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Showing posts from 2024
 ये दुनिया है फ़क़त हरजाईयों की। किसे है फ़िक्र हम सौदायियों  की।। थका हूँ आज मिलकर मैं ही ख़ुद से ज़रूरत है मुझे तन्हाइयों की।। मैं मरता नाम की ख़ातिर  यक़ीनन कमी होती अगर रुसवाईयों की।। अँधेरों में कटी है ज़िंदगानी नहीं आदत रही परछाइयों की।। गले वो दुश्मनों के लग चुका है ज़रूरत क्या उसे अब भाईयों की।। लचक उट्ठी यूँ शाखेगुल वो मसलन तेरी तस्वीर हो अंगड़ाईयाँ की।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 अब दिल के कारोबार का मौसम नहीं रहा। सचमुच किसी से प्यार का मौसम नहीं रहा।। उतरे हुए हैं आज हर इक सू वफ़ा के रंग क्या इश्क़ के बहार का मौसम नहीं रहा।।
 ज़ुल्म भी इन्तेहा तक ही कर पाओगे। हद से ज़्यादा भला ज़ुल्म क्या ढाओगे।। आईने कब से तारीफ़ करने  लगे देखकर ख़ुद पे ख़ुद तो न इतराओगे।। तुम हो दुश्मन फ़क़त ज़िन्दगी तक मेरी बाद मेरे तो तुम ख़ुद ही मर जाओगे।। ख़ुद उलझते चले जाओगे बेतरह सोचते हो जो औरों को उलझाओगे।। दर्द का हद से बढ़ना दवा ही तो है ऐसी हालत में क्या तुम न झुंझलाओगे।।
 यूँ तो रिश्ता नहीं है ख़ास कोई। है मगर मेरे दिल के पास कोई।। मिल गया वो तो यूँ लगा मुझको जैसे पूरी हुई तलाश कोई।। मेरे हंसने से उज़्र था सबको क्या मैं रोया तो था उदास कोई।। हाले दिल यूँ अयाँ न कर सबसे शख़्स मिलने दे ग़मशनास कोई।। सिर्फ़ लाये हो इश्क़ की दौलत खाक़ देगा तुम्हें गिलास कोई।। क्या करूँ मैं भी बेलिबास आऊँ यां समझता नहीं है प्यास कोई।। साहनी लौट अपनी दुनिया मे तेरी ख़ातिर है महवे-यास कोई।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 मुझको उस पत्थर ने अपना मान लिया।। फिर तो हर संजर ने अपना मान लिया।।
 उस हुस्ने-इम्तियाज से मिलना भला लगा। अपने ही कल के आज से मिलना भला लगा।। यूँ मुस्कुरा के प्यार से खैरमकदम किया मुझको मेरे मिज़ाज से मिलना भला लगा।।
 आर्तनाद को बोलते जन का अंतर्नाद । उनके मन की बात है ऐसा ही संवाद।।
 जब हम अपना चाहने वाला ढूढ़ेंगे। बेशक़ कोई हमसे आला ढूढ़ेंगे।। कुछ शातिरपन हो मेरे हरजाई में एक ज़रा सा दिल का काला ढूढ़ेंगे।। इन आँखों ने सिर्फ़ अंधेरे देखे हैं उन नैनों से रोज उजाला ढूढ़ेंगे।। वो किस्मत की चाबी लेकर आएगा फिर दोनों किस्मत का ताला ढूढ़ेंगे।। अब सुरेश पहले मैख़ाने जायेंगे तब हम काबा और शिवाला ढूढ़ेंगे।। सुरेश साहनी
 ख्वाबों में आसमान दिखाया गया मुझे। फिर फिर मगर ज़मीन पे लाया गया मुझे।।
 सचमुच तेरे ख़याल से कितना जुदा हूँ मैं। जैसे तेरी नज़र में बड़ा पारसा हूँ मैं।। मत ढूंढ तेरी ज़िन्दगी से जा चुका हूँ मैं। कैसे पता मिलेगा मेरा लापता हूँ मैं।।
 धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में आकर युद्घातुर हो एक बराबर पाण्डुपुत्र अरु ममपुत्रों ने  है संजय क्या किया परस्पर  श्लोक 1  पांडव दल का व्यूह देखकर हे राजन दुर्योधन तत्पर द्रोण गुरु के  निकट पहुँच कर बोले राजा वचन सुनाकर हे आचार्य पाण्डुपुत्रों की इस विशाल सेना को देखें व्यूह आपके योग्य शिष्य प्रिय धृष्टद्युम्न ने सजा दिये हैं
 अब यहाँ क्यों अटक गये हैं हम। ख़ुद को गोया पटक गये हैं हम।। अपनी आवारगी भी गायब है हो न हो कुछ भटक गये हैं हम।।साहनी
 ख़ुदा से गर ज़ुदा हूँ मैं  तो उसकी एक गलती से मुझे वो भूल बैठा है उसे मैं याद करता हूँ।।
 जिसे मैंने समझा उज़ैर है। मुझे क्या पता था वो ग़ैर है।। हुआ सर निगूँ  तेरे वास्ते क्या गरज़ हरम है कि दैर है।। मुझे बातिलों में खड़ा मिला जिसे सब कहे थे ज़ुबैर है।। तू जो साथ है वही जीस्त है है तो मर्ग तेरे बग़ैर है।। है तेरी रज़ा में मेरी रज़ा तेरे ख़ैर में मेरी ख़ैर है।। सुरेश साहनी, कानपुर उज़ैर/सहारा, सहायक सर निगू/ सर झुकाना दैर-हरम/मंदिर मस्जिद बातिल/ झूठा बेईमान ज़ुबैर/ योद्धा जीस्त/ ज़िन्दगी मर्ग/मृत्यु रज़ा/सहमति ख़ैर/ बरक़त
 हमारी जीस्त बेशक़ तिश्नगी थी। मगर तक़दीर में खारी नदी थी।। तुम्हारे पास दीवाने बहुत थे हमारे पास इक दीवानगी थी।। हमारी लत वफ़ादारी थी लेकिन यहीं इक बात तुमको सालती थी।। हमारा प्यार दौलत से नहीं था हमारे प्यार की ये तो कमी थी।। जहाँ तक दिन तुम्हारे साथ गुज़रे बस उतनी ही हमारी ज़िंदगी थी।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 ये नहीं है कि प्यार है ही नहीं। दरअसल वो बहार है ही नहीं।। वो तजस्सुस कहाँ से ले आयें जब कोई इंतज़ार है ही नहीं।। फिर मदावे की क्या ज़रूरत है इश्क़ कोई बुख़ार है ही नहीं।। क्यों वफ़ा का यक़ी दिलायें हम जब उसे एतबार है ही नहीं।। मर भी जायें तो कौन पूछेगा अपने सर कुछ उधार है ही नहीं।। आपकी फ़िक्र बेमआनी है साहनी सोगवार है ही नहीं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 पलायन ज़िंदगी से क्यों करें हम। अपेक्षाएं किसी से क्यों करें हम।। ये वसुधा है सकल परिवार अपना घृणा तब आदमी से क्यों करें हम।।
 जाने कितनी जान लिए हो। जो क़ातिल मुस्कान लिए हो।। नज़रें तीर कमान लिए हो। खूब निशाने तान लिए हो।। ऊपर से ये भोली सूरत मेरा भी ईमान लिए हो।। हँसते हो मोती झरते हैं मानो कोई खान लिए हो।। आईना तक रीझ गया है क्या करने की ठान लिए हो।। देख के शरमाये हो ख़ुद को किसको अपना मान लिए हो।। आ भी जाओ मेरे दिल मे नाहक़ अलग मकान लिए हो।। 02/12/22 सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 वो आशना था मगर अजनबी लगा मुझको। रहा तो दिल में मगर ग़ैर भी लगा मुझको।। अज़ाब क़ुर्बतों में उसकी जो मिले यारब उसे कहाँ से कहूँ ज़िन्दगी  लगा मुझको।।साहनी
 दौर वो गुज़रे ज़माने वाले । फिर नहीं लौट के आने वाले।। याद आते हैं भला किस हक़ से हँस के अपनों को भुलाने वाले।। दिल के सचमुच वो बड़े होते है ग़म के अनमोल ख़ज़ाने वाले।।
 तुम्हारे साथ आना चाहते हैं। तुम्हीं से दिल मिलाना चाहते हैं।। तमन्ना है तुम्हारे अश्क़ पी लें तुम्हारे ग़म को खाना चाहते हैं।। ज़हां की भीड़ में तुम खो न जाना तुम्हें हम सच मे पाना चाहते हैं।।
 ज़हां भर को मगन रखते रहे हो। सनम कितने नयन रखते रहे हो।। हृदय-पाषाण में सम्भव नहीं है कहाँ फिर अश्रु-घन  रखते रहे हो।।साहनी
 इश्क़ था जबकि छलावा तेरा। दिल को भाता था दिखावा तेरा।। झूठ था फिर यकीं लायक था दरदेदिल का वो मदावा तेरा।। आजमाऊँ तो ख़ुदा झूठ करे  जाँनिसारी का ये दावा तेरा।। मैं नहीं कोई बहक सकता था इतना सुंदर था भुलावा तेरा।। जबकि मक़तल ही था मंज़िल अपनी इक बहाना था बुलावा तेरा।। ऐ ख़ुदा तू है अगर कुजागर तो ये दुनिया है कि आँवा तेरा।। साहनी ही तो गुनहगार नहीं उसमें पूरा था बढ़ावा तेरा।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 जिस्म कोई मकान है शायद। रूह इक मेहमान है शायद ।। दर हक़ीक़त ख़ुदा ज़मीं पर है ये जहाँ आसमान है शायद।। कम-सुखन हुस्न तो नहीं होता इश्क़ ही बेज़ुबान है शायद।।
 अहले दिल को क़रार देती है। मुम्बई सच में प्यार देती है।। क़द्र करती है मेहनतकश की ज़िंदगानी संवार देती है।।साहनी
 पुष्प पथ में बिछाये हैं रख दो चरण। आपसे स्नेह का है ये पुरश्चरण।।   प्रीति के पर्व का यह अनुष्ठान है दृष्टि का अवनयन लाज सोपान है सत्य सुन्दर की सहमति है शिव अवतरण।। पुष्प पथ में बिछायें हैं रख दो चरण।। कुछ करो कि स्वयम्वर सही सिद्ध हो सिद्धि हो और रघुवर सही सिद्ध हो शक्ति बन मेरे भुज का करो  प्रिय वरण।। पुष्प पथ में बिछायें हैं रख दो चरण।।  ओम सत्यम शिवम सुन्दरम प्रीति हो युगयुगान्तर अमर प्रीति की कीर्ति हो लोग उध्दृत करें राम का आचरण।। पुष्प पथ में बिछायें हैं रख दो चरण।।
 सोच रहा हूँ कमी कहाँ थी गीत मेरे  क्यों गये रूठकर माना लिया मैं यायावर हूँ गीत मेरे बंजारे कब थे भले ज़िन्दगी रही द्रोपदी हम गीतों को हारे कब थे सुख का साथ छूटना तय है गीत मुझे क्यों गये छोड़कर।  sahani
 कुछ मुझे देवता समझते हैं। कुछ मुझे बेवफ़ा समझते हैं।। इससे ज़्यादा है मानीखेज़ मगर इक हमें आप क्या समझते हैं।।
 भारत की जीत पर जो सट्टा लगा रहे थे। भारत की साख पर वो बट्टा लगा रहे थे।।
 यार तुमसे दूर होना खल रहा। जीस्त का मजबूर होना खल रहा।। तुम नहीं हो तो सिंदूरी साँझ का यूँ नशे में चूर होना खल रहा।।साहनी
 मुझे तो दोस्त बनाने की बात करता है। वो दुश्मनी भी निभाने की बात करता है।। लगे है मुझको ही मुझ से वो दूर कर देगा किसी के पास न जाने की बात करता है।।
 लगे जा रहे  ट्रेनों में स्पेशल डिब्बे। कम होते जा रहे दिनोदिन जनरल डिब्बे।। बरसातों में ट्रेन हो रही पानी पानी गर्मी में होते हैं निरे निराजल डिब्बे।। इतनी नफ़रत बाँट रही है आज सियासत कहीं न चलवा दें ये सब कम्यूनल डिब्बे।। डिब्बे कुछ बेपटरी भी होते रहते हैं क्यों होने लगते है बेसुध बेकल डिब्बे।। लगती रहती है ट्रेनों में आग निरन्तर क्यों न ट्रेन के साथ लगा दें दमकल डिब्बे।। कभी पिता सी गोद बिठा कर सैर कराते चले ट्रेन तो लगते माँ के  आँचल डिब्बे।। क्या ऐसा होगा जब इंजन नहीं रहेंगे क्या होगा जब रह जायेंगे केवल डिब्बे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जब कि तूने भुला दिया मुझको। भूल से याद भी न आ मुझको।। दूर मुझसे गया गया तो गया अब बहानों से मत बना मुझको।। जब तुझे ही यकीं नहीं तुझ कर फिर भरोसा तो मत दिला मुझको।। और भी हैं तेरे बहुत अपने क्या ज़रूरी है आज़मा मुझको।।
 बदली हवा में ख़ुद को बदलने न लग पड़ें। रंगीनियों को देख मचलने न लग पड़ें।। माना कि वो हसीन है ये तो जवां नहीं इस उम्र में जनाब फिसलने न लग पड़ें।। साहनी सुरेश
 कल विरासत में भी हम मिलेंगे हम ही अज़दाद में कल रहे हैं।। इब्ने आदम बना कर गये हैं हम उसी राह पर चल रहे हैं।।
 अभी उठा ले तू मुझ पे अँगुली कभी तो तुझसे सवाल होगा।  गुनाह करके यूँ शाद मत हो तुझे कल इसका मलाल होगा।।
 मैं जिसे अपना साया समझता रहा। वो ही मुझको पराया समझता रहा।। क्या कहें वो भी निकला किराये का घर मैं जिसे अपनी काया समझता रहा।।साहनी
 अब नया सूरज निकलने से रहा। दर्द का मौसम बदलने से रहा।। इश्क़ में तासीर कल की बात है आह से पत्थर पिघलने से रहा।। होश गोया मयकशी में कुफ़्र है लड़खड़ा कर दिल सम्हलने से रहा।। आपके आने से अब क्या फायदा दिल जवानों सा मचलने से रहा।। खून ठंडा है रगों में क्या कहें अश्क आंखों में उबलने से रहा।। सुरेश साहनी, कानपुर
 अपनी कविताओं मे जिंदा हैं रमन।  भाव समिधाओं में जिंदा हैं रमन।। आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं वो आज भी गांवों में जिंदा हैं रमन।। प्रीति का मधुमास उनके काव्य में। पीर का आभास उनके काव्य में।। आध्यात्म रामायण रचयिता हैं रमन है निहित इतिहास उनके काव्य में।।
