लग रहा है  इस शहर में आज था कुछ

हाँ अभी दो चार गज़लें 

कुछ परीशां सी दिखी हैं

एक ने तो एक होटल से निकल कर 

उड़ रही काली घटाओं में उलझती 

कुछ निगाहों के सवालों को झटक कर 

बोझ सा अपने सरों पर 

बाँध कर कुछ पर्स में 

रखने के जैसा रख लिया है

छन्द जैसा रोब रखते चंद मुक्तक

कुछ पुरानी शक्ल के दोहे निकलकर

जो बिगड़कर सोरठा से हो चुके हैं

नए गीतों को कहन समझा रहे हैं

उस ज़माने की कहानी

जिनको शायद आज अगणित 

झुर्रियों ने ढक लिया है

और अब उन हुस्न के ध्वंसावशेषों की- 

कथाओं को नए परिवेश में 

फिर से सुनाकर सोचते हैं

ग़ज़ल उन पर रीझकर के 

ढूंढ़कर फिर सौप देगी 

कल के उजले और काले कारनामे

जो कि अब अस्तित्व अपना खो चुके हैं 

कल शहर फिर कुछ करेगा.... 


सुरेश साहनी ,कानपुर

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