप हो जब रोजी पर संकट है

अब की चुप्पी गद्दारों की चुप्पी है।।

सुरेश साहनी, कानपुर

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