 इश्क़ माना कि मुद्दआ तो था। हुस्न भी ख़ुद में मसअला तो था।। ज़ख़्म दिल पर भले लगा तो था। उस ख़लिश में मगर मज़ा तो था।। सुन लिया शख़्स बेवफा तो था। इश्क़ वालों का आसरा तो था।। हाल सबने मेरा सुना तो था। कौन रोया कोई  हँसा तो था।। क्या कहा सच ने खुदकुशी कर ली क्या कहें कल से अनमना तो था।। जाल फेंका था फिर वही उसने मेरे जैसा कोई फँसा तो था।। मान लेते हैं तुम नहीं कातिल क़त्ल मेरा मगर हुआ तो था।। उसमें ढेरों बुराईयाँ भी थी साहनी आदमी भला तो था।। सुरेश साहनी कानपुर
 लग गया दिल या लगाया क्या कहें। फिर गया दिल या कि आया क्या कहें।। किसलिये थिरके कदम बेसाख़्ता क्या हवाओं ने सुनाया क्या कहें।। ग़ैर अपना क्यों लगे है आजकल दिल हुआ कैसे पराया  क्या कहें।। नींद पर पलकों का पहरा तोड़कर ख्वाब में कैसे समाया क्या कहें।। दुश्मनों को ज़ेब देती है मगर आपने भी आज़माया क्या कहें।। मैं ख्यालों में हँसा तो किसलिये कौन मुझमें मुस्कुराया क्या कहें।। साहनी ने जो न देखा था कभी इश्क़ ने वो दिन दिखाया क्या कहें।। सुरेश साहनी कानपुर
 क्यों लगे है मुझे ज़हां तन्हा। राह तन्हा है कारवां तन्हा।। लोग तो और भी गये होंगे मैं ही जाऊंगा क्या वहाँ तन्हा।। चाँद ने जाके हाथ थाम लिया जब लगा है वो आसमां तन्हा।। दूर तक हैं निशान कदमों के इनमें है कौन सा निशां तन्हा।। दर्दो ग़म और आपकी यादें कब रहा जिस्म का मकां तन्हा।। सुरेश साहनी कानपुर
 कि जो भी खाओगे ज्यादा ही आज खाओगे। नई है भूख छोड़ शर्म लाज खाओगे।। पुराने होते तो शायद लिहाज भी करते नये मियाँ हो ना ज्यादा ही प्याज खाओगे।। ज़मीर रखते तो ऐसा कभी नहीं करते दलाल बन के स्वयं का समाज खाओगे।।
 इश्क़ के दरियाब में उलझे रहे। उम्र भर इक ख़्वाब में उलझे रहे।। फिर मग़ज़ से काम ले पाये ही कब बस दिले बेताब में उलझे रहे।। कैसे मिल पाते भला लालो-गुहर हम तेरे पायाब में उलझे रहे।। हैफ़ हम तस्कीने-दिल को छोड़कर ख़्वाहिशे-नायाब में उलझे रहे।। गर्दिशों में हम रहे हैं शौक़ से मत कहो गिरदाब में उलझे रहे।। दरियाब/नदी, मगज़/दिमाग, लालो-गुहर/हीरे मोती पायाब/उथलेपन, कम पानी,  तस्कीने-दिल/,दिल का आराम, ख़्वाहिश/इच्छा, नायाब/दुर्लभ, गर्दिश/संकट,चक्कर, गिरदाब/भँवर सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 उम्र भर दरवेश जैसा ही रहा। भीड़ में रहकर भी तन्हा ही रहा।। वक़्त बदला लोग भी बदले मग़र एक मैं जैसा था वैसा ही रहा।।साहनी
 चाँद की रखवारियों में दिन गए। ख़्वाब में दिन रात तारे गिन गए।। नींद आंखों से गयी  सुख चैन भी धीरे धीरे ख़्वाब सारे छिन गये।। इश्क़ की किस्मत में तन्हाई रही  यार छूटे छोड़ कर कर मोहसिन गये।। चांदनी ने हाथ थामा ग़ैर का कब्र में हम रोशनी के बिन गए।। साहनी था बादाकश जन्नत गया नर्क में हिन्दू गया मोमिन गये।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 कभी चलाएं ये बुलेट कभी जलाएं रेल। दाग छुपाने हित जपें गांधी और पटेल।।SS दोहा
 वो जो सारे काम काले कर रहा है। इश्तेहारों में उजाले कर रहा है।। आदमी से नफरतों की आड़  में मुल्क ये किसके हवाले कर रहा है।।साहनी
 आपने कब हमें क़रार दिया। जब दिया सिर्फ़ इन्तज़ार दिया।। सब दिया हमने जिसको प्यार दिया। दिल दिया जाँ दी  एतबार दिया ज़ख़्म देकर हज़ार कहते हो आपने ख़ुद को हम पे वार दिया।। बारहा आपने किये वादे और धोखा भी बार बार दिया।। हम तो उजड़े हैं इक ज़माने से आपने कब हमें सँवार दिया।। जिसको सोचा था ज़िन्दगी देगा उसने जीते जी हमको मार दिया।। साहनी उम्र यूँ तवील लगी आरज़ू में इसे गुज़ार दिया।।
 चाहते हैं तुम्हें बहुत लेकिन तुम इसे प्यार वार मत कहना। देखते हैं तुम्हारी राह मगर तुम इसे इंतेज़ार मत कहना।। दिल ने जब तब तुम्हें सदा दी है और ख्वाबों में भी बुलाया है तेरी यादों में जाग कर तुझको अपनी पलकों पे भी सुलाया है इससे दिल को करार मिलता है तुम मग़र बेक़रार मत कहना।। तुम ख्यालों में पास आते हो रह के ख़ामोश मुस्कुराते हो बंद पलकों में कुछ ठहरते हो आँख खुलते ही लौट जाते हो ये जो छल है तुम्हारी आदत में तुम इसे कारोबार मत कहना।। सुरेश साहनी कानपुर
 कब तक मुर्दा ख़्वाब सँजोया ज़् सकता है। आख़िर ख़ुद को कितना ढोया जा सकता  है।। क्या अब भी कुछ ऐसे कंधे मिलते होंगे वो जिन् पर सिर रख कर रोया जा सकता है।। फिर तुम जिस की ख़ातिर खोये से रहते हो उस की ख़ातिर क्या क्या खोया जा सकता है।। फिर उसकी याद आयी है इक हुक उठी है
 क्या मिलेगा इस तिमिर की साधना से क्या उजाले जगमगाना छोड़ देंगे चाँद कुछ दिन लुप्त हो सकता है लेकिन क्या सितारे टिमटिमाना छोड़ देंगे।।
 जा चुके थे मगर लौट आये। फिर से अपने शहर लौट आये।। ग़म तेरे जैसे घर लौट आये। यूँ ही खुशियाँ अगर लौट आये।। वो कशिश हुस्न में तो नहीं थी इश्क़ का था असर लौट आये।। वो तो इस ऒर से बेख़बर थे हम ही लेके ख़बर लौट आये।। एक ठोकर लगी आशिक़ी में और हम वक़्त पर लौट आये।। आसमानों में क्यों हम न जाते जब कि फिर बालो पर लौट आये।।
 तुम वहां अक्सीर से रूठे रहे।  हम हमारी पीर से रूठे रहे।। बादशाही को ख़ुदाई मानकर लोग बस जंज़ीर से रूठे रहे।। बात तब थी रोकते बुनियाद को सब महज़ तामीर से रूठे रहे।। यूँ भी इतना हक़ रियाया को नहीं आप कब जागीर से रूठे रहे।। वो मुक़द्दर हाथ आया ही नहीं हम कहाँ तदबीर से रूठे रहे।। तुम ने सर पटका न हो दीवार पर हम मगर प्राचीर से रूठे रहे।। तुम जहाँ परवाह के मोहताज़ थे हम वहीं तौक़ीर से रूठे रहे।। आईने को तुम न समझे उम्र भर अपनी ही तस्वीर से रूठे रहे।। साहनी हर हाल में था कैफ में और तुम तक़दीर से रूठे रहे।। अक्सीर/ रामबाण औषधि, तक़दीर/भाग्य ख़ुदाई/ईश्वरीय, तामीर/निर्माण, तदबीर/कर्म प्राचीर/दीवार, तौक़ीर/सम्मान, कैफ़/आनंद सुरेश साहनी अदीब Suresh Sahani कानपुर
 क्या ज़रूरी है कि टकराऊँ मैं। क्यों न कतरा के निकल जाऊँ मैं।। अक्ल को इसकी ज़रूरत होगी भैंस को क्यों भला समझाऊं मैं।।साहनी
 ये मत पूछो किधर मैं पल रहा  हूँ। दिया सा अपने दिल मे जल रहा हूँ।। कि हसरत से बियावाँ हो चुका था मगर उम्मीद से जंगल रहा हूँ।।
 कैसे कह दें अम्मा हमको छोड़ गयी थीं ले जाकर श्मशान घाट पर अग्नि तिलांजलि किसने दी थी फिर मरने से पहले भी तो अम्मा कितनी बार मरी थीं केवल माँ अपने रिश्तों को मर मर कर जीवन देती है वे अपने जो समय समय रिश्तों को डसते रहते हैं तुम्हे पता है किसी प्रसव में नया जन्म होता है माँ का सोचो सोचो हमें जन्म दे अम्मा कितनी बार मरी थीं तिनकों से इक नीड़ बनाना इतना भी आसान नहीं है अम्मा और पिता दोनों ने टूट टूट कर घर जोड़ा है अक्सर उनके अरमानों पर पानी भी फेरा है हमने कई बार अम्मा के सपनों को हम सब ने ही तोड़ा है पाई पाई जोड़ गाँठ कर जिन्हें संजोया था अम्मा ने उन्हें टूट जाने पर हमने अम्मा को मरते देखा है किसने बोला देह छोड़ना ही माँ का मरना होता है माँ बच्चों की ख़ातिर जीवन भर तिल तिल मरती रहती है अक्सर ऐसा भी होता है जिसे सहेजा हो इक माँ ने उस आँगन में बंटवारे की अगर कोई दीवार उठे तो ऐसे में अपने जीते जी वह माँ भी मर ही जाती है अच्छा ही है मेरी माँ ने ऐसा कोई  दंश न झेला पर अम्मा की सुधि लेने में कुछ तो हमसे चूक हुई थी
 आना जाना रक्खा कर। ठौर ठिकाना रक्खा कर।। काम बुरे भी आते हैं कुछ याराना रक्खा कर।। ठीक नहीं पर लाज़िम है ठोस बहाना रक्खा कर।। पंछी छत पर आयेंगे आबोदाना रक्खा कर।। तन से तू संजीदा रह मन दीवाना रक्खा कर।। सुरेश साहनी, कानपुर
 ये न पूछो कैसे घर चलता रहा। तुम गये फिर भी सफ़र चलता रहा।। उम्रभर ग़म का कहर चलता रहा। कारवाँ खुशियों का पर चलता रहा।। जैसे चलता है दहर चलता रहा। हर कोई अपनी डगर चलता रहा।। ज़िन्दगी के ज़ेरोबम कब कम हुये वक़्त से ज़ेरो-ज़बर चलता रहा।। राब्ते तो बेतकल्लुफ ही रहे पर तकल्लुफ उम्र भर चलता रहा।। मरहला था ज़िन्दगी का हर ठहर यों भटकना  दरबदर चलता रहा।। मौत ने कब इत्तिला दी जीस्त को साहनी भी बेख़बर चलता रहा।। सुरेश साहनी कानपुर
 तुम्हें हम किस लिये बदनाम कर दें। गंवारा जो नहीं वो काम कर दें।। तुम्हारा नाम लिख दें दिल पे अपने कि अपना दिल तुम्हारे नाम कर दें।।साहनी
 कल थे इक दुख में दुखी सारे पागल लोग। पर उत्सवरत भी रहे कई प्रैक्टिकल लोग।।साहनी
 ले चलो दायें या की बायें चलो फिर नयी राह इक बनायें चलों।। तल्ख़ यादें यहीं पे ख़त्म करें इश्क़ की इब्तिदा पे आयें चलो।।साहनी
 इनसे उनसे दुनिया भर से हैं अपने नाते। संबंधों के मकड़जाल में नित फँसते जाते।। सुर नर मुनि सबकी है रीती स्वारथ की प्रीती एक तुम्ही थी जो इन सबसे अलग रही माते।।साहनी माँ
 उसने क्या कह दिया क़रीब मुझे। लोग  कहने लगे  हबीब  मुझे ।। सारी दुनिया जो हो गयी अपनी ले के आया कहाँ नसीब मुझे।। तू तो सच में नसीब वाला है कह रहा है मेरा रक़ीब मुझे।। मेरे ऊपर ख़ुदा की रहमत है किस नज़र से कहा गरीब मुझे।। मेरा रिश्ता तो है अदीबों से सब न समझे भले अदीब मुझे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 ख़्वाब खयाली का अड्डा कह सकती हो। गुड़िया हो मुझको गुड्डा कह सकती हो।। घर की मोटा भाई तो सच में तुम हो हाँ मुझको जेपी नड्डा कह सकती हो।। साथ तुम्हारे सब भैया कह देते हैं तुम मुझको बेशक़ बुड्ढा कह सकती हो।। टिड्डी दल सा छाप लिया है सालों ने तुम चाहो मुझको टिड्डा कह सकती हो।। हम निरीह हैं हमी विलेन कहलाएंगे तुम पर है कितना बड्डा कह सकती हो।।  सुरेश सुरेश साहनी कानपुर
 जागता भी है सो भी जाता है ये  मुक़द्दर भी आदमी है क्या!!साहनी
 उनकी नज़रों से हम  संवरते  तो आईने ख़ुदकुशी न कर लेते।।साहनी
 जो मित्रों की पोस्ट पर तनिक न् देते ध्यान। सुंदरियों की वाल पर बिछे मिले श्रीमान।। बोझ सदृश लगती जिन्हें  मित्रों की रिक्वेस्ट। महिला मित्रों में बने  बिना बुलाये गेस्ट।।
 कपट कुटिलता क्रूरता शठता शर सन्धान। राजनीति में गुण करें अवगुण का सम्मान।।
 मेरे दिल का सहन खुला था मगर लोग दीवार ले के आये थे।।साहनी
 भाग रहे थे नादानी में रूठ गयी अम्मा। जाने कैसे बीच सफर में छूट गयी अम्मा।। बड़े बड़े तूफानों से टकरा जाती थी, पर अपनी सांसों से लड़ने में टूट गयी अम्मा।। Suresh Sahani  kanpur
 तुम्हारी स्मृति में लिखी कविता अविश्वसनीय सत्य है अकल्पनीय यथार्थ भी क्योंकि सृजन के पलों में तुम नहीं थीं स्मृति में उन एकाकी पलों  में साथ थे कुछ शब्द जो कविता बने..... यह रुष्ट होने वाली बात नहीं तुम्हारी स्मृतियों में गुम हो जाता है मेरे अंदर का कवि और मैं भी.....
