मेरी रफ़्तार को पर मिल रहे हैं।

मेरे स्वर में कई स्वर मिल रहे हैं।।


नया कुछ तो सृजन होकर रहेगा

कि धरती और अम्बर मिल रहे हैं।।


गई दो गज़ जमीं की फ़िक्र भी अब

सुना है चाँद पे घर मिल रहे हैं।।


बड़ी थी आपको शौके-शहादत

तो फिर क्यों आज डरकर मिल रहे हैं।।


आगे बढ़ के इस्तक़बाल करिये

अगर ख़ंजर से खंज़र मिल रहे हैं।।


मेरी नीयत में कुछ तो खोट होगा

गुलों के साथ पत्थर मिल रहे हैं।।


कभी सोचा न था ऐसा भी होगा

ये कैसे कैसें मंज़र मिल रहे हैं।।


कि सूरज जुगनुओं की क़ैद में है

नदी में आके सागर मिल रहे हैं।।


सुरेश साहनी ,कानपुर

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