 एक बार तौबा किया फिर जन्नत की मौज। इसी सोच से बढ़ गयी, इब्लीसों की फौज।।साहनी
 मेरा वजूद मुझे आजमा के लौट गया। कि आज मैं ही मेरे पास आ के लौट गया।। मेरे ज़मीर को शायद ज़हां न रास आया बढ़े कदम तो वो पीछे हटा के लौट गया।। साहनी
 बीती सुधियों के साथ अभी  जगने की फुर्सत किसको है कुछ देर मुझे जी लेने दो मरने की फुर्सत किसको है।। दो-चार मुहब्बत के आँसू  रो लूँ  तुमको आपत्ति न हो अपनी खुशियों में पागल हो  हँसने की फुर्सत किसको है।। ये पोखर ताल तलैया वन उपवन मजरे सब अपने हैं वरना सागर तक जाना है रुकने की फुर्सत किसको है।। आनन्द दायिनी पीड़ा को जी लेने में कितना सुख हो पर आपाधापी के युग मे सहने की फुर्सत किसको है।।...... सुरेश साहनी, कानपुर
 क्यों उसने यही बात ज़रूरी नहीं समझी। दिन गिनता रहा रात ज़रूरी नहीं समझी। दुनिया के मसावात को बेशक़ दी तवज्जो अपनों से मुलाकात ज़रूरी नहीं समझी।।साहनी
 हर फ़न में माहिर हो जाना चाहेंगे। बेशक़ हम नादिर हो जाना चाहेंगे।। कितना मुश्किल है जीना सीधाई से कुछ हम भी शातिर हो जाना चाहेंगे।। दरवेशों की अज़मत हमने देखी है तो क्या हम फ़ाकिर हो जाना चाहेंगे।। ख़ुद्दारी गिरवी रख दें मंजूर नहीं बेहतर हम मुनकिर हो जाना चाहेंगे।। वो हमको जैसा भी पाना चाहेगा वो उसकी ख़ातिर हो जाना चाहेंगे।। यार ने जब मयखाना हममें देखा है क्यों मस्जिद मन्दिर हो जाना चाहेगे।। इश्क़ हमारा तुमने शक़ से देखा तो टूट के हम काफ़िर हो जाना चाहेंगे।। साहनी
 स्नेह से हम बुलाये जाते हैं। मूर्तियों सम बिठाये जाते हैं।। अब सुखनवर जो पाये जाते हैं। सिर्फ़ अपनी सुनाये जाते हैं।। किस तकल्लुफ़ से आजकल रिश्ते  आप हम सब निभाये जाते हैं।। आप ने याद कर लिया जैसे लोग यूँ भी भुलाये जाते हैं।। आप गुज़रे इधर से मुँह मोड़े इस तरह तो पराये जाते हैं।। किसलिये हम करें गिला उनसे ग़ैर कब आज़माये जाते हैं।। गमज़दाओं की कौन सुनता है फिर भी हम गुनगुनाये जाते हैं।। साहनी कानपुर वाले
 सचमुच है यदि गाँव से कवि जी इतना प्यार। क्यों शहरों की धूल को फांक रहे हो यार।। छल प्रपंच का गर्भ है गांवों की चौपाल। मेड़ मेड़ पर द्वेष है हर खलिहान बवाल।।
 मन मरुथल क्या अश्रु बहाता सजल नयन कितना मुस्काते बहरे श्रवण व्यथा सुनते कब मूक अधर क्या पीर सुनाते........ इधर हृदय के अंतःपुर में सूनेपन ने शोर मचाया नीरवता थी मन की चाहत पर तन को कोलाहल भाया इन्द्रिय अनियंत्रित होने पर मन की शान्ति कहाँ से पाते...... सीमित श्रवण हुये माया वश अनहद नाद सुनें तो कैसे दास वासनाओ का तन मन सुख सन्मार्ग चुने तो कैसे सहज सदा आनंदित रहते मन से अगर विमुख ना जाते....... सुरेश साहनी, कानपुर
 बारिश की धूप छाँव की बातें न कीजिये। मौसम के हावभाव की बातें न कीजिये।। हो के शहर के रह गए इक बार जो गये मुँह देख कर के गाँव की बातें न कीजिये।। साहनी
 ग्राम देव के श्रम सीकर से खेतों की हरियाली का। जाग जाग कर शीत काल में खेतों की रखवाली का।। मान न रक्खा सरकारों ने मर मर जीने वालों का सबने लूटा सबने छीना अन्न उसी की थाली का।।
 मुझसे रिश्ते भी अपने निभाता रहा।  दुश्मने-जां भी मुझको बताता रहा। क्या कहें हम कि जिसका यकीं था मुझे किसलिये उम्रभर आजमाता रहा।। उम्रभर ज़िंदगी मुझसे रूठी रही ज़िन्दगी भर उसे मैं मनाता रहा।। कैफ़ हासिल है इतना मुझे इश्क़ में उम्र भर एक ग़म गुदगुदाता रहा।। ये भी रोने का अंदाज़ है इश्क़ में साहनी हर घड़ी मुस्कुराता रहा।। सुरेश साहनी, कानपुर
 कछु अड्ड मिलें ,कछु बड्ड मिलें जँह हमरे जैस उजड्ड मिलें समझो कवियों का जमघट है। बातन मा योग बिछोह दिखै हरकत हो अइस गिरोह दिखै समझो कवियों का जमघट है।। जँह रात में भैरव गान मिलै जँह तालें तूरत तान मिलै समझो कवियों का जमघट है।। जँह सारे उटपटांग मिलै जँह भाषा टूटी टांग मिलै समझो कवियों का जमघट है।। #सुरेशसाहनी
 ऐरे गैरे नत्थू खैरे  मंच पे नाम कमाय रहे है काल्हि के जउन फिसड्डी रहे सब हमहुँ से आगे जाय रहे हैं कविता  ना रही  जिनके ढिग में उई खाय कमाय अघाय रहे हैं माँ मेरे लिए कृपा वीणा के स्वर  मद्धिम क्यों पड़ जाय रहे हैं।। हास्य व्यंग्य
 दर्दोग़म हम भूल चुके हैं। उनके सितम हम भूल चुके हैं।। भूल गये हैं ज़ख़्म उभरना हर मरहम हम भूल चुके हैं।। क्यों अब उनको याद रखे जब अपना हम हम भूल चुके हैं।। आप अभी तक उन बातों पर हैं बरहम हम भूल चुके हैं।। सूख चुका है दिल का दरिया अब संगम हम भूल चुके हैं।। सुरेश साहनी कानपुर
 क्षीण हैं पौरुष भुजायें मौन हैं द्रौपदीयों पर सभायें मौन हैं अग्निपुत्री नग्न होती जा रही आस्थाएँ भग्न होती जा रही कौन ढोये धर्म जब पीढ़ी नयी वासना में मग्न होती जा रही आज हतप्रभ हैं दिशायें मौन हैं सत्य विचलित वेदनायें मौन हैं.......  सत्य हम संधान करते रह गये योग साधन ध्यान करते रह गये एकलव्यों की  यही गुरु भक्ति है  बस अँगूठा दान करते रह गये और गुरुओं की कृपायें मौन हैं......
 सत्य का संधान करता रह गया। योग साधन ध्यान करता रह गया। एकलव्यों की  यही गुरु भक्ति है  बस अँगूठा दान करता रह गया।।
 फना होने की जुरअत कर रहे हो। यक़ीनन तुम मुहब्बत कर रहे हो।। मुहल्ला कातिलों का है समझ लो जो बसने की हिमाक़त कर रहे हो।। चलो अंजाम से पहले बताओ ये दिल किसको वसीयत कर रहे हो।। जवाब आया कि अब भी मुन्तज़िर हो अज़ल से ख़त किताबत कर रहे हो।।
 भाव मुखरित हो गये फिर आज जब तुम याद आये। मौन सहमति पर अधर ने गीत नयनों से बहाये।। स्वप्न थिरके फिर नयन में नींद बरसों बाद आयी रातरानी सी महक इक फिर से साँसों में समायी यूँ लगा फिर से हमारी गैल पर हम लौट आये।।......
 नफ़रत को भी इस बात का इमकान है शायद। इन्सान मुहब्बत से परेशान है शायद।। गुलज़ार है जिस ढंग से बस्ती तो नहीं है आबाद यहाँ पर कोई शमशान है शायद।। डरता हूँ कहीं रश्क न हो जाये ख़ुदा को घर मेरी तरह उसका भी वीरान है शायद।। ये सच है कि तू ही मेरी उलझन की वजह है तू ही मेरे तस्कीन का सामान है शायद।। इस नाते मुबर्रा है  तलातुम से ज़हां के घर उसका अज़ल से ही बियावान है शायद।। नफ़रत/घृणा इमकान/अंदेशा, सम्भावना ,सामर्थ्य रश्क/ईर्ष्या वजह/कारण तस्कीन/सुकून, शांति,राहत मुबर्रा/उदासीन, विरक्त, निस्पृह तलातुम/लहरें, उठापटक, उथल पुथल अज़ल/सृष्टि के आरम्भ से बियावान/जंगल, जन शून्य, निर्जन सुरेश साहनी कानपुर
 अगर वो था नहीं तहरीर ही में। तो बेहतर था न आता ज़िन्दगी में।। किनारा बन के मुझसे दूर रहता मुहब्बत को बहा देता नदी में।। न उस से दूर रहते कैफ़ सारे न ग़म हँसते हमारी हर खुशी में।। खुशी रहती है चारो ओर अपने नहीं दिखती है मन की तीरगी में।। सदाक़त से उन्हें मतलब कहाँ है कमी जो देखते हैं साहनी में।। तहरीर/भाग्य लेख कैफ़/आनंद तीरगी/अँधेरा सदाक़त/सच्चाई,खरापन, मन की पवित्रता सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 किसी के पास आना चाहती थी। कि ख़ुद से दूर जाना चाहती थी।। तबस्सुम दब गयी तो किस वजह से वो लड़की खिलखिलाना चाहती थी।। मिली थी जिस क़दर ख़ामोश होकर यक़ीनन कुछ बताना चाहती थी।। ये ऐसा दौर है इसमें ग़लत क्या अगर वो आज़माना चाहती थी।। अभी भी मुझमें कुछ बदला नहीं है मुझे वो क्या बनाना चाहती थी।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 चुप होकर निज अस्मिता पर सह रहे प्रहार। क्यों लेकर उठते नहीं तुम निज हाथ कुठार।।
 कल का पूरा दिन हिंदी भाषा के नाम रहेगा। केवल कल के दिन सबको हिंदी से काम रहेगा।। केवल कल के दिन हम सब हिंदी की बात करेंगे फिर हिंदी पर एक वर्ष तक पूर्ण विराम रहेगा।। कल लिसनिंग होगी हिंदी हिंदी में टॉक करेंगे। वर्क करेंगे हिंदी में   हिंदी में  वॉक करेंगे।। हिंदी भाषा से माता कहलाएगी कल दिन भर कथक नहीं कल हिंदी में हम डिस्को रॉक करेंगे।। ड्रिंक नहीं कल  केवल कोला पीकर  दिन काटेंगे। कल का सारा दिन पिज़्ज़ा बर्गर के बिन काटेंगे।। कल बच्चों के कॉन्वेंट को विद्यालय बोलेंगे कल हिंदी में दिवस प्रहर घण्टा पल छिन काटेंगे।। केवल कल के दिन हम हिंदी का गुणगान करेंगे। कल केवल हम अपनी हिंदी का सम्मान करेंगे।। इंगलिश वालों  को  डोनेशन  तो  हरदम  देते  है एक दिवस  हिंदी को भी  सौ दो सौ दान करेंगे।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 हो गयी गुम आपकी तस्वीर फिर। मिट गई है वस्ल की तहरीर फिर।। वस्ल/मिलन तहरीर/भाग्य लेख इस तरह रूठी है मुझसे ज़िन्दगी कब्र की दिखने लगी शहतीर फिर।। शहतीर/लकड़ी की बीम या लट्ठा हाँ दवा को वक़्त कुछ कोताह था फ़ातिहा पे कर न दे ताख़ीर फिर।। कोताह/कम फ़ातिहा/श्राद्ध वचन ताख़ीर/विलम्ब उलझनों से खाक़ आज़ादी मिली  मिल गयी पैरों को इक ज़ंज़ीर फिर।। देर से आया मगर आया तो मैं रख ले मौला अपना दामनगीर फिर।। दामनगीर/परमात्मा का शरणार्थी सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 धर्म ग्लानि तो बहुत हो चुकी अब कब आओगे। धरा पाप भी बहुत ढो चुकी अब कब आओगे।। एक द्रोपदी की पुकार सुन दौड़ पड़े थे नाथ नारी अब सर्वस्व खो चुकी अब कब आओगे।। सुरेश साहनी कानपुर
 गज  को घेरे पुनः ग्राह है अब कब आओगे। सब ने पकड़ी गलत राह है अब कब आओगे। बूआ का कुनबा तबाह था तुमने बचा लिया अब सारी दुनिया तबाह है अब कब आओगे।।
 प्रभुप्रिय भडुआ भांड नट चोर चतुर बटमार। जब से आये साथ सब चला रहे सरकार।।
 कोई बच्चा क्यों करेगा खेलने खाने की ज़िद। जो अभी से कर रहा है कर्बला जाने की ज़िद।। बादशाहों औरतों बच्चों की ज़िद से भी बड़ी ख़ुद पे आ जाये तो समझो एक दीवाने की ज़िद।। है भरम में शेख़ वो मयखाने कर देगा तबाह और उसे बेख़ुद करेगा है ये मयखाने की ज़िद।। ज़िद वो परमानन्द से मिलने की लेकर चल दिये आप करिये अब जलाने या कि दफनाने की जिद ।। ख़ुद नुमाइश में भले शम्मा  जले है रात पर देखने लायक फ़क़त होती है परवाने की ज़िद।। एक दिन ख़ुद छोड़ देगी ज़िन्दगी तनहा तुम्हें किस भरम में कर रहे हो सब को ठुकराने की ज़िद।। घूमता है सर हथेली पर लिए अब चार सू साहनी में आ गयी है एक मस्ताने की ज़िद।। साहनी सुरेश कानपुर 9451545132
 ख़ुदा से अगर आशनाई नहीं है। तो बन्दों से भी कुछ बुराई नहीं है।। तो क्या खाक़ जन्नत से होगा तआरुफ़ अगर मयकदे तक रसाई नहीं है।। ये टीका ओ टोपी  का मतलब ही क्या है तबीयत अगर पारसाई नहीं है।। अगर हैं मुहब्बत में बदनामियाँ भी तो नफ़रत में भी कुछ बड़ाई नहीं है।। हमें जिसका डर तू दिखाता है नासेह ख़ुदा है वो कोई कसाई नहीं है।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 कुछ क्या खाक़ कमा पाये हम। जो था मिला लुटा आये हम।। इस दुनिया की चकाचौंध में आंखें लेकर अन्हराये हम।। सागर में ज्यूँ बूंद सरीखे अहंकार में उफनाये हम।। भूल गये थे जग मरघट है तन फ़ानी पे इतराये हम।। दुनिया मुट्ठी में कर ली थी किन्तु चले कर फैलाये हम।। अन्तर्मन की मैल न छूटी कितना ख़ुद को नहवाये हम।। जब बाबुल घर ही जाना था फिर पीहर क्यों कर धाये हम।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 जाने कब से थी रिश्तों में  कड़वाहट ठंडक औ सीलन पास सभी मिल कर बैठे तो मानो इनको धूप मिल गयी।। उपहारों में घड़ियां देकर हमने बस व्यवहार निभाया कब अपनों के साथ बैठकर हमने थोड़ा वक्त बिठाया जब अपनों को समय दिया तो बंद घड़ी की सुई चल गई।। कृत्रिम हँसी रखना चेहरों पर अधरों पर मुस्कान न होना सदा व्यस्त रहना ग़ैरों में पर अपनों का ध्यान न होना साथ मिला जब स्मृतियों को मुरझाई हर कली खिल गयी।। फिर अपनों को अस्पताल में रख देना ही प्यार नहीं है अपनेपन से बढ़कर कोई औषधि या उपचार नहीं है छुओ प्यार से तुम्हें दिखेगा उन्हें जीवनी शक्ति मिल गयी।। सुरेश साहनी,kanpur
 हर घड़ी पाँव में जंजीर  लिए फिरते हैं। हम जो दिल में तेरी तस्वीर लिए फिरते हैं।।
 मामला ज़ेर-ए- बहस है क्या। हाले दिल अब भी जस का तस है क्या।। ज़िन्दगी इक सवाल तुझसे भी जिस्म ही जान का कफ़स है क्या।। इश्क़ करके भी क्या हुआ हासिल इसकी मन्ज़िल फ़क़त हवस है क्या।।
 देखने में भली न थी लेकिन। उसमें कोई  कमी न थी लेकिन।। वो परीजाद थी मेरी ख़ातिर जानता हूँ परी न थी लेकिन।। जां हथेली पे ले के जाते थे हुस्न की वो गली न थी लेकिन।। उस के शिक़वे बुरे तो लगते थे उस की मंशा बुरी न थी लेकिन।। मैं समझता था वो समझती है बात मेरी सही न थी लेकिन।। जान तो मेरी उसमें बसती थी हाथ में वो लिखी न थी लेकिन।। साहनी वो हसीन ख़्वाब सही उसकी ताबीर ही न थी लेकिन।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 चेहरा मेरा ज़र्द बहुत है। या दर्पण पर गर्द बहुत है।। मंज़िल तक कितने पहुँचेंगे एक कोई राह-नवर्द ब
 मुझसे मेरे दिल की दूरी ठीक नहीं। यूँ रिश्तों में खानापूरी ठीक नहीं।। मजबूरी में रिश्ते ढोना ठीक मगर रिश्तों में कोई मजबूरी ठीक नहीं।।
 फिर महल के लिये झोपड़ी हँस पड़ी। धूप ढल सी गयी चांदनी हँस पड़ी।। ज़ुल्म ने देखा हसरत से बेवा का तन काम के दास पर बेबसी हँस पड़ी।। उम्र भर जो डराती फिरे थी उसी मौत को देखकर ज़िन्दगी हँस पड़ी।। मौत के डर से  भागी इधर से उधर आज करते हुए खुदकुशी  हँस पड़ी।। रोशनी  अपने होने के भ्रम में रही साथ दे कर वहीं तीरगी  हँस पड़ी।। जन्म से मृत्यु तक जीस्त भटकी  जिसे है सफ़र  सुन के आवारगी हँस पड़ी।। सुरेशसाहनी कानपुर
 भले तुमसे मिठाई हम न लेंगे। मगर कम एक पाई हम न लेंगे।। समझ लेना तुम्हारे साथ हैं पर विधायक से बुराई हम न लेंगे।। मेरे पी ए को दे देना जुटा कर रुपैय्या तुमसे भाई हम न लेंगे।। अगर मेहनत का है तो घूस दे दो कोई काली कमाई हम न लेंगे।। ये सुख सुविधा ये गाड़ी और बंगला सभी के काम आयी हम न लेंगे।। #हज़ल #व्यंग सुरेश साहनी कानपुर
 जब अपने ही अहम में, देवें दिल की पीर। उन्हें दिखाओ खींच कर उनसे बड़ी लकीर।। साहनी दोहा
 और कितने यहाँ ग़ज़लगो हैं। एक है चार हैं कि दूगो हैं।। और हर एक की अलग आढ़त अपने अपने सभी के लोगो हैं।। हर कोई है अना में चूर यहाँ हद से ज़्यादा सभी के ईगो हैं।। हैं तो शायर मगर फ़रेब भरे उनमें कितने यहां दरोग़-गो हैं।। और तनक़ीद क्यों करें उनपे साहनी कौन से नग़ज़-गो हैं।। ग़ज़लगो/कवि, ग़ज़ल कहने वाला दूगो/दो लोग अना/घमंड ईगो/अहंकार तनक़ीद/टिप्पणी लोगो/प्रतीक चिन्ह दरोग़-गो/झूठा नग़ज़-गो/अच्छा लिखने वाला साहनी सुरेश 9451434132
 मन तुम तक क्या ले गयी अमलतास की गंध। झट विषाद ने कर लिया मौसम से अनुबंध।। लुभा न पाये रूप से दहके हुये पलाश। मन जाकर ठहरा रहा गुलमोहर के पास।। दोहे
 ज़िन्दगी क्यों उबल रही थी बता। कौन सी बात खल रही थी बता।। मुझको तन्हाइयों ने क्यों घेरा जबकि तू साथ चल रही थी बता।। मुझको साहिल पे छोड़ कर तन्हा क्यों लहर बन मचल रही थी बता।। मौत कैसे निकल गयी आगे तू तो आगे निकल  रही  थी बता।। ख्वाहिशें कौन सी हुयी पूरी हसरतें कितनी पल रही थी बता।। मेरे साये ने साथ क्यों छोड़ा शाम क्या सच में ढल रही थी बता।। साहनी मयकदे में क्यों लौटा चाल किसकी सम्हल रही थी बता ।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 जाने क्यों मुझे लग रहा है कि मैं सपना देख रहा हूँ। जिस चाँद को अल्ला मिया ने इतना खूबसूरत बनाया था कि हमारे जैसे शायर उसकी शान में जाने क्या क्या लिख गये हैं और लिख रहे है। लेकिन क्या बतायें।  बुजुर्गाने-दीन यूँ ही नहीं फरमा गये हैं कि हुस्न को पर्दे में रहना चाहिये। पर क्या किया जाये। आख़िर वो हो ही गया जिसका डर था। चाँद की सारी कमियां मन्ज़रे आम हो गयीं। अजी दाग धब्बे तो छोड़िये कील मुंहासे तक दिखायी दे गये।   अभी मैं कुछ सोच पाता कि उसके पहले ही मेरे बेसिक फोन की घण्टी बज पड़ी। में भी आश्चर्य में था कि कोई दस बारह साल हो गये इस फोन की घण्टी बजे हुये।भारत संचार निगम से इस फोन का सम्बंध-विच्छेद  बहुत पहले हो चुका है।अब पुराने बिल ,एक दूरभाष निर्देशिका और इस यंत्र के रूप में टेलीफोन विभाग की स्मृतियाँ ही शेष बची हैं।     खैर मैंने लेटे लेटे  स्पीकर ऑन कर दिया।उधर से जो बाइडेन साहब लाइन पर थे।बेचारे बोल पड़े यार आप लोग हमारे पीछे काहे पड़े हो?  मैंने कहा , सर! हम लोग वैसे पुरूष नहीं हैं जो आदमी के पीछे पीछे लुलुवाये फिरें। और जब दुनियां भर की विश्व...
 नाहक़ उपमायें देता था नाहक़ मैं तुलना करता था मेरा चाँद अधिक सुन्दर है पर तुमको बोला करता था इतने कील मुहांसे तुममें इतना रूखा सूखा चेहरा नाहक़ कोमल कोमल शब्दों में तुमको तोला करता था तुमसे ज़्यादा किसे पता है नवग्रह बन्दी थे रावण के मंगल सूर्य और शनि मानो सेवक थे दसशीश चरण के तुम्हें पता है भारतवंशी गणना में कितने आगे थे काल समय घोषित करते हैं पहले से प्रत्येक ग्रहण के लुकाछिपी की या छलने की सदा रही है प्रवृति तुम्हारी पर खगोल सब भेद तुम्हारे पहले भी खोला करता था..... सुरेश साहनी, कानपुर
 दम घुटता है सोने चाँदी की दीवारों में। चलकर बैठें अपने जैसे ग़म के मारों में।। ज़ेरे -ज़मीं तो आते जाते दुनिया दिखती है कौन सदा रह पाया है ऊंची मीनारों में।। काले काले अक्षर पन्ने घेरे रहते हैं क्या काला सच भी छपता है अब अखबारों में।। सामाजिकता छिन्न हुई है अंधी दौड़ों से बच्चे घर कम ही आते हैं अब त्योहारों में।। अब महंगाई सहना ही जनता की किस्मत है मूल्य बहुत माने रखते थे तब  किरदारों में।। चंद्रयान ने तेरी सच्चाई दिखला ही दी  तू नाहक़ नखरे लेता था रहकर तारों में।। मेरा चंदा तब भी तुमसे ज्यादा सुन्दर है चाँद तुम्हारी गिनती होगी लाख हज़ारों में।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 धर्म का ऋण चुका गये तुलसी। राम कीरत जो गा गये तुलसी।। राम में ही रमा गये तुलसी प्रभु हृदय में समा गये तुलसी।। क्या कोई दूसरा कमाएगा नाम जितना कमा गये तुलसी।। जबकि सिर पर न कोई साया था फिर भी दुनिया में छा गये तुलसी।। डूब ही जाती धर्म की नैया बन के केवट बचा गये तुलसी।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 जैसे हर इंसान अलग है। दुनिया और ज़हान अलग है।। इसी तरह से इस दुनिया हर इक का भगवान अलग है।। और ख़ुदा का भी डर है तो कैसे वो शैतान अलग है।।
 फ़क़त झूठे दिलासे दे रहा है। न् जाने कब से झांसे दे रहा है।। वो वादों के उजासों में भुलाकर दुआओं में कुहासे दे रहा है।। ज़रा सा भी किसी ने चूं चपड़ की उसे फेरा में फांसे दे रहा है।। तभी उम्मीद की हर देवकी को समय जेलों में ठासे  दे रहा है।।
 गर्म सांसें मेरी शीतल कर दो। मैं हूँ सहरा मुझे जलथल कर दो।। कतरा कतरा मैं बरस जाऊंगी गोया दरिया हूँ मैं बादल कर दो।। मेरी सांसों में महक कर मेरे बूटा-ए-जिस्म को सन्दल कर दो।। यूँ गुज़र जाओ जुनूँ की हद से इतना चाहो मुझे पागल कर दो।। मुझमे जन्मों का अधूरापन है प्यार से अपनी मुकम्मल कर दो।।
 शाम हुई चलने देते हैं सूरज  को ढलने देते हैं ऐसा करते हैं आंखों में  कुछ सपने पलने देते हैं।। क्या सूरज ही बनजारा हैं हम भी तो बंजारे ठहरे आज उठे जो इस दर से हम कल जाने किस द्वारे ठहरे संध्या को सुरमई नयन में कुछ काजल मलने देते हैं..... यह तो तय है रात बिता कर कल सूरज फिर से निकलेगा कब तक अँधियारा जागेगा कब तक सूरज आँख मलेगा चलो अमा में भी आशा का एक दिया जलने देते हैं....... सूर्य विवश है नियत समय पर सुबह उगा है शाम ढला है किन्तु नियति ने साथ समय के मिलकर हमको खूब छला है और नियति को कदम कदम पर हम ही तो छलने देते हैं....... सुरेश साहनी , कानपुर 9451545132
 कसम क्या आपकी हम जान खा लें। रुको बस एक बीड़ा पान खा लें।। कहो तो आपकी पहचान लें लें। कहो तो आपका उनवान खा लें।। बरस सौ बाद यह मौका मिला है बचा जितना है हिंदुस्तान खा लें।। सिखा कर धर्म नफ़रत का सभी को समूचे मुल्क़ का ईमान खा लें।। हमारी भूख सुरसा से बड़ी है हमें क्या क्या न चहिए क्या न खा लें।। सियासी हैं न खायें प्याज लहसुन भले हम वक़्त पे इंसान खा लें।। व्यवस्था आजकल सुनती कहाँ है बताओ और किसके कान खा लें।। सुरेश साहनी ,कानपुर 9451545132
 जां से जब तक कि हम न जायेंगे। ज़िंदगानी के ग़म न जायेंगे।। कुछ तुम्हारे वहम न जायेंगे। कुछ हमारे भरम न जायेंगे।। चार कन्धे मिलें तो रुख़्सत हों यूँ तो हम दो क़दम न जायेंगे।। बेख़ुदी मयकदे का हासिल है अब तो दैरोहरम न जायेंगे।। अहले दोज़ख़ हैं सब ज़हां लेकिन यार जन्नत भी कम न जायेंगे।। हो के ख़ामोश सह रहे हैं सब यूँ तो जुल्मोसितम न जायेंगे।। तुम भी तन्हा ज़हां में आये थे हम भी लेके अलम न जायेंगे।। क्या करेंगे अदीब महफ़िल में जब हमारे सनम न जायेंगे।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 बनाकर इक बहाना छोड़ देना। फ़कीरों का घराना छोड़ देना।। जहां तुमको लगे तन्हाइयाँ है तुम उस महफ़िल में जाना छोड़ देना।। तराना छेड़ना जब आशिक़ी का मुहब्बत आजमाना छोड़ देना।। गुणनफल में विभाजित ही हुए हो न जुड़ना तो घटाना  छोड़ देना।। दिया है तो लिया भी है मेरा दिल ये  बातें  दोहराना  छोड़  देना।। तुम्हें किसने कहा है याद करना फ़क़त तुम याद आना छोड़ देना।। सुरेश साहनी कानपुर
 जिस्म है या कोई मकां तन्हा। रह लिये फिर भी हम यहाँ तन्हा।। आसमानों में कोई रहता है लापता और लामकां तन्हा।। चाँद तारें हैं कहकशांयें भी अब न कहना है आसमां तन्हा।। सोचना तीरगी के आलम को जब हुआ कोई जौ-फिशां तन्हा।। हुस्न जब भी  गया है महलों में सिर्फ़ होता रहा ज़ियाँ तन्हा।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 कौन कौन सी कहें कहानी कौन कौन सी बात बतायें। झूठ बखाने सिर्फ़ जीत की  या फिर सच की मात बतायें।। कब रह पाये सात जन्म तक साथ निभाने वाले बंधन  कहाँ प्रेम अरु कहाँ सहजता हर रिश्ता जैसे अनुबन्धन  क्या है जन्म जन्म का नाता  किसको फेरे सात बतायें।। कैसे रिश्ते क्या मर्यादा टूट चुका है तानाबाना आज स्वार्थवश पुत्र पिता को कहने लगता है बेगाना वृद्धाश्रम में किसे वेदना  बूढ़े पितु और मात बतायें।। कहाँ बचे अब गांवों में भी घर ऐसी आबादी वाले परनाना परनानी वाले परदादा परदादी वाले क्या अब गाकर अपनी पीड़ा  बूढ़े  पीड़ित गात बतायें।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 आप ख़ुशबू हैं फ़िज़ा में गोया। हम फ़क़त धूल हवा में गोया।। कितने अरमान धुआँ हैं जिससे कोई बिजली है अदा में गोया।। हर कोई नूर हुआ चाहे है जीस्त है उसकी शुआ में गोया।। आज डरती हैं बलायें हमसे कोई रखता है दुआ में गोया।। वो भी उल्फ़त का है मारा शायद दर्द है उसकी सदा में गोया।। सुरेश साहनी कानपुर
 आप कितने बड़े सितमगर हैं। अहले-उल्फ़त हैं हम भी दिलवर हैं।। आप भी ख़ाली हाथ जाएंगे आप बेशक़ कोई सिकन्दर हैं।। आप का हुस्न है गुहर कोई इश्क़ में हम भी इक जवाहर हैं।। लाख दुनिया ज़हां के मालिक हो दिल की दुनिया में सब बराबर हैं।। कर दिया आपको ग़ज़ल जिसने साहनी जी वही  सुख़नवर हैं।। सुरेश साहनी, अदीब,  कानपुर 9451545132
 कहाँ तक करें उनके आने की बातें। वो आते ही करते हैं जाने की बातें।। मुझे तो यक़ीं है वफाओं पे अपनी वो करते रहें आज़माने की बातें।। घड़ी दो घड़ी का ठिकाना नहीं है करें हश्र तक क्यों निभाने की बातें।। तुम्हें कुछ हैं शिक़वे गिले मुझसे कह लो मैं क्यों कर सुनूंगा ज़माने की बातें।। अभी सुन रहे थे कि परदा उठेगा अभी से ये पर्दा गिराने की बातें।। वो क्या अपनी ज़ुल्फ़ों का साया करेंगे जो करते हैं दामन छुड़ाने की बातें।। ज़हां भर को जब मुतमइन कर रहे हैं तो क्यों साहनी को सताने की बातें।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 जब कभी ज़िन्दगी से बात हुयी। यूँ लगा अजनबी से बात हुयी।। इतनी राजी खुशी से बात हुयी। गोया मेरी मुझी से बात हुयी।। जो मुझे आइने में दिखता है कल उसी आदमी से बात हुयी।। जिस तसल्ली से बात करनी थी उतनी आसूदगी से बात हुयी।।  राज मेरे अयाँ हुये मुझपर इतनी बेपर्दगी से बात हुयी।। जीस्त का रूठना अजीब लगा कब भला बेरुखी से बात हुयी।। हर तरह पारसा लगा मुझको जब मेरी साहनी से बात हुयी।। आसूदगी/आराम,इत्मिनान अयाँ/प्रकट बेपर्दगी/ खुलेपन जीस्त/ जीवन पारसा/पवित्र, धर्मात्मा सुरेश साहनी कानपुर
 यह बीमारी मुझको ही है तुमको रोग न ये छू पाया मैं तन का भोगी होता तो मुझ को रोग न ये छू पाता कलियों का रस पीता क्यों कर एक पुष्प पर प्राण लुटाता अर्थ प्रेम है अर्थ प्रेम का इतना मुझको समझ न आया...... जन्म जन्म के बन्धन वाले प्रेम न अब कोई करता है अब का प्रेम बुलबुला जैसा बनता है फूटा करता है आज व्यर्थ का विषय मनन है  किसने कितना साथ निभाया ....... सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 अपना कहीं पड़ाव नहीं है। रुकने का भी चाव नहीं है।। जैसा हूँ वैसा दिखता हूँ ज़्यादा बोल बनाव नहीं है।। क्यों उनसे दुर्भाव रखूँ मैं बेशक़ उधर लगाव नहीं है।। पैरों में छाले हैं लेकिन मन पर कोई घाव नहीं है।। मन क्रम वचन एक है अपना बातों में बिखराव नहीं है।। जीवन है इक बहती नदिया  पोखर का ठहराव नहीं है।। राम सुरेश न मिल पाएंगे अगर भक्ति में भाव नहीं है।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 वीणा के तार इतना न कसो कि टूट जाये ढीला भी यों न छोड़ो  कि छिड़े तो सुर न आये तन के बिना बताओ क्या साधना करोगे जब तुम न होंगे ज्ञानी क्या ज्ञान का करोगे फिर ज्ञान भी वही है जो जग के काम आये
 पागल होना चाह रहे हो। या दुनिया को थाह रहे हो।। रिश्ते भी परवाह करेंगे पर क्या उन्हें निबाह रहे हो।। दुनियादारी के मसलों में पड़ तो ख़्वाहमख़्वाह रहे हो।। इश्क़ औ मुश्क कहाँ छिपते हैं बेशक़ पशे-निगाह रहे हो।। इश्क़ जुनूँ है पा ही लोगे तुम भी अगर तबाह रहे हो।। शिर्क है इसमें ग़म का शिकवा किसके लिए कराह रहे हो।। तुम सुरेश जन्नत मुमकिन है कर तो वही गुनाह रहे हो।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 जब ढाई आखर में सारे  जीवन का सार समाया है। फिर लम्बी चौड़ी रचनायें लिखने से क्या हासिल होता।। जब मानव ने पढ़ लिया प्रेम तब रहा न कोई लोभ शेष तब दुनिया भर के धर्म ग्रंथ पढ़ने से क्या हासिल होगा।।
 ज़िंदगी उनकी राह ले आयी धर उम्मीदों की बांह ले आयी।। जिक्र मेरे फकीर को लेकर कौन से खानकाह ले आयी।। लग रहा है कि दिल की दुनिया में फिर से करने गुनाह ले आयी।। या फकीरों के बीच में मुझको  कह के आलम पनाह ले आयी।। या कि मेरे सुकून से जलकर मुझको करने तबाह ले आयी।।
 दिशा नहीं आयाम मिल गये। घर पर चारो धाम मिल गये।। तुम से मिलकर लगा अकिंचन हनुमत को श्रीराम मिल गये।।
 जब तुम ही कह रहे हो वो प्यासा लगा तुम्हें। फिर कैसे बोलते हो वो दरिया लगा तुम्हें।। ऐसा लगा तुम्हें कभी वैसा लगा तुम्हें। क़िरदार से ये साहनी कैसा लगा तुम्हें।। कतरा सही मैं फिर भी समुन्दर की जात हूँ किस तौर किस लिहाज से तिशना लगा तुम्हें।। ग़म थे तुम्हारी याद के मन्ज़र तमाम थे बोलो मैं किस निगाह से तन्हा लगा तुम्हें।। तुम इश्क़ में रहे हो कहो कैसे मान लें औरों का इश्क़ जबकि तमाशा लगा तुम्हें।। सहरा-ए-कर्बला है ये दुनिया मेरे लिए क्या मैं कभी हुसैन का सदका लगा तुम्हें।। सुरेश साहनी , कानपुर 9451545132
 ज़िन्दगी को ज़िन्दगी का प्यार देना चाहिये। जो भी जिसका है उसे अधिकार देना चाहिये।। दुश्मनी में वक़्त अपना किसलिये ज़ाया करें दिल से अपने दुश्मनी को मार देना चाहिये।।
 कल मैं ही मुझको आईने में अज़नबी लगा। क्या अपने साथ आप को ऐसा कभी लगा।। हर रोज़ दे रही है  बढ़ी उम्र दस्तकें चेहरा नहीं ये वक्त की खाता बही लगा।। लेकर तुम्हारा इश्क़ गया मौत के करीब फिर भी तुम्हारा इश्क़ मुझे ज़िन्दगी लगा।। मेरे लिये तो तुम सदा अनमोल ही रहे क्या मैं कहीं से तुमको कभी कीमती लगा।। तुम देवता कहो मेरी चाहत न थी कभी इतना बहुत है मैं भी तुम्हें आदमी लगा।। अपना तो तुमने मुझको बताया नहीं कभी कैसे कहूँ कि मैं भी तुम्हारा कोई लगा।। कल तुमने किसको देख के चेहरा घुमा लिया तुम जानते थे या कि तुम्हें साहनी लगा।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 नूर वाले फिर से आने से रहे। अब उजाले फिर से आने से रहे।। इतने तमगे रास्तों ने दे दिए पग में छाले फिर से आने से रहे।। भूख थी जब माँ खिलाती थी हमें वो निवाले फिर से आने से रहे।। वालिदों की नज़र और शर्मोहया वैसे ताले फिर से आने से रहे।।
 दूर रहकर तलाश करता है। पास आकर तलाश करता है।। आईना रोज मेरी आंखों में जैसे इक डर तलाश करता है।। आशना है मगर न जाने क्या मुझमें अक्सर तलाश करता है।। इश्क़ सहराब तो नहीं दरिया क्यों समुंदर तलाश करता है।। ज़िन्दगी के सफ़र में जाने क्यों आदमी घर तलाश करता है।। हैफ़ मय को हराम ठहराकर शेख़ कौसर तलाश करता है।। इश्क़ करता था साहनी कल तक आज पैकर तलाश करता है।। सुरेश साहनी कानपुर  9451545132
 आदमी को खल रहा है आदमी। जाने  कैसे पल  रहा है आदमी।। इक उनींदी आँख में सोया हुआ ख़्वाब लेकर चल रहा है आदमी।। जानवर से भी हैं हिंसक हरकतें क्या कभी जंगल  रहा है आदमी।।
 विक्रम तड़प रहा है बेताल रो रहा है। ये मुल्क आज होके बदहाल रो रहा है।। रोना तो मछलियों की किस्मत में है अज़ल से कितनी अजीब बात है घड़ियाल रो रहा है।।
 कब नज़र को सलाम करता है। हुस्न ज़र को सलाम करता है।। इश्क़ जैसा हटा नहीं होता हुस्न मतलब से काम करता है।।
 कोई नया खयाल हो तब तो ग़ज़ल कहें। कुछ ठीक हाल चाल हो तब तो ग़ज़ल कहें।। वो कह रहे हैं कुछ मेरे रुखसार पर कहो उनमें कोई जलाल हो तब तो ग़ज़ल कहें।।
 तेरे दर से जो हम चले आये। ढूंढ़ने  हमको ग़म चले आये।। लोग तक़सीम हो गये कितने हम जो दैरोहरम  चले आये।। आज फिर वो नहीं मिला दिल से हम लिये चश्मनम चले आये।। अब सुराही की क्या ज़रूरत है जब वो ख़ुद होके खम चले आये।। जबकि आया ही था ख़याल उनका और वो बाज़दम चले आये।। क्या कयामत हुई कि मैय्यत में ख़ुद हमारे सनम चले आये।। साहनी फ़र्क़ क्या पड़ा तुमको मयकदे से अदम चले आये।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 लोग पढ़ते हैं या नहीं पढ़ते। हम तो इस फेर में नहीं पड़ते।। हर कहीं इत्तेफाक रखते तो हम किसी आंख में नही गड़ते।। मौत से निभ गयी इसी कारण ज़िन्दगी से कहाँ तलक लड़ते।। किस को तुलसी कबीर होना था हम भी बढ़ते तो हाथ भर बढ़ते।। और मशहूरियत से क्या मिलता ख्वामख्वाह हर निगाह में चढ़ते।। इश्क़ और उस नवाबजादी से उम्र भर ग़म की जेल में सड़ते।। साहनी से ग़ज़ल अजी तौबा फिर ज़ईफ़ी में हुस्न क्या तड़ते।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 बंदूक एक सुंदर गहना है जिसे अच्छे लोग धारण करते हैं कर्तव्य निर्वहन के लिये इसे धारण करके गर्व महसूस करते हैं  मानसिक रुग्ण जन भी धारण करते हैं  स्वयं को असुरक्षित समझने वाले लोग घर मे रखना चाहते हैं सम्पन्न भी और कई बार घर मे रखते हैं साधारण लोग भी ऐसे लोग जो आत्मरक्षा और  आत्मसम्मान की समझ रखते हैं दरअसल बंदूक अच्छी या बुरी वस्तु नही है और ना तो बहुत खतरनाक  सही मायने में देखा जाये तो बंदूक से कहीं ज्यादा खतरनाक है नफ़रत नफरत बंदूक से ज्यादा खतरनाक है
 एक अरसा हुआ मुरझाये मुझे अब तो गुलदान से रुख़सत कर दो।।साहनी
 मौत ने कब कहा ज़िन्दगी से डरो जीस्त ही मौत का डर दिखाती रही।।साहनी
 जो न होना था वो कर दिखाती रही। कैसे कैसे ये मंज़र दिखाती रही।। चाहती थी कि हर सु हमीं हम रहें इसलिए ख़ुद को बेहतर दिखाती रही।। मौत ने कब कहा ज़िन्दगी से डरो जीस्त ही मौत का डर दिखाती रही।।साहनी
 मुतमइन था मैं अपनी भूलों पर। आँच आ ही गयी उसूलों पर।। साथ देने तो खार ही आये मैं भी माईल था जबकि फूलों पर।। जज़्ब कालीन पर हुए ज़ख्मी जीस्त बेहतर थी अपनी शूलों पर।। कल तो तारीख़ भी भुला देगा तब्सिरा व्यर्थ है फ़िज़ूलों पर।। एक दिन शाख टूटनी तय थी जीस्त थी ज़ेरो-बम के झूलों पर।। भेड़िये मेमनों से हँस के मिले बिक गये वे इन्हीं शुमूलों पर।। मछलियां ही भटक गईं होंगी है भरोसा बड़ा बगूलों पर।। आके गिरदाब में पनाह मिली आशियाना था जबकि कूलों पर।। साहनी दार का मुसाफ़िर था हिर्स में आ गया नुज़ूलों पर।। मुतमइन/ सन्तुष्ट मुग्ध, खार/काँटे, माईल/आसक्त जज़्ब/भावनाएँ, जीस्त/जीवन, तारीख़/इतिहास तब्सिरा/चर्चा, फ़िज़ूल/बेकार ,शाख/डाल, ज़ेरो-बम/उतार-चढ़ाव, शुमूल/मिलन, सम्मेलन, गिरदाब/भंवर कूल/किनारा, दार/सूली , हिर्स/लालच,  नुज़ूल/नीचे गिरना, सरकारी जमीन सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 पूस माघ घूम रहे फागुन के गांव।  सूरज ने चूम लिये धरती के पांव।।
 क्यों ना अपनी दुनिया ज़रा सुगढ़ कर दें। आओ सारी धरती को अनपढ़ कर दें।। गिरि को गिरि सम गुरु वन को वन की गरिमा में कृतिम प्रदूषण पर कुछ नियम सुदृढ़ कर दें।।साहनी
 ये सच है तुम ही मेरी राधिका थी। तुम्हीं कर्तव्य पथ में बाधिका थी।। बनाना था धरा को कर्मयोगी मगर तुम प्रेम की आराधिका थी।। जहाँ अगला चरण संघर्ष मय था वहाँ तुम सिर्फ़ कोमल साधिका थी।।साहनी
 संग उसके भी इक सफ़र कर ले। ज़िन्दगी मौज  मे गुज़र कर लें।। मेरे क़ातिल को क्यों अज़ीयत हो क्यों न उसकी गली में घर कर लें।। जबकि मन्ज़िल भी एक है यारब एक ही अपनी रहगुज़र कर लें।। मौत से किसलिये ख़फ़ा हों हम किसलिये ज़िन्दगी ज़हर कर लें।। छोड़ जाने पे ग़म नहीं होगा तेरे ग़म को ही मोतबर कर लें।। क्या कहा आपसे लगा लें दिल और इक वज़्हे-दर्दे-सर कर लें।। साहनी लामकान की ख़ातिर किसलिये ख़ुद को दर-ब-दर कर लें।। सुरेश साहनी , कानपुर 9451545132
 कहने को तूने आदमी को क्या नहीं दिया फिर क्यों बशर को दर पे तेरे मांगना पड़ा।।
 मौत की बानगी नहीं लगते। तुम मगर जीस्त भी नहीं लगते।। अजनबीयत में क्या हसीं थे तुम अब मुझे अजनबी नहीं लगते।। कैसे कह दें कि देवता हो तुम जब मुझे आदमी नहीं लगते।। अपने शासन में सच पे पाबंदी तुम मुझे साहसी नहीं लगते।। तुम मेरे वो तो हो न जाने क्यों मुझको तुम अब वही नहीं लगते।। हैफ़ इतना ज़हर बुझे हो तुम शक्ल से बिदअती नहीं  लगते।। हूबहू शक्ल  है कलाम वही तुम मगर साहनी नहीं लगते।। हैफ़/ हैरत, आश्चर्य बिदअती/फ़सादी, झगड़ालू सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 कब तक याचक बन कर फिरता  कब तक मैं दुत्कारा जाता साहित्यिक तथाकथित  न्यासों-  में  कब स्वीकारा जाता जो लिखा उसे पढ़ लिया स्वयं  जो कहा उसे सुन लिया स्वयं उस पर भी चिंतन मनन स्वयं निष्कर्षों को गुन लिया स्वयं अपनी मंज़िल भी स्वयं चुनी अपना अभीष्ट तय किया स्वयं उन सब को घोषित कर वरिष्ठ  ख़ुद को कनिष्ठ तय किया स्वयं जब लगा बिखरना उचित मुझे किरचे किरचे मैं ख़ुद बिखरा जितना टूटा जुड़ कर उतना तप कर कुछ ज्यादा ही निखरा मैंने प्रशस्तियाँ नहीं गढ़ी भूले भटगायन नहीं किया मैं भले एकला चला किन्तु मैंने दोहरापन  नही जिया।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 सिर्फ़ जीने तो हम नहीं आये। दर्द पीने तो हम नहीं आये।। ज़ख़्म मेरे गुहर है मेरे लिये ज़ख़्म सीने तो हम नहीं आये।। फिर भी दरिया के पार जाना है ले सफीने तो हम नहीं आये।। तेरी रहमत भी चाहिये मौला इक मदीने तो हम नहीं आये।। मेरे आमाल में तो जोड़ इसे यूँ खज़ीने तो हम नहीं आये।। तय था आएंगे तेरे पहलू में फिर क़रीने तो हम नहीं आये।। मेरे अपने भी इसमें शामिल हैं ख़ुद  दफीने तो हम नहीं आये।। कह दो मतलब पे ही बुलाया है साहनी ने तो हम नहीं आये।।
 सच में दीवाना करेगा क्या मुझे। या कि खेलेगा भुला देगा मुझे।। जागता है शम्अ सा वो रात भर इश्क़ में कर दे ना परवाना मुझे।। हरकतें उसकी है दुश्मन की तरह बोलता है ग़ैर से अपना मुझे।। है लगे बीमार ख़ुद तो इश्क़ का ऐसा चारागर न दे मौला मुझे।। उसकी आँखों में कोई जादू तो है साहनी लगता है हरि छलिया मुझे।। कृष्ण-10 सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 अभी बीता है घाम का मौसम। भभकते सुबहो- शाम का मौसम उफ़ रसीली गमक फुहारों में लग रहा है ये आम का मौसम
 कब  हमारी  गली  पधारोगे। दुःख से कब तक हमें उबारोगे।। ब्रज की गउवें भी राह तकती हैं कब उन्हें प्यार से पुकारोगे।। द्वारका में बने रहोगे या कर्ज मैया का भी उतारोगे।। ये समाज हो चुका है कालीदह श्याम कैसे इसे सुधारोगे।। श्याम कब फिर से अवतरित होंगे कब दशा दीन की संवारोगे।। कृष्ण-9 सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 सोचा है यही अपनी तरह तुमको बना दूँ। आ जाओ तुम्हें प्यार के आदाब सिखा दूँ।। ख़ामोश निगाहों से कभी  मुझको पुकारो  या ख़्वाबों-ख़यालों में तुम्हें दिल से सदा दूँ।।साहनी
 गर्मिए-एहसास क्या है इश्क़ में। दूर क्या है पास क्या है इश्क़ में।। चल पड़े जब जानिबे-दार-ओ-सलीब फिर भला वनवास क्या है इश्क़ में।। कस्र-ए-दिल में तो रहकर देखिए आपका रनिवास क्या है इश्क़ में।। आशिक़ी में तख़्त क्या है ताज क्या आम क्या है ख़ास क्या है इश्क़ में।। पहले उसके प्रेम में तो डूबिये जान लेंगे रास क्या है इश्क़ में।। तिश्नगी बुझती नहीं है दीद की मैकदे की प्यास क्या है इश्क़ में।। इक अजब है कैफ़ इसमें साहनी क्या खुशी है यास क्या है इश्क़ में।। गर्मिए-एहसास/भावनाओं की तीव्रता जानिब/ तरफ दार-ओ-सलीब/सूली इत्यादि कस्र-ए-दिल/ दिल का महल तिश्नगी/ प्यास दीद/ दर्शन मयकदे/ शराबघर कैफ़/ आनन्द यास/ दुःख, निराशा सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 जीवन का आधार कृष्ण हैं। मानो तो संसार कृष्ण हैं।। जीवन के इस पार कृष्ण हैं। जीवन के उस पार कृष्ण हैं।। संतजनों की रक्षा केशव दुष्टों का संहार कृष्ण हैं।। सब के मित्र सभी के पालक जन जन के परिवार कृष्ण हैं।। जब अधर्म बढ़ता है जग में तब लेते अवतार कृष्ण हैं।। जीवन की बहती नदिया का गोया पारावार कृष्ण हैं।। तस्मेकं शरणं ब्रज प्राणी सहज मोक्ष के द्वार कृष्ण हैं।। कृष्ण-8 सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 कल शहर की एक प्रतिष्ठित काव्य गोष्ठी में शहर के तमाम नामचीन शोअरा- ए - कराम तशरीफ़ फरमा थे।क्षमा करिएगा वहां तमाम सारे कवि उपस्थित थे।कुल मिलाकर एक बेहतरीन गोष्ठी रही।       ऐसा लिखने की परम्परा है। एक बार हम भी एक कवि सम्मेलन में शिरकत करने गए ।कार्यक्रम का मूल मकसद एक विधायक जी का स्वागत करना था जो कार्यक्रम के बीच में आए थे और दो कवियों को बेमन से सुन सुना कर अपने गिरोह के साथ निकल लिए थे। जैसे तैसे बचे खुचे श्रोताओं के बीच कार्यक्रम संपन्न हुआ। साथ में भंडारा आयोजित था ,इसलिए उपस्थिति गई गुजरी होने से बच गई थी। लेकिन अगले दिन सहभागी कवि मित्रों ने बढ़ा चढ़ा कर कार्यक्रम की सफलता के किस्से पोस्ट किए,और बताया कि बेशक यह कवि सम्मेलन गांव में था परंतु फीलिंग किसी मेट्रो पॉलिटन सिटी के समान ही होती रही।  सबसे ख़ास बात यह रही कि जो कवि नहीं थे उन्होंने अच्छे कवि बनने के और काव्य कला के टिप्स दिए। कुछ वरिष्ठ कवियों ने नवोदितों का प्रोत्साहन किया। वहीं कुछ गरिष्ठ कवियों ने अपने ज़माने के मंचों पर बड़े बड़े तीर मारने के किस्से सुनाए और बताया कि उनकी कविता मंचों...
 द्वारका में तो कृष्ण रहता है। पर मेरा सांवरे से रिश्ता है।। जो है गोकुल के नन्द का लाला वो हमारे दिलों में बसता है।। जीव और ब्रम्ह कुछ अलग हैं क्या दरअसल श्याम ही तो राधा है।। ब्रम्ह की बात मत करो उधौ ब्रम्ह का मित्र तो सुदामा है।। द्वारकाधीश आपके होंगे मेरी ख़ातिर तो बस कन्हैया है।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 जब सारा जग सपना है। किस को बोलें अपना है।। नेह लगाना दुनिया से रोना और कलपना है।। इस दुनिया के आवें में मन जीवन भर तपना है।। गायब भी है ज़ाहिर भी ये छुपना क्या छुपना है।। हद है दूरी भी उससे और उसे ही जपना है।। इश्क़ सच्चिदानंद कहाँ उस बिन अगर तड़पना है।। तू सुरेश नादान नहीं तुझमें किन्तु बचपना है।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 इश्क़ का हम अगर भरम रखते। दिल में अपने हज़ार ग़म रखते।। सिलसिला है यक़ीन से वरना शक़ जो करते फ़क़त वहम रखते।। एक उस पर यक़ीन रखते हैं वरना हम भी कई सनम रखते।। तुझसे छुट्टी जो मांगनी होती तेरे मकतब में क्यों क़दम रखते।। इश्क़ परदे की चीज होता तो इश्क़ वाले कई हरम रखते।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 कोई दीवार है  न   दर कोई। आसमां में कहाँ है घर कोई।। रूह की रहती है तलाश किसे जिस्म तो ढूँढता है हर कोई।। छुप के रहना समझ नहीं आया क्या उसे है बशर से डर कोई।। हर कोई तो ख़ुदा नहीं होगा जबकि हर इक में है हुनर कोई।। किसको शिव की उपाधि दे दें हम आज पीता नहीं जहर कोई।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 हुस्न बेशक़ था बेख़बर यारब। इश्क़ लेता रहा ख़बर यारब।। आशिक़ी है वही शज़र यारब। जिसपे आते हैं कम समर यारब।।
 मिली सुखों की छांव   या पाई दुख की धूप। आजीवन सरला रही सरला का प्रतिरूप।।साहनी
 गीत सुधियों के समर्पित कर रहा हूं। आज तुझको स्वत्व अर्पित कर रहा हूं।।  भाव से ही भाव ऊर्जित कर रहा है।। को चुका अस्तित्व अर्जित कर रहा हूं।। प्रेम में
 तिजारत है हमारी खानदानी हमारे खून में व्यापार भी है। तुम्हारे वास्ते यह मुल्क़ होगा हमारे वास्ते बाज़ार  भी है।।
 तो क्या मैं जान गिरवी रख रहा हूँ। फ़क़त ईमान गिरवी रख रहा हूँ।। उम्मीदें रख रहा हूँ आज रेहन कई अरमान गिरवी रख रहा हूँ।। अभी सौदा हुआ है तीरगी से अभी दिनमान गिरवी रख रहा हूँ।। ख़ुदा मिलता उसे भी बेच देता अभी इंसान गिरवी रख रहा हूँ ।। ग़ज़ल दो चार  से हासिल न होगा मेरा दीवान गिरवी रख रहा हूँ।। सुन्दर साहनी
 मन नैनों में झूल गया फिर। इश्क कहां स्कूल गया फिर।। काया की माया में मूरख मायापति को भूल गया फिर।। इश्क़ गोपियों को देकर वह कब कालिन्दी कूल गया फिर।। एक फूल लेने आया था देकर कितने शूल गया फिर।। पनघट से प्यासा लौटा मैं मिलना आज फिजूल गया फिर।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 मौत जब ज़िंदगी का हासिल है। जीस्त फिर क्यों मेरे मुक़ाबिल है।। मेरी खुशियों का मैं ही क़ातिल हूं या कोई और इसमें शामिल है।। उफ ये मासूमियत सुभान अल्लाह कौन बोलेगा हुस्न कातिल है।। इब्तिदा है सफ़र की वो शायद हम जिसे सोचते हैं मंज़िल है।। तुम जिसे ले चुके सिवा उसके कैसे कह दें कि और इक दिल है।। सुरेश साहनी कानपुर
 जब भी लिखने गीत चले हम। शब्दकोश से रीत चले हम।। तुम प्रवाह के साथ बह गए धारा के  विपरीत  चले हम।।
 तुमको साहिल से उम्मीदें हैं क्या। अब भी मंज़िल से उम्मीदें हैं क्या।। हौसला है तो सफर जारी रख सिर्फ़ राहिल से उम्मीदें हैं क्या।। अब भी आंखों में मुहब्बत क्यों है अपने क़ातिल से उम्मीदें हैं क्या।। मुझको साक़ी से नहीं है उम्मीद तुम को महफ़िल से उम्मीदें हैं क्या।।
 तुम अगर बेवफ़ा न हो जाते। इश्क़ के देवता न हो जाते।। तुम नहीं हो जो इश्क़ में क्या हो इश्क़ करते तो क्या न हो जाते।। इश्क़ वालो को मौत आती तो हम भी अब तक फना न हो जाते।। तुमको ख़ुद पर यकीं न था वरना अपने वादे वफ़ा न हो जाते।। जीस्त फिरदौस हो गयी होती तुम जो सच मे ख़फ़ा न हो जाते   सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 ठीक है हमसे वफ़ा मत करिये। पर हमें ग़म भी अता मत करिए।। आप हैं ग़ैर के होते रहिये हमको अपना भी कहा मत करिए।।साहनी
 दुनिया की पाँच तीन पे लिखना पड़ा मुझे। इक बेवफ़ा हसीन पे लिखना पड़ा मुझे।। अहले सुखन ने छोड़ी कहाँ है कोई जगह फिर फिर  लिखी ज़मीन पे लिखना पड़ा मुझे।।
 बेसबब कहते रहे सुनते रहे। रह सतह पर सीपियाँ चुनते रहे।। योजनाओं के अमल से दूर हम सिर्फ़ परिणामों पे सिर धुनते रहे।। हर अयाँ से तो थे बेपरवाह हम जो नहीं था हम उसे गुनते रहे।। हासिलों से खुश न रह पाए कभी खो न दें इस फ़िक्र में घुनते रहे।। उम्र भर बेकार की चिन्ता लिए साहनी जलते रहे भुनते रहे।। साहनी सुरेश कानपुर 9451545132
 कौन लेकर   बहार   आया है। है वो  मोहूम या कि साया है।। कैसे कह दूँ मैं सिर्फ़ ख़्वाब उसे हर तसव्वुर में वो  नुमाया है।। खार कुछ  नर्म नर्म   दिखते हैं कौन    फूलों में   मुस्कुराया है।। दस्तकें बढ़ गयी हैं खुशियों की किसने दिल का पता बताया है।। बेखुदी क्यों है इन हवाओं में क्यों फ़िज़ा  पर खुमार छाया है।। आज वो भी बहक रहा होगा जिसने  सारा ज़हां  बनाया है।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 कि गुज़री है  अभी  आधी उमरिया। अभी भी राह तकते हैं सँवरिया ।। कई सोलह के सावन जा चुके  हैं अभी भी हूँ पिया की मैं बवरिया।। मैं बिगड़ी हूँ मेरी बाली उमर से नही है सूझती अब भी डगरिया।। न जाने किस नगर से आ रही हूँ न् जाने जाऊंगी मैं किस नगरिया।। मुहूरत एक दिन आएगी तय है मगर कब आयेगी है कुछ खबरिया।। अभी साजन के घर पहुची नहीं हूँ अभी से हो गयी मैली चदरिया।। पिया आएंगे डोली ले के जिस दिन सजेगी साहनी उस दिन गुजरिया।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 ख़्वाब देखें कि हम जगायें हमें। ख़ुद से रूठें की हम मनायें हमें।। मक़तबे-इश्क़  का सबक यारब तुझ से सीखें कि हम सिखायें हमें।।साहनी
 नल और नील निषाद राजा थे ऐसा कतिपय ग्रंथों में उल्लेख मिलता है। उन्हें वरदान था या वे जानते रहे होंगे कि कौन कौन से पत्थर पानी विशेषकर समुद्र के भारी जल में तैर सकते हैं। तभी मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने नल नील बंधुओं से सेतु बंधन का आग्रह किया था।  यह भी संभव है कि उन्होंने सेतु बंधन में नावों की श्रृंखला बनाकर उन पर पत्थर डाले हों। क्योंकि मेरा मानना है कि मर्यादा पुरुषोत्तम ने किसी चमत्कार का आश्रय तो नहीं ही लिया होगा। किंतु वे युद्ध कौशल के नायक थे इसमें कोई संदेह नहीं, जिसके चलते उन्होंने कोल भील और वानर समुदाय को संगठित कर रावण जैसे अजेय योद्धा को पराजित किया और मृत्यु के घाट पहुंचाया।  खैर मैं तो फिलहाल राम से शिकायत का भाव ही रखूंगा। और मुझे पता है कि यह मेरे लिए किसी भी भांति अहितकर नहीं सिद्ध होगा। तुलसी बाबा ने कहा भी है कि -   भाव कुभाव अनख आलसहूं।     नाम जपत मंगल दिस दसहूं।।
 इस तरीके के काम कर देगा। मुल्क़ को बे निजाम कर देगा। क्या पता कि चाय के बदले सबका जीना हराम कर देगा।।
 किसी सूरत भी क्यों ये काम कर दें। तुम्हें हम किसलिये बदनाम कर दें।। कभी बाज़ार की ज़ीनत न बनना कहीं ख़ुद को न हम नीलाम कर दें।।साहनी
 क्या हुआ तुम जो छोड़ जाओगे। क्या बिगड़ जायेगा बताओगे।। क्या मैं मर जाऊंगा मुहब्बत में या कि तुम और उम्र पाओगे।।साहनी
 फिर सिफर निकला मुक़द्दर में मुक़द्दर में। फिर नदी डूबी समंदर में समंदर में।। क्या ढहा मुझमें कोई दिल या खण्डहर टूटा कोई घर में कोई घर मे।। कोई कांटा चुभ गया तो क्या क्यों चुभे हैं फूल बिस्तर में बिस्तर में।।
 जिन्दगी के गीत गाना आ गया। हां हमें भी मुस्कुराना आ गया।। बिन सुने भी दिल ने वो सब सुन लिया बिन कहे सब कुछ बताना आ गया।। शक सुब्हा यूं दुश्मनों पर कम हुए दोस्तों को आजमाना आ गया।। उसने बोला था सम्हलना सीख लो और हमको लड़खड़ाना आ गया।। उसको नाकाबिल समझिए साहनी जिसको भी खाना कमाना आ गया।।  दौलतेगम पाके उनसे यूं लगा हाथ कारूं का खज़ाना आ गया।। लौट आया हुस्न फिर बाज़ार से क्या मुहब्बत का ज़माना आ गया।। सुरेश साहनी,कानपुर
 तुम जो मिलते तो तुमको समझाते। झूठ हैं प्यार वार के नाते।। तुम मुझे याद तो नहीं करते फिर मुझे भूल क्यों नहीं जाते।। जिस्म किसको दिया नहीं मालूम दिल भी जाकर उसी को दे आते।। अब मिलोगे यकीं नहीं फिर भी तुम जो मिलते तो खूब बतियाते।। तुम थे गोया कोई हसीं मतला काश हम तुमको गुनगुना पाते।।
 हमसे अब तक कोई ग़ज़ल न हुई। कोई मतला कोई पहल न हुई।। हश्र पर आ गए हयात के यूँ गोया अपने लिए अज़ल न हुई।।साहनी
 हम कहाँ तुम कहाँ निजाम कहाँ। वो कहाँ और उसका धाम कहाँ।। पा लिया आपने अवध अपना हम प्रतीक्षित हमारे राम कहाँ।।
 घर आंगन संसार वही थे। खुशियों के आगार वही थे।। थे तो सरकारी विद्यालय पर विकास के द्वार वहीं थे।।
 बीमा डूबेगा बैंक डूबेंगे। इसमें ज़रदार ख़ाक़ डूबेंगे।। अब बरहनों  का कुछ न बिगड़ेगा हम गरेबान - चाक डूबेंगे।।साहनी
 उम्र इक उलझनों को दी हमने। ज़िन्दगी अनमनों को दी हमने।। अपनी इज़्ज़त उछलनी यूँ तय थी डोर ही बरहनों को दी हमने।। गालियाँ दोस्तों में चलती हैं पर दुआ दुश्मनों को दी हमने।। भूल कर अपने ख़ुश्क होठों को मय भी तर-दामनों को दी हमने।। सोचता हूँ तो नफ़्स रुकती है सांस किन धड़कनों को दी हमने।। जानकर भी ख़मोश रहने की कब सज़ा आइनों को दी हमने।। क्यों तवज्जह सराय-फानी पर साहनी मस्कनों को दी हमने।। बरहनों/ नंगों, नग्न ख़ुश्क/ सूखे तरदामन/ भरे पेट,  गुनाहगार नफ़्स/ प्राण मस्कन/ मकान सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 कुछ नया कर के देख लेते हैं। दिल तेरा कर के देख लेते हैं।। यूँ तो तुझ पर यकीं नहीं लेकिन इक दफा कर के देख लेते हैं।।साहनी
 तुम अगर साथ चल दिये होते। हमने मानक बदल दिये होते।। ज़िन्दगी यूँ न ग़र्क़ होती जो प्यार को चार पल दिये होते।।साहनी
 छपाक ! छपाक!! नदी में कूदते थे ,तैरते थे मन भर नहाते थे वरुण के बेटे बाढ़ में बाढ़ के बाद भी सर्दी गर्मी बरसात में यानी साल भर नदी ही हमारा घर दुआर आंगन दलान खेत खलिहान  सब थी धीरे धीरे बांध बने ,पुल बना मिल बनी ,मिल को पानी मिला मिल ने पानी छोड़ा मछलियों ने छोड़ दिया नदी में आना जाना तैरना इठलाना मंडराना और नदी छोटी हो गयी बड़े हो गए वरुण के बेटे बेटे अब नदी में नहीं नहाते बेटे अब बिकना चाहते हैं..... Suresh Sahani कानपुर
 बेशक़ तुम चुप रह सकते हो कोई जस्टिस मरता है तो कोई अफसर मरता है तो कुछ किसान भी जी न सके तो आख़िर तुम क्या कर सकते हो  बेशक़.... सड़क बिक गयी बिक जाने दो रेल बिक रही बिक जाने दो जल नभ भी यदि बच न सके तो बिकने दो क्या कर सकते हो बेशक़.......
 मैं गांधी जी की निंदा करता हूँ।महाजनो येन गतः स पन्था,। जैसा बड़े लोग करें वैसा ही अनुसरण करना चाहिए। ऐसा करने से आदमी सीएम पीएम और सेलिब्रेटी  बन सकता है।और फिर वचने का दरिद्रता, एक गाली ही तो देना है।फेमस होने का ये आसान तरीका है। गान्धी जी ने उस दक्षिण अफ्रीका में विक्टोरिया शासन का विरोध करने का दुस्साहस किया, जहाँ भारत से लोग अधिकृत गुलाम बनाकर ले जाये जाते थे। अब इस विरोध से भारत का क्या लेना देना। वे सम्पन्न परिवार से थे।महंगे महंगे सूट पहनते थे।दिखावे के लिए आधी धोती पहनने लगे।फिर जीवन भर नहीं पहने।उन्होंने जन आंदोलनों में भामाशाहों की जरूरत को समझते हुए उन्हें जोड़ा।इसकी आड़ में देश की बहुतेरी गरीब जनता के त्याग और बलिदान बेमानी हो गए।हाँ इसका बड़ा लाभ यह हुआ कि जन आंदोलनों की सबसे बड़ी समस्या आर्थिक तंगी दूर हो गयी।और भारत को एक राष्ट्रीय नायक मिल गया। वे देश के कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने की बात करते थे।इस वजह से भी देश को भारी नुकसान हुआ।देश का वैसा औद्योगिक विकास नहीं हो पाया आज जैसा मोदी जी कर रहे हैं। गांधीजी देश को मोटा खादी पहनने का सन्देश देते रहे।इससे देश फैशन ...
 यहाँ सब गुल ओ लाला दिख रहा है। मुझे हर सूं उजाला दिख रहा है।। दिखाओ लाख बातें  दो जहाँ की मैं भूखा हूँ  निवाला  दिख रहा है।। हमें जो दाल काली दिख रही थी वही मुर्ग़-ओ-मसाला दिख रहा है।। अभी कुछ दिन उसी की ही चलेगी अभी वो औज़-ए-ताला दिख रहा है।। मैं अँधा हूँ दिवाली ही कहूंगा बला से वो दिवाला दिख रहा है।। मेरी शादी कराची में करा दो मुझे इमरान साला दिख रहा है।। वो कुछ भी बेचता है बेचने दो हमें वो काम वाला दिख रहा है।। तुझे अच्छा नहीं देगा दिखाई  मुझे तू आँख वाला दिख रहा है।। मेरे आका को तुमसे क्या मिलेगा उसे धीरू का लाला दिख रहा है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 आज लिखने का समय हैं, मौन हो तुम पीढियां कोसेंगी तुम को ,ये न समझो वेध देंगे शब्द शर शैय्या बनाकर उत्तरायण की प्रतीक्षा में धरा पर पूर्व उसके द्रोपदी सहसा ठठाकर पूछ लेगी उस घडी क्यों मौन थे तुम दे न पाओगे कोई उत्तर पितामह अश्रु आँखों से बहेंगे ,कंठ रह रह- कर कहेंगे वेदना टोकेगी मत कह अब भला क्या उस समय तो मौन थे तुम और शब्दों से बिंधे तुम याचना में मृत्यु मांगोगे व्यथा में वेदना में भाव प्रायश्चित के होंगे याचना में मृत्यु हंस देगी कहेगी कौन हो तुम और तड़पो और तड़पो और तड़पो और हर अन्याय पर तुम आँख मूँदो सत्य को असहाय छोडो साथ मत दो युग युगों तक शब्द शरशायी रहो तुम देख कर अन्याय क्यूँकर मौन थे तुम।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 #ग़ज़ल मेरी हर इल्तिज़ा को टाल गया। काम अपना मगर निकाल गया।। उससे कोई जबाब क्या मिलता पूछ कर मुझसे सौ सवाल गया।। इसमें कोई ख़ुशी की बात नहीं उम्र का और एक साल गया।। खिदमतें वालिदैन की करना जानें कितनी बलायें टाल गया।। लड़खड़ाये थे कुछ कदम लेकिन एक ठोकर हमें सम्हाल गया।। मेरी ख़ातिर हराम क्या है जब शेख़ करके मुझे हलाल गया।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 मुसलसल बड़े सवाल उठाए चला गया।। लेकिन बिना जवाब बताए चला गया।। आया था सर निगूँ तो लगा क्या करेगा वो मक़तल में अपना सर जो उठाये चला क्या।। मंज़िल का पता पूछने का वक़्त ही न था मंज़िल को ही मुकाम पे लाये चला गया।।
 कुछ ख़बर देने की बातें कर रहे थे लोग कुछ। पैग भर देने की बातें कर रहे थे लोग कुछ।। इन परिंदों से चरिंदों को भला है उज़्र क्या पर कतर देने की बातें कर रहे थे लोग कुछ।। क्या कोई सुकरात फिर पैदा हुआ है शहर में फिर ज़हर देने की बातें कर रहे थे लोग कुछ।। हमको है मालूम दावे इंतेखाबी थे मगर क्या न कर  देने की बातें कर रहे थे लोग कुछ।। एक भूखा जानवर कैसे तड़पता देखते ज़िब्ह कर  देने की बातें कर रहे थे लोग कुछ।। इसको रोटी इनको रोजी उनको कपड़ा साथ मे सबको घर देने की बातें कर रहे थे लोग कुछ।। खेत भूखों के लिए वादे में प्यासों के लिए  इक नहर देने की बातें कर रहे थे लोग कुछ।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132 srshsahani@gmail.com
 जीनते बाजार समझा है मुझे। क्या कभी इक बार समझा है मुझे।। उसकी आंखों में हवस है और वो कह रहा है प्यार समझा है मुझे।। पूछना तफसील से हाले शहर क्या फकत अख़बार समझा है मुझे।। कर गया जिक्रे मदावा इस तरह क्या कोई बीमार समझा है मुझे।।
 अपने हर सू तो आइना रक्खा। हुस्न ने था मुझे बना रक्खा।। मुझको आशिक़ नया नया कहकर उसने दिलवर  कोई नया रक्खा।। मर न पाया न जी सका खुलकर उसने जैसे कि अधमरा रक्खा।। दूर रहने नहीं दिया उसने पास रख्खा तो फासला रक्खा।। भूल जाने को कर लिये आशिक़ याद करने को एक ख़ुदा रक्खा।।
 आज उससे मिलन है अच्छा है और मेरा भी मन है अच्छा है।।  काश दो चार लोग ये कहते साहनी का सूखन है अच्छा है।।
 माना जंगल पुरखतर है। उससे बदतर तो शहर है।। आदमी ज्यादह बुरा है जानवर तो जानवर है।। आज किस पर हो भरोसा जबकि अपनों से भी डर है।।
 उसका मुझसे या मेरा उससे जो इक नाता है। सब ये कहते हैं इसे इश्क कहा जाता है।। फोन स्विच ऑफ है या और कोई है कारण कम से कम कुछ नही मैसेज तो दिया जाता है।।
 आज अपनी जिन्दगी लगने लगी बोझिल मुझे। उसने वापस ले लिया कल ही दिया था दिल मुझे।। कत्ल जिसके हाथ कल मेरी वफा का हो गया उसने सबके सामने ठहरा दिया क़ातिल मुझे।। इश्क क्या दो चार पल की कैफियत का नाम है उम्र भर के रंजोगम जो हो गये हासिल मुझे।। पूछ मत फिर शीशा -ए - दिल क्या हुआ टूटा तो क्यों एक पत्थर दिल ने जब ठहरा दिया बेदिल मुझे।। आ गया  गिरदाब से भी बच निकलने का हुनर अब समंदर में रहूंगा ढूंढ मत साहिल मुझे।।
 रहते जब वो साथ में पल पल होती रार। जरा दूर वो क्या हुए लगा उमड़ने प्यार।। लगा उमड़ने प्यार नींद आंखों से भागी खोया खोया वार रात भी जागी जागी विरह व्यथा की कथा साहनी किससे कहते आदत जो बन गई साथ की रहते रहते।।
 सुना है पत्र-पत्रिकाओं में भेजना पड़ता है।लोग अक्सर बताते रहते हैं कि वे चार पांच सौ(पत्र - पत्रिकाओं ) में छप चुके हैं।हुई न सुपिरियारिटी कॉम्प्लेक्स वाली बात।एक अंतर्राष्ट्रीय कवि बता रहे थे कि "उनकी सैकड़ों किताबें  छप चुकी हैं। तुम्हरी कित्ती छपीं। छपवा डारो। नहीं तो मुहल्ले भर के रहि जाओगे। परसो नजीबाबाद ज्वालापुर यूनिवर्सिटी में डॉक्टरेट की डिग्री से नवाजा गया है। अभी हमने अमरीका और वेस्टइंडीज में ऑनलाइन कविता पढ़ी है।आस्ट्रेलिया वाले लाइन लगाए हैं।' बाद में पता चला कि गेंदालाल पच्चीसा के नाम से उन्होंने दस सैकड़ा प्रतियां छपवाई हैं ,जिसे वे गोष्ठियों में बांटा करते हैं।   खैर सही बात है यहां तो मुहल्ले में कउनो घास नहीं डालता। क्या करें ! चुपचाप सुनते रहे। कल एक मित्र में एक साप्ताहिक परचून अखबार वाले से मिलवाया। वे बताने लगे मैं पत्रकार हूं।रूलिंग पार्टी की समाचार प्रकोष्ठ का मंत्री भी हूं। मेरा अख़बार लखनऊ तक जाता है। कहो तो एक कविता छाप दें। बस 500/₹ की मेंबरशिप लेनी पड़ेगी।क्योंकि मैं ही  मार्केटिंग भी देखता हूं। मैने असमर्थता जताई और उन्हें चाय पिला कर चल...
 और हम खुद पे ध्यान कैसे दें। अपने हक़ में बयान कैसे दें।। पास मेरे ज़मीन दो गज है आपको आसमान कैसे दें।। गांव की सोच जातिवादी है उनको बेहतर प्रधान कैसे दें।। इसमें मेरी ही रूह बसती है तुमको दिल का मकान कैसे दें।।  एक चंपत हमें सिखाता है ठीक से इम्तेहान कैसे दें।। वो भला है मगर पराया है उसको दल की कमान कैसे दें।। भेड़िए गिद्ध बाज तकते हैं बेटियों को उड़ान कैसे दें।। ये अमीरों के हक से मुखलिफ है सबको शिक्षा समान कैसे दें।। साहनी ख़ुद की भी नहीं सुनते उल जुलूलों पे कान कैसे दें।। सुरेश साहनी कानपुर
 हमने समझा वे सबको घर देंगे। क्या पता था वे सिर्फ़ डर देंगे ।। उनके वादे तो थे करोड़ों के अब वे हम आप को सिफर देंगे।। भाईचारे पे इक सवाल न हो इतनी नफरत दिलों में भर देंगे।। हौसले तक जिन्होंने छीन लिए वो कहां हमको बालो पर देंगे।।
 जब भी उसका ख्याल आता है। क्या कहें क्यों मलाल आता है।। आज भी रात के ख्यालों में उस गली से गुलाल आता है।। ज़िंदगी को जवाब देना था ज़िंदगी से सवाल आता है ।।
 शनी निवारण के लिये दिया उसे निपटाय। फिर आरी से जिस्म के टुकड़े कई बनाय।। टुकड़े कई बनाये राज छिप जाए जिससे अच्छी तरह पकाय कुकर प्रेशर में हिस्से कह सुरेश कविराय किया श्वानों को अर्पण। अबला का बलिदान कर गया शनी निवारण सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 मुसलसल हम सफ़र में हैं। भले हम अपने घर में हैं।। हैं अपने अजनबी जैसे कई घर एक घर में हैं।।साहनी
 इक पुराना चलन समझ लेना रूह को ही बदन समझ लेना बेज़मीरों की इस निज़ामत में जिस्म ही को कफ़न समझ लेना।। साहनी
 क्या किसी को वक़्त बंजारा लगा। क्यों ज़हाँ को मैं ही आवारा लगा।। जाने कितनों ने मुझे वहशी कहा सिर्फ़ इक लैला को बेचारा लगा।। अश्क़ खारे हैं मेरे तस्लीम है दिल का दरिया क्यों उन्हें खारा लगा।। क्या मेरा इंसान होना ऐब था मैं ही क्यों आसान सा चारा लगा।। क्यों नहीं मैं अपना लग पाया उन्हें जब मुझे अपना ज़हां सारा लगा।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 जब हमारे देश की जनता  हुकूमत के सामने सर उठाती है तो कष्ट होता है।जबकि इसी जनता के लिए लगभग चौहत्तर वर्षों में हुकूमत सैकड़ों लाख करोड़ के कर्ज ले चुकी है। आज विकास के  हर क्षेत्र में हम विश्व का पीछा करते नज़र आते हैं। दुनिया भर के देश हमसे डर डर कर के आगे भाग रहे हैं।यहां तक कि बंग्लादेश भी हमसे बराबरी करने की हिम्मत नहीं करता।हाँ पाकिस्तान कभी कभार हमसे पिछड़ेपन में बराबर आने की कोशिश कर लेता है। इसका मूल कारण यही है कि यहां की जनता हुकूमत का आभार नहीं मानती। देश के बच्चे बच्चे के लिए सरकार ने चालीस से पचास लाख का कर्ज ले रखा है। यानी सरकार के उपकारों के बोझ तले बच्चे बूढ़े सभी दबें हुये हैं। यह सरकार का बड़प्पन है कि वो आप पर लड़े कर्ज के बोझ का व्याज नहीं लेती।    किंतु यहाँ के लोग समझते ही नहीं। अभी एक नेता को मात्र विधायक/सांसद बनवा देने भर से वह नेता बड़े नेता का तीन चार साल के लिये ऋणी हो जाता है।बाकी एक दो साल वो पुनः टिकट की दावेदारी के लिए बचा के रखता है ताकि पुनः दावेदारी न बन पाने पर रूठने/धोखा देने का स्कोप बना रहे।  अब देखिए कोरोना वैक्सीन के लिए ए...
 मीर बन गालिब के फन की ओर चल हमनवा बन हमसुखन की ओर चल वक्त का सूरज निकलने को है उठ ख़्वाबगाहों से सहन की ओर चल अंततः परदेश है परदेश ही लौट ले अपने वतन की ओर चल।। जिस्म है गोया पुराना पैरहन अब नये इक पैरहन की ओर चल।। साहनी लहजा पुराना छोड़ कर अब नये तर्जे-कहन की ओर चल।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 पढ़ोगे तो तुम्हें पढ़ने न देगा। कोई सीढ़ी तुम्हें चढ़ने न देगा।। बड़े लोगों के झांसे में न रहना कोई बरगद तुम्हें बढ़ने न देगा।।सुरेश साहनी
 सजीले ख़्वाब आने की वजह थे। कभी तुम मुस्कुराने की वजह थे।। ज़माने की नज़र  यूँ ही नहीं थी तुम्हीं तो इस निशाने की वजह थे।। ये माना अब नहीं हो दास्तां में मग़र तुम हर फ़साने की वजह थे।। अभी तुम मेरे रोने की वजह हो कभी हँसने हँसाने की वजह थे।। बताओ क्या करें इस  कश्रे-दिल का तुम्हीं इस आशियाने की वजह थे।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 अक्सर ख़्वाबों की रखवाली में बीता। सारा जीवन ख़्वाबख़याली में बीता।।
 सौ बरस यार की उम्र हो सौ बरस प्यार की उम्र हो सौ बरस मान की उम्र हो सौ ही मनुहार की उम्र हो सौ बरस राधिका तुम रहो सौ बरस सांवरे तुम रहो तुम भी जोगन रहो सौ बरस सौ बरस बावरे तुम रहो सौ बरस अंक की उम्र हो सौ ही अँकवार की उम्र हो मेरा घर मेरा परिवार तुम घर की दर और दीवार तुम लोक तुम मेरे परलोक तुम धर्म तुम मेरे संसार तुम  सौ बरस हाथ मे हाथ हो सौ ही अभिसार की उम्र हो सौ बरस राग की उम्र हो सौ बरस रार की उम्र को सौ बरस प्रीति के लाज से नैन रतनार की उम्र हो सौ बरस तक रहे दृग तृषा सौ अधर धार की उम्र हो।। सौ बरस यह प्रभायुत रहो सौ बरस मान्यवर तुम रहो बार सौ आये मधुयामिनी बार सौ कोहबर तुम रहो सौ बरस स्वास्थ्य सुख से भरे भाव भण्डार की उम्र हो।।
आपकी बदमाशियों पे फ़ख्र है।। आपकी लफ़्फ़ाज़ियाँ भी खूब हैं आपकी बूबासियों पे फ़ख्र है।। काश मिल जाती फ़क़ीरी आपकी आप से सन्यासियो पे फ़ख्र है।। बस गये वो  जाके  इंग्लिस्तान में  कह रहे ब्रजबसियो पे  फ़ख्र है।। आप के दोहरे चरित पर नाज है आप से बकवासियों पर फ़ख्र है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 जिंदगानी यूँ खतम करते नहीं। हाँ कहानी यूँ खतम करते नहीं।। सल्तनत दिल की बढ़े चाहे घटे राजधानी यूँ खतम करते नहीं।। सूख जाए ना समन्दर ही कहीं  ये रवानी यूँ  खतम करते नही।।  कुछ अना से कुछ ख़ुदा से भी डरो हक़बयानी यूँ ख़तम करते नहीं।। शक सुब्ह नजदीकियों में उज़्र है शादमानी यूँ खतम करते नहीं।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 हर एक शख़्स में इंसान नहीं होता है। जो समझ ले वो परेशान नही होता है।। तुम उसे पूज के भगवान बना देते हो कोई पत्थर कभी भगवान नही होता है।। पशु व पक्षी भी समझते हैं मुहब्बत की जुबाँ कौन कहता है उन्हें ज्ञान नहीं होता है।। आज विज्ञान ने क्या ख़ाक तरक्की की है मौत का आज भी इमकान नही होता है।। ये सियासत है यहां और मिलेगा सबकुछ इनकी दुनिया में इक इमान नहीं होता है।। देश-दुनिया के मसाइल तो पता हैं इनको इनसे रत्ती भी समाधान नहीं होता है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 प्यार सौदा तो नहीं है ,शर्त है तो प्रीत कैसी ? प्यार केवल है समर्पण ,हार कैसा जीत कैसी? उर्मिला के प्रेम का मूल्यांकन कैसे करोगे ? या लखन की वेदना को जानकर भी क्या करोगे ? दूर से हम क्या बताएं ,प्यार की है रीत कैसी ? सुरेशसाहनी, कानपुर
 #सख्तमनाहै सत्ता से पहले विनम्र थे आज उन्हें इतना घमंड है। आज सब्सिडी छीन रहे है जाने कैसा मापदंड है।। कल कह देंगे सख्त मना है खुली हवा में सांसे लेना घर से बाहर कहीं निकलना दुःख तकलीफ में रोना धोना आज़ादी का अनुभव करना उल्लंघन पर कड़ा दंड है।। सुरेशसाहनी
 जब हमें चुभने लगी  थी उम्र  की वह धूप। छांव जैसे दे गया उनका सलोना रूप।। हाय अंधे प्रेम के होते नहीं जब पाँव। कैसे चल कर आ गया मेरे हृदय के छाँव।।
 ए हो सुकुल जी का हो तिवारी का  चीज ढाँकी  केंहर उघारी अपने दुआरे भिखारी बा राजा आने दुआरी पे राजा भिखारी गाँवे में मूवल भी निम्मन लगेला जीयल शहरिया में लागेला गारी छाइब  पलानी जां  बईठब दुआरी
 ऐ ख़ुदा मालिके ज़हां होकर। क्यों भटकता है लामकां होकर।। तू यहां से पनाह मांगेगा एक दिन देख तो अयां होकर।। हाथ खाली गया सिकंदर भी क्या मिला रुस्तमे ज़मां होकर।। उस अलॉ  ने भरम ही तोड़ दिया जब मिला वह मुझे फलां होकर।। चार दिन की चमक पे शैदा शय एक दिन रहती है धुआं होकर।। सिर्फ़ दो गज ज़मीन दे पाया शख्सियत से वो आसमां होकर।। मौत के साथ ही निकल भागी बेवफा जीस्त मेरी जां होकर।। सुरेश साहनी कानपुर
 ऐसा नहीं कि तौर तरीके पता नहीं बाहर ज़रा हुआ हूँ ज़माने के दौर से।।SS
 हम सरमायेदारों को कितना रिस्क उठाना पड़ता है। इस दर्द को सत्तर सालों में पहले नेता ने समझा है।। तुम सब को केवल एक फ़िकर वेतन बोनस या पेंशन है पर हम को तो दुनिया भर के रगड़े झगड़े औ टेंशन है इन सब में कुछ को सुलटाना कुछ को निपटाना पड़ता है।। तुमको मालुम है भारत की जनता भारत की आफत है दस बीस करोड़ गरीब अगर ना हो तो भी क्या दिक्कत है जाने कितना सरकारों को इन सब पे लुटाना पड़ता है।। फिर तुम सबको हर हालत में जीने की गंदी आदत है शहरों से लेकर गांवों तक हर जगह तुम्हारी ताकत है तुम सब के कारण ही हमको चंदा पहुँचाना पड़ता है।। सुरेशसाहनी, कानपुर